तन्तु
गति मे घिरा, एक क्षण सा
नितांत अकेला अपने मे इक वृत सा
चक्र-व्यूह का एक कोण सा,
सागर का अदृश्य किनारा
या मरूस्थल’ का कण सा
एक अकेला सब कुछ
भीतार- बाहिर
बाहिर – भीतर जो कुछ भी
हरपल होता है
हरपल दिखता है,
देखता हरपल, या दिखता है,
दिखने वाला, सुनने वाला और सुनाई
देने वाला
अविराम गतिशील, कौन है यह ?
क्या है यह? है भी यह कुछ?
यह भीतर है, या बाहिर?
देखता यह है,
सुनता यह है,
कहता यह है,
सुनने से दिख पाने का
कहने से कहलाने का
रिश्ता – नाता, तारतम्य
किसके कारण किस माध्यम से
क्या कितना और कैसे है?
फिर क्या यह
दिखने, कहने, सुनने, बोलने योग्य है?
यदि है तो,
यह भीतर के द्वारा है या बाहिर के?
कभी कभी अनुभव होता है
स्वयं आँख है देखने वाला
सुनने वाला, स्वयं कान और जीभ स्वयं
है,
बोलने वाला।
और भीतर है इनका सबका आधार
गहरा भीतर, अति गहरा अंतर,
जिसका कुछ भी पा लेना
कठिन है दर्शक को,
संभव नहीं, सुना जा सके,
सब ही हैं सामर्थ्य हीन!
-o-
वृत मिल जाने के,
अनुमान, प्रमाण निकटता के,
भीतर के अनुसार – व्यापार यदि हों,
यह घेरे यह वृत
दिखाई देते है सिमटते और अपनाते,
बाहिर की आँखों के द्वार ,
श्रवण की खिड़कियाँ,
जीभों के अशिष्ठ आदान प्रदान,
छिन जाए, टूट जाए, गिर जाए,
परंतु
कहा होता है टूटना, छीनना और गिरना समाप्त।
देखने दिखाने, बोलने और सुनने वाला
एक छलावा जो है
द्वार, खिड़कियों, राहों, चौराहों बाला।
भीतर – बाहिर जिसका
रिश्ता- नाता जिसका
व्यापार सभी जिसके
जटिलता से, कठिनता से
जुड़े हैं बाहिर के साथ ।
बाहिर ही को भीतर स्वीकार
आकांक्षा बाहिर की
मृग तृष्णा का आवरण ओढ़ कर
ऋण की राशि से, भूमि से, आँखें बंद
कर,
कर लेता है स्थापित ,
मेरा द्वार नहीं,
द्वार स्वयं मै ही हूँ,
खिड़की मेरी नहीं,
मै ही खिड़की स्वयं हूँ,
झरोका नहीं मेरा
मै ही झरोका हूँ,
चक्कर काटने इसी भाव – भ्रम मे
उल्टे हो सीधे,
सीधे हो उल्टे, पानी ढोते,
कुए के रहट की भांति,
सोचा करता भरा हुआ हूँ,
सदा खाली, खाली ही का प्रमाण!
कौन क्या भरा है,
समाधान और निर्णय इसका
दो के भ्रम की मौत
एक के मिलन का आह्वान
आकाश के रक्षक के साथ ही,
हो सकता है
हो सकती है फिर
मृत्यु जीभ की,
श्रवण, दृष्टि और वाक मृत्यु !
मृत्यु भय है।
मृत्यु भी भय है,
भीतर की हो अथवा बाहिर की
आँख की हो या जीभ की,
कर देती है निष्क्रिय, किंकर्तव्यविमूढ़,
छा जाती है मरू के बवंडरों सी,
चिंतन मे शून्य
शून्य मे चिंतन
सब कुछ भीतर उतर कर,
मान मृत्यु को, मृत्यु हार कर
दुविधा का एक अंतहीन जाल,
भीतर ही भीतर तनता जाता है,
प्रशन तर्क और उतर के भीतर का अंतराल,
नहीं टूटता, टूट जो जाए,
फांद कर अंतराल की दूरी,
जुड़ जाएँ निर्णय कर पाएँ,
पूछता कौन है, पूछने के क्षणों में,
देता है उत्तर कौन?
दुविधा, कुंठा और भ्रम
मर सकते है, मार सकते हैं ।
-o-
प्रश्नो के उत्तेजक क्षणों में
द्वार ,झरोके, खिड़कियाँ,
बंद कहा कर पाता है,
भले ही जाने अनजाने मृत्यु की ओर
बढ़ता जाता है,
अंदर- भीतर भरा हुआ है,
खाली मेरे पन से,
बाहिर सब कुछ मेरा है,
यही भीतर बना हुआ है
बाहिर भीतर बना हुआ है,
बाहिर का भय बना हुआ है,
अकाल छिन जाने का भय,
पहचान हो जाने का भय,
कहाँ फिर बन पाए बोध
कि
स्वयं ही पारदर्शी हो,
तू द्वार नही
तू खिड़की नही
तू झरोका नही
साक्षी है तू इन सबका
व्यूह टूटे
हार विजय में बदले और विजस विजय में ।
-o-
क्षण क्षण घेरे आवाज़े के
बवन्डर सन्देह आकांक्षाओ के
उबल पड़ते है
झांकों भीतर, अन्तर खन्गालो,
भीतर-बाहर मन्थन कर डालो
सोच के सारथी को लेकर साथ
स्वयं भरो निर्णय का कलश,
यह तेरा ‘मै’
यह तेरा ‘तू’
क्या है ? कौन है ?
है भी है यह ? है ?
भीतरी भीतर
जहां दीप है
सूरत, सुख, सुलक्षण
समाधिस्थ मुद्रा में
आँखें बन जाए द्वार भीतर,
जिनके
चारों ओर
सूक्षम
सुदृढ़ पर्दे लटक रहे हैं,
वह
स्वयं हटें, मिलने दें,
‘मैं ‘तू’ को, सत्कार करें प्रश्न-उत्तर का,
मर-अमर
जर-अजर
चेत-अचेत
सत्य-असत्य,
शिष्ट-
अशिष्ट
उत्तर
नहीं प्रश्न हो।
दर्शक
देखने में रत्त
श्रोता
सुनने में,
वक्ता
बोलने में,
ऊंची
मंज़िल और आकाश वाले,
कुछ
द्वार, झरोके,
खिड़कियाँ,
रख-सजा
कर
भीतर-बाहिर
ऊपर-नीचे,
भीतरा
के, भीतर वाले के अशब्द संदेश
पहुँचने
पहुंचाने का माध्यम बन
निचली
बस्ती वालों को दें आदेश
सन्मुख
आकर, लौट कर, फिर
लौट कर
पूछें, हम क्या हैं?
हमारा ‘मैं’ तुम्हारा ‘तू’
मेरा ‘तू’ तेरा ‘मैं’
क्या है
सब व्यूह सा
भीतर का
बाहिर का सब कुछ
कहाँ
क्यों, कैसे बुना है?
कभी कभी
भीतर की कोख से
बाहिर की देह से
एक स्वर का जन्म होता है
‘तू’ हमारा है,
हम सब ‘तू’ के हैं।
एकांत और मिलन में,
क्या
अन्तर पड़ता है?
मिलन में हम एक ही के हैं,
एकांत में अलग अलग एक के।
अनुभव के मनन की दृष्टि
अग्नि का सहस्त्र्मुखी
दीप जला कर
करवट बदलें, और पूछें,
दृष्टि क्यों अलग है
सृष्टि की?
सृष्टि क्यों अलग है दृष्टि की?
कितने अलग है ?
कहाँ अलग है ?
है भी या है एक छलावा और भुलावा?
इस का ‘मै’ वही कुछ है, जो
कुछ
वह दिखाई,
सुनाई, सुझाई देता है ?
अथवा वही कुछ दिखाई, सुनाई देता है
जैसा वह है?
दिखने को पानी और मेघ एक नहीं हैं
दोनों वही कुछ हैं, जो कुछ
नहीं दिखाई देते, न दे सकते हैं,
पानी में परछाई दिखती है,
बादल में नहीं!
मिट्टी का निकला सब कुछ खाया जाता है।
मिट्टी नहीं ।
दोष कहाँ है?
दृष्टि में?
दृश्य में याकि द्रष्टा में ?
कभी कभी सहसा अनुभव होता है,
दोष तथा गुण
सामान्तर चलते हुए
करते जाते हैं निर्माण,
इस के हैं,
इस के द्वारा हैं,
इस के समीप हैं,
यदि हैं तो इसी के भीतर हैं,
फिर यह हम से भिन्न क्यों हैं?
यह कौन है,
कहाँ कैसे है,
जो भिन्न है,
विलग है?
जो आकाश ऊपर,
ऊपरी मंज़िल पे बैठा
झरोके,
द्वारों, खिडकियों से
देता है संदेश, बनता है प्रमाण
साथी होने,
रहने का
निचली बस्ती वालों को
पलक-पलक
संदेश!
-o-
तेरा ‘तू’ भी,
मेरा ‘मैं’ भी
जाने अंतर है, जाना पहचाना
खड़े हैं छोटे बड़े मिट्टी के टीले से,
जिन में सुंदरता है बस इतनी
जितनी होती ?
पानी पर खिंची रेखा की, अथवा
लुढ़कते पत्ते की परछाई की !
इस का ‘मैं’ और तेरा ‘तू’ यदि
स्थापित कर लें एक तथ्य को,
मूल-स्रोत सुन्दरता का
तेज़, अग्नि और सत्ता ताप है तो
खुल जाये बंद ग्रंथि
‘मैं’ ‘तू’ की
सुंदरता है अग्नि,
तो फिर तेज़, प्रकाश, सत्ता, अग्नि को
धारणा, स्वप्न, कल्पना
धारें नही,
स्वीकारें नही,
पुकारें नही,
जब तक होता नही आभास, !
तेज़, सत्ता, ताप का सौन्दर्य
सत्य नही,
शाश्वत नही
वास्तविक नही
यथार्थ नही,
तब तक है पहचान नहीं तुल्य ही ।
नहीं की नियति,
नहीं का अवधान
नहीं ही का प्रमाण रहेगी,
आश्चर्य ! आश्चर्य बना रहेगा
श्रवण,
दृष्टि और वाक को !
-o-
अग्नि की सत्ता को आधार बनाए
खड़े तीनों भवन
दिखते है जुड़े हुए आपस में,
यू –
जैसे दिखते हैं,
पत्ता डाल से,
डाल तने से,
तना मूल से,
और धरती आकाश से !
आधार है इतना कि
सागर का हो आकाश से
आकाश का मेघ से,
मेघ का परछाई से
परन्तु एक कही नहीं !
कहीं नहीं एक
तीनों के घेरो-वृतों में
तीनों के भीतरी अंतरों में
अन्तर है बहुत बड़ा क्योंकि
एक भवन अणुओं का जो है,
मिल-घुलकर, लड़-भिड़
कर
अविराम घूमते
कुछ उठाते-बांधते
आकार एक भवन का
बढ़ता,
उठता जाता
साथ साथ ही पाल लेता
एक पशु को भीतर,
अनिष्ठ, अस्तित्वहीन
स्वप्नों को,
घिर जाता है भवन पशु द्वारा
व्यापारों में, व्यापारियों में
छूट जाता, टूट
जाता व्यापार,
जो मूल है वास्तविक है,
पीछे छूटते व्यापारों से,
टूट जाते हैं भवन के कोण।
जो अनाम हैं,
खाली भीतर से,
कहीं नहीं छत दीवारें जिस की,
भवन-भवन में होने से,
कहलाता,
सुनवाता है भवन स्वयं को
बाहिर के,
निचले वासियों द्वारा
उन की अनिश्चित क्रियाओं,
प्रतिक्रियाओं, प्रतिक्रियाओं द्वारा
एक काल तक निश्चित
हिलता,
भटकता, बिखरता,
लुप्त हो जाता है, और जाते जाते
खंडित करता जाता है
मध्यवर्ती भवन को।
तीनों में से फिर,
तीसरा एक भवन
छलावो,
बिडम्बनाओं नाटकों द्वारा
रोग ग्रस्त हो,
दोनों अधिकार में लाए गए भवनो को,
जो स्वामितव की दासता में बन्धे
घिसटते है,
टूटे लटके पायेदान की भांति,
पूछा करता प्रश्न
चुभोता रहता शूल,
कौन नगर है जहां बसे हो,
कौन व्यापरी है खरीदा है जिसने ?
कौन से व्यापारी में फंसा कर अब,
स्वामित्व जमाते हुए,
छ्त्तो में दरारें,
दीवारों में छेद
और फर्श पर कांटे,
क्या कुछ बिखरा दिया है,
जो कुछ बिखरता है तब, जब
तेज़ नही रह जाता अग्नि का गुण,
सीलन जल का गुण नही रहता,
वायु का धर्म बहना नही रह जाता,
और
मिट्टी और सहनशीलता दोनों
बह जाते हैं,
अस्तित्वहीन रह जाते है
दृष्टि में रहने वाला भवन,
उसके भीतर का
और उठाने वाला प्रश्न-शंकाएं
व्यस्त रहें अपने ही “मैं” में
युग-युगान्तरों तक तब
बनते-मिटते,
मिटते-बनते,
उल्झे रहते इन्ही क्रमों में
मुक्त हो, ऐसी
दशा, ऐसी दिशा,
संकेत कोई,
मिलता नही, मिल
सकता नही !
आकाश के रक्षक के आधार पर खड़ा
प्रकाश का बन्दी
मिलते और ढूंढने के समय,
मध्य का कारण गिराने के लिए,
हो यदि तैयार, उठ खड़ा हो
फिर, समय
के चक्र
श्वासों-वृत्तियो के परिवेश,
इस के ‘मैं’ के हाथो,
आ जाते हैं निकट कि जैसे
दृष्टि आँख ही में, आँख ही की होती है
समीप,
भीतर,
एक ही रूप, एक
ही अनुरूप !
-o-
सर्व-सर्वस्व को घुमाता समय,
लगता है घूमने स्वय
आगे-पीछे,
ऊपर-नीचे, आस-पास,
परन्तु
द्वारो का बन्द होना,
धूनि का रमना,
अग्नि का तपना,
सहना सब कुछ,
कहते,
देखते, सुनते हुए
अति कठिन है,
असम्भव ही है,
यह कठिनता, यह
जटिलता
एक से नही, है
तीनों से,
है विमुक्ति का मार्ग ! अमल मार्ग !
फिर यह तीनों
भीतर-बाहिर
लिपटे है एक दूसरे से यूं, कि
अंग-अंग, अंग
से अंग
एक दूसरे के जोड़ने के लिए,
जोड़ते समय
एक के नही,
तीनों के जुङते हैं,
एक नही,
तीनों तपते है,
एक नही तीनों बन्धते है,
आश्चर्य,
परिचित भी एक दूसरे के,
अपरिचित भी एक दूसरे के लिए !
-o-
मित्र एक दूसरे के,
किनारे और जल निधि की भांति,
शत्रु एक दूसरे के,
मरुस्थल और वृक्ष की भांति,
वरदान एक दूसरे के लिए,
वायु और मेघ की भांति,
सन्ताप एक दूसरे के लिए,
दृष्टि और दर्पण की भांति,
मोहक एक दूसरे के लिए,
वायु और सुगन्ध की भांति,
आतंक एक दूसरे के लिए
अग्नि और जल की भांति !
परछाइयां प्रतिबिम्बित होती है,
अन्तर-भीतर के भवनो के हर चेहरे पर,
दृष्टि के वृत में रहते,
भवन के कथाओ की, भवन के क्रियाओ की ।
परन्तु परछाइयां,
निरंतर क्रम प्रतिबिंबों – का,
आड़े-तिरछे बिंबों की रेखाओ का,
अस्तित्वहीन उपमाओ का,
अंकित कर देता है हर चेहरे पर
टूटी रेखाओ के अन्तहीन जाल,
लम्बा अन्तहीन क्रम,
भवन मध्य का
आतंकित हो भयातुर हो,
भीतर को सीमित हो,
संकुचित हो, देहहीन
सा हो जाता है
मिलन हो यदि,
भीतर और मध्य के भवन का,
दिखने वाला भी
श्वास शान्ति के कुछ भरता है,
परन्तु
द्वार, खिड़कियाँ, झरोके,
टकरा-टकरा कर,
जीने नहीं देते
मरने नहीं देते
स्वयं मर सकते हैं
संयम के स्थापन के शस्त्र के द्वारा।
-o-
भवनों का अंतिम स्वामी,
कोई तो आरंभ से अन्त तक,
नींव से ऊंचाई तक,
हर दिशा की अंतिम यात्रा तक
है,
बहुत समीप से बहुत दूर तक
दोनों छोरों को मिलाते
असंख्य ज्योतिपुंज्य
अगणित सूर्य
रम कर एक दूसरे में
एक महाकाश की सभी दिशाओं में,
धूनि रमा कर,
आसान जमा कर
हर क्षण की पूर्ण अवधि में,
हर सूर्य विराट का मनन,
चिंतन विराट का,
समा जाने ही का भाव,
रमा लेने हेतु,
युगों से,
युगों-युगांतरों से
समा-रमा पाने की आकांक्षा।
हो सके पूर्ण यदि
विलय, रमन
के और मनन चिंतन के मध्य,
शून्य का निर्माण संभव हो
शून्य का प्रावधान निश्चित हो,
शून्य का विधान साकार हो,
यदि हो सके तो।
सूक्ष्म रश्मि, उस के तेज की,
अति सूक्ष्म तन्तु
पहरा देती रात दिवस,
भीतर-बाहिर का
समाधिस्त भवनों में प्रकाशित दीपों का,
भीतरी
बहिरी,
और मध्य के भवनों सहित
बहत्तर सहस्त्र
फैलती- सिकुड़ती शिराओं का जो आधार है,
परिवारों के रक्षक स्वामी का
भीतरी- बाहरी गति
के शवासों का क्रम
करता है मात्र आभास,
अहसास सीम से असीम का
अहसास असीम का सीम से,
अन्तर विराट और रश्मि के मध्य का
भवनों का आवाहन।
-o-
सहज संभाली
वायु, तेज, जल पर आधारित धरती,
धरती के गर्भ मे अंकुरित
क्षणों का जन्म
जन्म विलय, फिर
जन्म
यही जल का क्रम
जन्म- विलय का क्रम क्षण- क्षण
आने जाने के रास्ते का मूल
आवागमन
विश्वासों – अविश्वासों की भांति
आवागमन
श्वासों का जन्म और मृत्यु
आने जाने का अनन्त अंतहीन क्रम
युगो युगो के चक्र जिसे घुमाते,
सूर्य से सागर तक
सागर से आकाश तक
आकाश से बूंदों तक
नदी से अथाह तक
जिस का न यह किनारा, न वह किनारा।
थाह कहां है?
नाप कहां है?
नीचे कहां है?
उपर कहां है?
मध्य कहां है?
दृष्टि में कहां है?
दृष्टि से बाहिर कहां है?
वाक के भीतर कहां है?
श्रवण के बाहिर कहां, भीतर कहां है?
तर्क की अवधि,
तारतम्य की मृत्यु
तर्क की मृत्यु
संबंध की अवधि
हाँ अवधि,
उसकी याचना
अवधि
सूर्य का ताप
धरती की पिपासा की शांति,
सूर्य का ताप,
कण की यात्रा का सर्वस्व,
सभी दिशाए, सभी
कोण
सृष्टि बिन्दु की, जल की, सागर की,
धरती और अनुरक्ति की,
धरती के गर्भ में छिपे कारण
जल,
वायु, आकाश और घिराव,
रंगो के,
दीपो के,
भीतरी – बाहिरी स्वरो के,
रुदन–हास्य,
स्वार्थ कल्पना,
क्रोध,
अग्नि और जल संकोच
काम,
लज्जा और अहंकार, करुणा
लोभ,
समानता,
बहना, सूखना, गिरना- टूटना,
जुड़ना,
जुडने की यंत्रना
अवधि का जन्म
अवधि की मृत्यु,
टुकड़ा- टुकड़ा
कतरन कतरन
आँख आँख और दृष्य दृष्य है,
जीभ जीभ और वाक वाक है,
तेरा “तू” की सृष्टि में से
जन्मते पंक्ति बद्ध
रश्मियों से रश्मियों पर हो सवार,
रंग-ढंग बढ़ते जाते, बढ़ते ही जाते,
यह सब अनुभव होता है,
तेरे तू की स्वणन-सृष्टि का शृंगार
विराट का स्वपन होता क्षणिक साकार
पुष्प मे गंध, बिखर कर हो प्राप्त
जल की लहर भीग कर मिले,
अग्नि का ताप मिले रूप धार कर
गंध, लहर, ताप,
भीतर,
बाहिर और मध्य।
उपर नीचे,
कितने आकार,
किस रूप के साक्षी
हो कर,
कहा छिपे है, कहा
मूल और कारण है,
अनुमान नहीं,
कुच्छ ज्ञात नहीं
अज्ञात है सब,
देखने सुनने और बोलने वाला,
अपने तीनों रूपो को
यू कर लेता है परिवर्तित ,
जैसे सूर्य मेघ मे बदले,
या फिर
धरती और आकाश दोनों ही
अनेकानेक रूप करते जाएँ धारण और परिवर्तित
बनें – मिटें या मध्य भ्रमित।
-o-
चित्र निर्माण के लिए,
चित्रकार एक
रंगो के सागर ले कर,
रूप,
स्वभाव गुण-अंग मिलाकर
रंगता है,
घढ़ता है,
निर्मित कुछ होता जाए, पर
साथ साथ ही,
आ रही ऋतु;
जाते मौसम,
हवा, झोंके, शरद, ताप, हेमंत,
एकत्रित कर,
देकर जन्म सभी को,
उसी को सौंप उस का भार,
हो जाते है लुप्त,
पुन: आने–लाने को।
चले आने का,
चले जाने का यह क्रम
एक गोलाकार और उस मे आया हुआ “मै”
देख लेता है,
सुन और अनुभव कर लेता है
की उस का “मै” है
उसी वृत में,
जिस के घेरे – परिवेश
एक अक्ष्य से
एक बिन्दु से
फ़ैल कर अपना आकार बढ़ाते,
बदलते हुए अपने रूप रंग
उन घेरों को
छू लेते है उन सीमाओ को
जिनके कोणो,
छोरों, बिन्दुओ से आगे,
और बहुत आगे,
और बहुत दूर
सीमाएं और हैं, घेरे और हैं, परिवेश और हैं,
रंग रूप और
ऋतुएं भी और
चित्रा भी और
चित्रो के गुण- धर्म और,
गंध, भाव, स्वर, आगे
ही आगे
परंतु
आगे का वृतांत
आगे की यात्रा की अज्ञात कथा
सीमाओं कोणों का मूल
वही है, इक
बिन्दु पर, इक धुर्रे पर,
टिका हुआ है,
छिपा हुआ है,
यही कुछ तो है!
-o-
वह एक बिन्दु
जिस का आकार शून्य,
परंतु सर्वस्व वही,
शरीर नहीं जिसका
शरीर सभी परंतु उस के है,
आँख नहीं जिस की,
उसी मे दृष्टि, दृष्य, दृष्टा सभी,
श्रवण नहीं उस के हैं,
परंतु “तू” और “मै” के समस्त
स्वर, नाद, ताल, लय, संगति में
लगे हुए हैं, लगे
हुए हैं।
जिबहा नहीं है जिस की
परंतु उदय-अस्त, हर क्षण
बोल रहा है,
सुन रहा है,
सुना रहा है,
वह एक बिन्दु, वह एक धुर्रा,
आगे बहुत सूर्य के ताप से,
किरणों से ऊंचा,
सूर्य जिस का अंश मात्र
सूर्य की गरिमा का रक्षक
सूर्य की गरिमा का चालक
सूर्य के मण्डल का स्वामी
सूर्य की गरिमा का भीतर
सूर्य की गरिमा का बाहिर
वह एक बिन्दु!
-o-
वह एक बिन्दु
राह राई के कई अंत जिस में,
आकाश के घेरों के साथ
आकाश ही में समाया हुआ परंतु
रक्षक आकाश का जो
चलता है आकाश के साथ
और चलता साथ आकाश को!
-o-
वह एक बिन्दु
मिट्टी के भीतर का अंकुर
मिट्टी के बाहिर का कारक
जिस के कारण बनती मिट्टी
जिस के कारण मिट्टी है मिट्टी
भीतर-बाहिर लिप्त इसी में
फिर भी अलग मिट्टी से।
-o-
वह एक बिन्दु
जल के दर्पण का दर्पण
जल के होने का कारण
जल रूपी दर्पण का जीवन
जल के बहने का माध्यम
वह एक बिन्दु।
-o-
वह एक बिन्दु हो कर सभी कुछ,
और कुछ भी नहीं,
वही बिन्दु है तेरे ‘तू’ का साक्षी,
और उस विराट का, जिस से,
अग्नि,
वायु, जल, ताप, रक्षित है।
उस के स्वप्न की कल्पित सृष्टि के,
नाटक देखने,
होने के लिए।
“मैं” है इस का भवनों वाला,
आकाश- मंज़िलों वाला,
द्वार खिड़कियों का स्वामी,
जिस के अनुशासन में हैं
सभी व्यापार, कार्य, धंधे इसके,
कार्य- व्यापार मिल कर सभी,
‘मैं’ की मान्यता के स्वामित्व में,
तेज त्याग कर अग्नि का,
पहचान भुला कर जल की,
गुण गिरवी रख वायु के,
ऋण भुला कर मिट्टी के
घेरे,
आकार, कोण और परिवेश भुला
आकाश के,
समुद्र के,
निर्माण से विनाश तक,
एक स्वर- एक आलाप, आलापा करता,
जो कहना,
करना, सुनना चाहूँ,
वही कह, कर, सुन सकूँ।
निचली बस्ती के लोगों का भी
यही हो क्रम-विधान।
भीतर क्या है,
बाहिर क्या है,
यह विवेक इक शूल
चुभ जाता यदि चिंतन करे,
एक रंक इस का स्नेही,
यही ‘मैं’ रंक,
चलता जाता, बिन
देखे, बिन सोचे
और बढ़ाता जाता दूरी,
साक्षी से,
साक्षी होने से!
-o-
दिखने वाला इस का भवन,
दूसरा इस के भीतर-,
तीसरा बस कारण का कारण,
भीतरी भवनों के अति भीतर,
वह बिन्दु
जो साक्षी है उस विराट के
छोटे बड़े- होने, नहीं होने का,
ध्यान मगन बैठा है, समाधिस्थ,
भीतर- बाहिर,
जो कुछ भी दिखता है, सुना जा रहा,
यदि मेरे कारण और मेरे हेतु है
तो
इस का ‘मैं’ इतना विलग क्यूँ?
कि,
स्वर का वाहन
चलता-कहता जाता हूँ, पहुंचे नहीं,
देखे नहीं, जो
भी दिखता है
इस की दृष्टि से यह सृष्टि
मेरी सृष्टि से इस की दृष्टि,
अन्य क्यों है, भिन्न क्यों है?
मैं ही कारण हों इस के ‘मैं’ का,
भवन मेरे कारण हैं इस के,
बस्तियाँ और बस्ती वाले,
मुझ पर आश्रित-आधारित हैं!
-o-
भटकन इस की
अंधेरे इस के,
अधिक उल्लास और अधिक उदासी,
बहिरी सुख-दुख,
पहचान की अंधी
यात्रा,
कारण है इस के विनाश की,
कारण है द्वेष के, भय के,
मिटने का कारण
सुरति के दीप को ले
कर,
भीतर ही भीतर जगते
प्रकाश को,
अपनाने के स्थान पर,
सुरति का विस्मरण
और पहचान अंधेरी राहों से,
अनर्थ- व्यर्थ, भीष्ठ सभी कुछ
और साक्षी को भूल भिला कर,
और विराट के विमुख।
-o-
इस के ‘मैं’ का टूटे स्वप्न,
टूटे यदि इस का ‘मैं तो
स्वीकारे यदि ‘मैं’ के ‘मैं’ को
इस का ‘मैं’ और तेरा ‘तू’
एक के दो, यदि,
दो का एक
फिर
जो कुछ भी दिखाई देता है
सुनाई देता है,
असंख्य आकाश
अगणित सूर्य
प्रकाश के सागर अथाह
समस्त घेरे समय के
वायु के समस्त झूले हिलोरे,
मिट्टी के सारे कण
एक ही संकेत पर,
देख रहे, सुन
रहे, बोल रहे,
चमक रहे
यह खुल जाये यदि हो जाये पहचान,
इस का ‘मैं’ और तेरा ‘तू’
यह सब भूला सा इक स्वप्न मात्र रहे,
और यही रह जाये शेष
इस का ‘मैं’ तो कभी नहीं था,
तेरा ‘तू’ सदा - सदैव है!
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इस का ‘मैं’ तो भ्रम मात्र,
तेरा ‘तू’ आदि अंत है,
तेरा ‘तू’ आकाश- धरती है,
तेरा ‘तू’ स्वामी है उस का!
जिस के भवन,
द्वार, मंज़िलें।
ताप – गरिमा प्रकाश की रश्मि,
जो मानती है तेरे मनन को,
जो देखती है तेरे देखने को।
सुनती है तेरे सुनने को,
यह श्रवण,
देखना, सुनना,
आकाश,
धरती, वायु, जल, तेज, के,
चारों ओर – हर दिशा में,
तेरा मनन- चिंतन तेरा व्याप्त है1
तेरे मनन से होकर विमुख
अपने मनन को मन कहता यह,
द्वार,
खिड़कियाँ, झरोके,
विलग हर क्षण कर रहे,
धागे जुडने नहीं देता,
तेरे ‘तू’ से मेरे ‘मैं’ के,
मन ही तो है एक छलावा,
‘मैं’ को मान कर,
धागे तोड़े,
जोड़े नहीं,
जुड़े नहीं!
सारथी