घड़ी साज ----सारथी
सृष्टि में जो कुछ भी तुम्हे दिखाई दे रहा है उस के दो रूप हैं । एक रूप स्थूल है दूसरा सूक्षम । मैं भूत तत्वों की ही बात कर के सम्बन्ध स्थापित करूँगा । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश यह पांच तो तुम देख ही रहे हो । और इन के स्थूल होने पर कारनामे भी देख रहे हो । इन का एक रूप यह भी है की यह सभी भूत तमोगुणी भी हैं रजोगुणी भी हैं और सतोगुणी भी । बैसे तो पृथ्वी और जल को तमोगुणी कहा जाता है । अग्नि और वायु को रजोगुणी कहा जाता है । और आकाश तत्व को (शून्य को - व्योम को ) सतोगुणी कहा जाता है ।
यह भी एक सत्य स्थापित होता है की वायु प्राणदायक भी है, पालक भी है और विनाशक भी । तो यह पाँचों ही तीनों गुणों में हैं । अब तुम यदि कविता की बात करते हो तो मुझे लगता है तुम गुण ही की बात कर रहे हो । कविता भी तमो, रजो और सतोगुणी होती है ।
परन्तु दो बातें कहना अत्यावश्यक है । एक यह की पृथ्वी में, जल में, वायु अग्नि और आकाश पांचो में काव्य के तत्व विद्यमान हैं । और काव्य में भी इन पाँचों के तत्व गुण और धर्म विद्यमान होते हैं। परन्तु तुम्हारा प्रशन बहुत सटीक है और उत्तर का अधिकारी है इसलिए विचार देता हूँ कि अश्लील, गन्दा, घटिया, निरर्थक और व्यर्थ और फालतू काव्य भी होता है । क्योंकि कवि भी इन विभागों से बहार कि वस्तु कदापि नहीं है । कवि भी आदमी है, मानव है । और मानव वृतिओं से तमोगुणी भी होता है, रजोगुणी भी होता है और सतोगुणी भी होता है ।
जो कवि क्षणिक रस का, सुख का अहसास करवाता है और अहसास समाप्त हो जाने पर भी उस का ढिंढोरा पीटे जाता है, यही तमोगुण है और कुछ नहीं है । जो कवि स्वयं अन्धकार में है वह प्रकाश का विवरण कैसे लिख पायेगा । इसीलिए तुम्हे कोई काव्य बहुत ही अच्छा लगता है । कोई सुंदर लगता है । कोई सुंदर और अच्छा नहीं लगता ।
अत्युत्तम काव्य की परिभाषा सर्वोपरि गुण की परिभाषा है । जगत में जो कुछ भी अत्युत्तम है सर्वोच्च है सर्वप्रथम है अद्वितीय है, अनुपम है, वही सतोगुणी काव्य है । ऐसे काव्य में वायु जैसा प्राण, जल जैसे सूक्ष्मता तथा कोमलता, अग्नि जैसे गरिमा और प्रकाश, पृथ्वी जैसे सहिष्णता का और अविष्कारक, उत्पादक, रचनात्मक भाव तथा आकाश जैसे विशालता होगी । इन गुणों के होते हुए यदि तुम्हे गुणों का ज्ञान न हो सके तो तुम्हे गुणों को प्राप्त करने समझने और अनुभव करने के लिए बार बार प्रयत्न करना पड़ेगा । कई बार सारा जीवन ही व्यय करने पर पर भी ठीक और पूरे अर्थों, भावों और तात्पर्यों तक पहुंचना कठिन हो जाता है । अर्थ ही काल से परे होता है । काव्य रहस्य नहीं है । रहस्य का जन्म तथा उद्घाटन अवश्य है । उत्तम काव्य बहुत दीर्घ कालीन सुख आनंद और रस दायक होता है । ज्ञान हो जाने पर व्यवहार, सृष्टि और पीड़ा, संवेदना का गूढ़ ज्ञान हो जाना स्वाभाविक है । उच्च साहित्य जीवन के साथ सम्बन्ध बांधता है । एक तारतम्य पैदा करता है । एक समता समानता और प्रेम की भावना को जन्म देता है । जीवन की विविधता की पहचान भी करवाता है ।
परन्तु एक काव्य सब कुछ छीन ही लेता है। विरक्ति देता है। वैराग्य को सर पर लाद देता है । आसक्ति तथा प्रेम तथा सौन्दर्य भाव भी लुप्त हो जाते हैं । उदासीनता और निराशा का एक दीर्घ क्र्म जन्म ले लेता है । और आदमी चाहता है की कुछ न चाहे । कुछ भी मोहक न हो । दृष्टि के द्वारा दृश्य ही न बने । अर्थ, भाव अर्थ, चरम अर्थ और गर्भार्थ द्वारा भी अर्थ न निकलने का भाव बना ही रहे और काव्य का मूल केंद्र वैराग्य हो जाए । वह भी काव्य होता है । वास्तव में वही काव्य होता है । काव्य स्वतन्त्र करता है । काव्य बंधन मुक्त करता है । स्वतन्त्र करता है । काव्य मोक्ष का मार्ग है । जायसी, रसखान, बाबा फरीद, नानक, पलटू, दादू, कबीर, तुलसी, मीरा, रमण, सूरदास आदि काव्यकारों ने अपने अस्तित्व का विलय विराट में किया । विराट को उपलब्ध किया । सीमित ढांचे से निकल कर असीम में चले गए । असीम से निकल कर 'नहीं' में प्रवेश कर गए । वे सर्वोत्तम, सर्वोच्च, अद्वितीय और उस काव्य के रचैता थे जो सृष्टि के कण कण में है । और जो प्राण बन कर श्वास श्वास में समा रहा है । जो देहों को त्याग रहा है । जो देहों को धारण कर रहा है । जो गति भी है गतिमान भी है जो गति का मूल भी है ।
काव्य वही विराट है जो पहले गुरत्वाकर्षण है, फिर शब्द है, फिर अर्थ है। वही फिर तीन गुण ले कर रस, रूप, गंध बन कर दृश्य और अदृश्य में है ।
परन्तु एक बात का विश्वास आवश्यक है । सूक्षम तथा अतिसूक्षम सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी है। उस का स्थूल होना किसी घटना का क्रम मात्र हो सकता है। परन्तु यह कभी संभव नहीं है की यदि स्थूल है तो सूक्षम का सार होगा । अति सूक्षम केंद्र है और सभी उस के वृत्त । वह स्वयं ही के वृत्त काव्य, नाटक, संगीत, और रंगों में बना कर स्वयं ही को देखता है । चित्र पहले ही से आकाश (शून्य ) में होता है । रंग और गति उसे स्थूल बना देते हैं ।
( this article of Gurudev was published in Dianik kashmir times under the title "Gari Saaj" )
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