सारथी कला निकेतन (सकलानि)

घड़ी साज ----सारथी
मुझे तब लगा जब मैं अकेला होता हूँ तो अपने प्रश्नों का समाधान अच्छी तरह न भी कर पाऊं, तो अपने प्रश्नों को भली भांति समझ तो सकता ही हूँ । यह भी एक दुखांत रहा है की मैं अपने ही कई एक संशयों और संदेहों के रंग रूप ही समझ नहीं पाया हूँ । और जिन को थोडा बहुत समझ पाया हूँ वे सारे ला ईलाज हैं । टीचर कहते हैं प्रश्न होना अनिवार्य है । मैं उन से कहता हूँ प्रश्न हो न हो, उत्तर प्राप्त करना ही परम आनंदित होना है । क्योंकि मैं बहुत तुच्छ हूँ । प्रकृति के रहस्यों को समझने के लिए उन में पड़ना समय की बर्बादी के सिवाय कुछ नहीं है । क्योंकि जितने भी सद्गुण और सद्प्रवृत्तियां हैं वे सभी उत्तर हैं, प्रश्न नहीं हैं । प्रभु उत्तर हैं । दया, विनम्रता, सहानुभूति, सहायता, सेवा यह सभी प्रभु के रूप के उत्तर ही हैं । इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिए नितांत व्याकुलता की आवश्यकता है ।
व्याकुलता का मुझ में अभाव था । यह कैसे बढे यह भी नज़र नहीं आ रहा था । इधर कला क्षेत्र और साहित्य । उधर प्रभु वांछित विछ्लता का भाव । यहाँ तत्काल प्राप्ति , वहां प्रतीक्षा । प्रतीक्षा भी एक नहीं कई जन्मों की । यहाँ पिता श्री गाते थे - साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः यही संस्कार ले कर मैं चल रहा था । यह बात टीचर को सुनाता था । वे बहुत खुश होते थे । कहते थे तुम्हारे पिता अवतार पुरुष हैं । टीचर स्वयं भी गाते थे और गाते हुए मीरां अथवा कबीर के पदों में डूब कर भाव विभोर हो जाते थे । इतने भावुक की पहरों आश्रयों की अविरल गंगा बहती चली जाती थी । और उन्हें चेतना से भी दुःख होने लगता था और बीच बीच में कहते चले जाते थे चेतना भी मुझे लगता है प्रभु की अनुभूति में शत्रु है । तुम भी यही अनुभव करोगे तो चेतना द्वारा होने वाले कामों को त्याग दोगे । मुझे टीचर की बात अच्छी लगती थी । उन का चेतना का अर्थ अर्द्ध चेतन मन और जागृत बुधि से होता था ।
एक बार मुझे साहित्यिक पुरस्कार मिला तो वे तनिक भी दुखी नहीं हुए । कहते चले गए - राख के साथ राख और पत्थर के साथ पत्थर जोड़ने का ढंग तुम्हे आ गया है । परन्तु ध्यान नहीं आया । इतने में यदि हनन का ध्यान करते तो असंख्य पुरस्कार तुम्हारे आगे पीछे चक्कर काटेंगे । उन के कथन पर मुझे पश्चाताप भी हुआ । इस का कारण था उन का आना और कुछ देर रह कर जाने का कार्यक्रम । उन्हें मात्र दो ढाई महीने ही रहना था । पहले जब वे आये थे तो मैं पश्चाताप में झुलसा था । और निश्चय किया था की अब एक भी पल व्यर्थ नहीं गवाऊंगा । और अब के आये हुए उन्हें एक सप्ताह तो हो ही गया था । और मैं उन्हें अपनी बहादुरी और सफलता के कारनामे सुना रहा था । टीचर सभी कुछ नहीं सुनते थे । परन्तु लगता था कि ध्यान मग्न दत्त चित्त हो कर सुन रहे हैं । मुझे खेद हुआ कि इस तुच्छ उपलब्धि का विवरण उन्हें क्यों सुनाया । और उन्हें दुखी किया ।
मुझे तत्काल यह निर्णय करना था कि अब पूरा ही ध्यान यदि न दिया गया तो मुझे प्राश्चित करना ही होगा । उधर डोगरी भाषा के एक वरिष्ठ प्रौढ़ साहित्यकार मुझे निरंतर पूछते कि आप ने क्या लिखा है । चित्रकला के टीचर भी प्रश्न करते कि क्या बनाया है ? यह दोनों बातें मैं टीचर से कहना नहीं चाहता था । मुझे लगता था इस बात का हल मेरे ही पास कहीं है । और मुझे शीघ्र मिलने वाला है । मुझे एक विधि सूझी । जो थी तो संदेहजनक परन्तु शायद उस के अतिरिक्त चारा कोई नहीं था । वह यह कि ऐसा अभ्यास किया जाए कि सभी कुछ करते हुए मनन- चिंतन कि स्थिति को पैदा किया जाए । टीचर लगातार कह रहे थे कि चिंतन का और मनन का स्थान शून्य का स्थान है । जब तक दिल दिमाग खली नहीं होते कुछ भी प्राप्त करना संभव नहीं है । जब तक होते हुए भी कुछ नहीं हो । करते हुए भी कुछ न किया जाए तब तक तो एक शुरुआत भी नहीं समझनी चाहिए । मैं निरंतर अभ्यास करने लगा कि ऐसे स्थिति बन जाए कि मैं कार्य भी करता जाऊं और ध्यान में भी रहूँ । शुरू शुरू में तो यह एक असंभव बात जान पड़ी थी । परन्तु शीघ्र ही यह होने लगा कि लगा स्वयं प्रभु ही कार्य करने का आदेश देने लगे हैं । मैंने यह बात टीचर को बताई तो वे हंसे। कहने लगे - तुम्हारी अपनी धारणा है । यह तुम्हे काफी दृढ कर सकती है । तुम्हारी यह धारणा तुम्हे कई उत्तरों के रूप में प्राप्त हो सकती है ।
( this article of Gurudev was published in Dianik kashmir times under the title "Gari Saaj" on 7th of march 1991)
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