सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 27 March 2019

सागर की कहानी (64)

सागर की कहानी (64) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
आज जब हर शब्द अपने दिव्य मूल अर्थों से दूर होता जा रहा है। जब हर शब्द अपनी ओजस्विता, अपना वैभव खोता जा रहा है। ऐसे में एक सजग रचनाकार अपनी लेखनी द्वारा शब्दों को उन की खोई गरिमा प्रदान करने का वृहद कार्य करता है। वैसे आज जितना दुरुपयोग ‘धर्म’ शब्द का हुआ है उतना शायद ही किसी पावन, पुनीत शब्द का हुआ होगा। इसी शब्द के पुनरुत्थान हेतु सारथी जी लिखते हैं – ‘मेरे लिए धर्म का अर्थ सबका होना, सबके लिए जीना परंतु अपने लिए किसी को भी जीने के लिए बाध्य ना करना है’ ।
धर्म का संबंध किसी वर्ग विशेष, जाति विशेष, संप्रदाय अथवा वेशभूषा से कदापि नहीं है। धर्म का संबंध तो उन लक्षणों से है जिन्हें धारण किया जाना है। वास्तव में धर्म हमें धारण करता है तभी कहा गया है धारयति इति धर्म। जो जोड़े, अलगाव को दूर करे, सभी को एक सूत्र में बांधे वही धर्म है। इसी संबंध में सारथी जी अक्सर यह श्लोक सुनाया करते
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचम इंद्रियनिग्रह।
धीर विद्या सत्यम अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥
धृति(धैर्य), क्षमा (अपकार करने वाले का भी उपकार करना), दम (हमेशा विवेकी हो संयम से सत्कर्म में लगे रहना), अस्तेयं (चोरी ना करना), शौचं (भीतरी, बाहरी पावनता) इंद्रियनिग्रह (इंद्रियों का अंतर्मुखी हो जाना), धीर (धीरता), विद्या (यथार्थ का ज्ञान होना), सत्यं ( सत्य का उद्घाटन/सदैव सत्य आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़ हमेशा शांत रहना)। धृति, क्षमा, दम एवं अस्तेयं का अभ्यास करने वाले साधक की इंद्रियां अंतर्मुखी होने लगती है ऐसा धीर, वीर पुरुष ही यथार्थ ज्ञान का अधिकारी होता है तथा उसे ही सत्य की प्राप्ति होती है और अंततः ऐसा साधक कभी न समाप्त होने वाली शांति में स्थित हो जाता है।
धर्म मेरा या तुम्हारा नहीं होता, धर्म, धर्म होता है तथा संपूर्ण मानव जाति का कल्याण ही इसका ध्येय है। इस तथ्य की विवेचना करते हुए सारथी जी लिखते हैं -‘यदि तुम हर क्षण प्रभु को स्मरण कर यह प्रार्थना करो कि हम हे प्रभु मुझे एक ही वरदान दो कि क्या सत्य है, यह देख पाएँ। क्या माया है, क्या अविद्या है, क्या अस्पष्ट है, क्या रहस्य है और भेद है यह भी देख पाएँ। यह सही है कि शरीर अलग अलग होने के साथ दृष्टि और अनुभूति अलग अलग होने के कारण यह लगता है कि कोई गुरु पंथ को और गुरु मत को स्वीकार करते हैं। दूसरे यशु के अनुसरणकर्ता हैं और एक भारी वर्ग हजरत मोहम्मद साहब को, उनके संदेश को ही प्राथमिकता देता है। और कोई भगवान बुद्ध की ही बात में विश्वास करता है। यही तलाश है कि यह सभी अलग-अलग मार्गों पर चलने वाले क्या अंत में अलग-अलग स्थानों और मंजिलों को प्राप्त करते हैं अथवा यह सभी एक ही प्रकाश को उपलब्ध होते हैं। इसी तलाश के द्वारा तुम्हारे भौतिक, लौकिक और पदर्थिक मतभेदों का समाधान हो सकता है। परंतु खोज करते हुए तुम्हें एक मंत्र और स्मरण रखना है कि तुम धर्म की खोज कर रहे हो, अपने धर्म की खोज नहीं कर रहे हो। इससे यह समझ लो कि यदि धर्म तुम्हारा अपना है तो वह तुम्हें तो उपलब्ध होगा ही परंतु संभव है वह सर्व को तुम्हारे लिए अपने साथ ना ला सके और उपलब्धि के पश्चात जिन रहस्यों के उद्घाटन की संभावना है और जिस प्रकाश के घटित होने की आकांक्षा है, वह कभी न हो। दूसरी ओर यदि तुम मेरे तेरे को तज कर मात्र धर्म की खोज करते हो तो तुम किसी भी प्राणी को एक और छोड़ कर, किसी भी जड़ अथवा चेतन को एक और हटाकर, तुम कहीं भी पहुंच सकते हो और शीघ्र पहुंच सकते हो। एक और बात है यदि तुम्हारे दृश्य में अहिंसा और दया का भरपूर स्रोत है तो संसार में कहे जाने वाले, माने जाने वाले किसी विशेष धर्म का नाम लो कि अब अमुक धर्म से जुड़ गए हो और मुझे यह भी बताओ कि किस धर्म से विलग हो गए हो। और यदि तुमने प्रभु से मिलने के लिए विशेष मार्ग अपना लिया है, प्रेम का मार्ग अपना लिया है तो तुम पर मुहर किस धर्म की लगती है, और कौन सा धर्म तुम्हें अस्वीकार करता है।
.......क्रमशः ...............कपिल अनिरुद्ध

सागर की कहानी (63)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास। आप के सुझाबों का इंतज़ार रहेगा।
सागर की कहानी (63)
वे अक्सर कहा करते - मुँह से बात करना और चुप रहना दोनों का अपना-अपना महत्व है। परन्तु यदि कोई व्यक्ति चिल्ला कर बातें कर रहा हो, परन्तु क्रोध में न हो, तो मैं उसे मौनधारी सन्त कहूँगा। यदि उस के चारों ओर भोग की बस्तुयें पड़ी हैं और वह लोभ में नही हैं तो वह मौन है, चुप है। यदि वह अभिनय कर रहा है, भाव भंगिमा में वह अभिमानी दिखाई दे रहा है परन्तु अभिमान और अहंकार उसे छू भी नहीं सकें हैं तो वह संसार का सब से बड़ा मौन साधक होगा। फिर कहते - मौन एक खालीपन की हालत है। एक नहीं की, एक शून्य की स्थिति है। जिस में सब तत्वों, पदार्थों और दिशाओं का बोध तो है परन्तु रुचि और सम्बन्ध शून्य हैं। दूसरे शब्दों में देखते हुए न देखना मौन है। सुनते हुए नहीं सुनना चुप है।
श्री सारथी जी की आकांक्षा सदेव यही होती कि जिज्ञासु एवं पिपासु साधक उन के द्वारा अर्जित अनुभव एवं अनुभूतियों को अपना कर शांत हो जाये, मौन हो जाये। वे कहते - मौन साधना के द्वारा नहीं वरन विश्लेषण और अनुसंधान के द्वारा पकड़ में आयेगा। और बताते विश्लेषण यूँ करना होगा कि क्या कुछ है और किस की आवश्यकता है। सब कुछ है अथवा कुछ भी नहीं है। मुझ से क्या-क्या सम्बन्धित है और मैं किस से सम्बन्धित हूँ। श्रवण, दृष्टि, वाक, स्पर्षादि पर मेरे मन का नियन्त्रण है अथवा मेरी चेतना का। क्या मुझे अपनी साम्थर्य तथा क्षमता का आभास है? मैं जो कहता, सुनता ,बोलता और स्पर्श करता हूँ उस में भाव लौकिक हैं अथवा अलौकिक। सीम हैं अथवा असीम, नित्य हैं अथवा अनित्य। और जो कुछ बोल रहा हूँ उस में आशा है अथवा निराशा, राग है अथवा विराग?
यह सब क्या है? ज्यों-ज्यों इन के समाधान होते जायेंगे तुम मौन होते जाओगे। तब तुम बहुत बातें करोगे परन्तु तुम्हें हैरानगी होगी कि तुम चुप क्यों हो? कुछ बोलते क्यों नहीं?
एक दिन उन के पास पहुँचता हूँ तो दायीं ओर के कमरे के बाहर सलीके से रखे बूट और चप्पलों के जोड़ों को देख कर समझने में देर नहीं लगती कि कुछ लोग सारथी जी से मिलने आये हुये हैं।
द्वार के समीप पहुँचता हूँ तो श्री सारथी जी के कुछ वचन कानों में पड़ते हैं और साथ ही उन के खाँसने की आवाज़ मुझे कुछ आहत भी कर देती है। धीमे-धीमे कदमों से भीतर प्रवेश कर उन के आगे झुक जाता हूँ। उन की लम्बी उंगलियां मेरे बालों और गर्दन के ऊपर घूम जाती हैं। तेज़ बुखार से तपती उंगलियां मुझे और सतर्क कर देती हैं पर उन के वचनों का प्रवाह रोक कर हाल पूछने की हिमाकत मैं नहीं कर सकता। बस उन की तरफ प्रश्नसूचक नज़रों से देखता हूँ। वो मुस्कुरा देते हैं। मानो कह रहे हों सब कुछ ठीक है, चिन्ता की आवश्यकता नहीं। उन के वचनों का प्रवाह मुझे शांत कर देता है। मानसिक हलचल समाप्त हो जाती है। वो कह रहे हैं -”तुम यदि योगी बनना चाहते हो। साधना करना और प्रभु को प्राप्त करना चाहते हो, तो मेरी बात मानो। तुम कलाकार बनो। और कला को उसकी चरम सीमा तक पहुंचाओ। मैंने असंख्य लोग देखें है। कला के अनन्य भक्त परन्तु जब कला में चमत्कार पैदा होना आरंभ हेाता है, तो वे चमत्कार ही को कला की चरम सीमा मान लेते हैं। परन्तु कला की चरम सीमा तो विराट को, पालक को, गोपाल को गोविंद को और गोवर्धन को निकट से देखने का सरल उपाय है। कला के द्वारा तो कलाकार प्रभु और उसकी माया के बड़े से बड़े रहस्य को उद्घाटित कर सकता है। परन्तु करता नहीं। बहुत कम लोग करते है। तभी यह सब असम्भव दिखाई देता है।“
खाँसी पुणः अपना प्रभाव दिखाती है। पर उन के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई गिला नहीं। बस एक रुहानी मुस्कान है। जब सब लोग उठ के चले जाते हैं श्री सारथी जी मेरे सिर पर हाथ फेरते हैं। मैं कहता हूँ गुरुदेव आप को तो तेज़ बुखार है। सितार की गूँज सी हसी का ठहाका गूँज जाता है, कहते हैं- भले मानस, बीमार मैं नहीं, शरीर है। फिर अपनी मुस्कान का तीर मुझे मारते हुए कहते हैं- शरीर तो इक दिन चला जायेगा, मैं नहीं जांऊगा। शरीर इक दिन मर जायेगा, मैं नहीं मरुंगा। मैं मर ही नहीं सकता। मुझे रह रह कर सारथी जी की ग़ज़ल का मकता याद आ रहा है।
सारथी अब ज़िस्म की कोई ज़रूरत हो न हो।
आस्माँ की फ़िक्र थी अब आस्माँ हो जाऊंगा ।।
........क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध

Monday, 18 March 2019

सागर की कहानी (62)

सागर की कहानी (62) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ। 
सागर की खामोशी, मौन एवं निस्तब्धता का सहज अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। सागर के इस मौन के साक्षी हैं सूर्यदेव एवं अनन्त आकाश। परन्तु सागर के इस मौन, इस गाम्भीर्य को तोड़ने का साहस भला कौन रखता है। कितनी ही चंचल नदियां, इतराते-बलखाते नदी एवं नाले इस के अस्तित्व में समा चुके हैं। परन्तु फिर भी यह सब मिल कर भी जलनिधी की निश्चलता को भंग नहीं कर पाये हैं।
मैं अपने अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ कि श्री सारथी जी जब लिखते हैं तो मात्र एक ही बार, बोलते हैं तो मात्र एक ही बार। यह उन के मानसिक मौन का वृहद प्रभाव था। चर्म दृष्टि अथवा वाह्य दृष्टि से देखने पर लगता कि वे बहुत व्यस्त है। हर चीज़, हर कार्य में रुचि ले रहे है। परन्तु कई बार बहुत ही निराश होना पड़ता कि अत्यन्त महत्व की बात भी उन के लिए रुचिकर नहीं। शरीर अस्वस्थ होता तो मृत्यु के किनारे चले जाते परन्तु उस अवस्था में भी अव्यक्त को व्यक्त करते चले जाते। वे एक ऐसे मौन साधक थे जो अपनी वाणी, अपनी लेखनी एवं अपनी तूलिका द्वारा सूक्ष्म को स्थूल एवं अज्ञात को ज्ञात करते चले जाते। कई बार बहुत निराश होना पड़ता कि अत्यन्त महत्व की बात भी उन के लिए रुचिकर नहीं। कई बार जब कोई अपनी बहादुरी के किस्से उन्हें सुना रहा होता तो लगता वे इन किस्सों में पूरी रुचि, पूरा आनन्द ले रहे हैं। परन्तु झट ही यह रहस्य खुल जाता कि वे मात्र रुचि लेते हुए दिखाई दे रहे हैं। कभी जब सृजन को जी चाहता तो किसी भी कलात्मक चित्र को सफेद रंग के द्वारा प्रभावशून्य बना देते और फिर उन की तूलिका यूँ चलने लगती मानो सफेद कनवास पर तस्बीर पहले से ही बन चुकी है और सारथी जी मात्र उस पर अपनी तूलिका घुमा रहे हैं। शून्य में से आकार उभरता और कुछ नहीं में से सब कुछ प्रकट होता चला जाता। स्मरण होने लगती बाईबल की उक्ति- God created everything out of nothing. एक अदभुत कलाकृति के उभर आने से मन हर्षित होने लगता परन्तु एक कलाकृति के नष्ट हो जाने का दुख भी कम न होता। लगता सारथी जी ने अपनी बेपरबाही के कारण एक बहुमूल्य कृति को गवा दिया। परन्तु उनके लिए तो यह सब खेल होता। खेल को न समझने वाले के लिए बनना-बिगड़ना बड़े महत्व का है। तभी लोग बनने पर खुशी प्रकट करते हैं और बिगडने का मातम मनाते हैं। परन्तु रचनाकार लीला धारी की तरह निरपेक्ष भाव से तमाशा करता जाता है, तमाशा देखता जाता है। रणखेत्तर उपन्यास में सारथी जी इसी भाव को प्रकट करते हैं। पढ़ कर लगता है वे स्वयं को नकार रहे हैं। स्वयं को निरर्थक घोषित कर रहे हैं। परन्तु गहनता से जुड़ने पर समझ आता कि वे सृजनात्मक्ता के मूल सिद्धांत का खुलासा कर रहे हैं। वे लिखते हैं- मैं तो मूर्तियां बनाते हुए महसूस करता हूँ कि खेल रहा हूँ। तमाशा करते हुए तमाशे के साथ मिल कर तमाशा हो रहा हूँ। मिट्टी से मिल कर मिट्टी हो रहा हूँ। हाथों, पैरों और आँखों से मिल कर हाथ, पैर और आँखें हो रहा हूँ। मैं सब कुछ हो रहा हूँ। मैं सब कुछ कर रहा हूँ और कुछ भी नहीं कर रहा। यह सब कुछ हो रहा है। मैं भी साथ साथ हो रहा हूँ। मिट्टी हो रहा हूँ। पानी से मिल कर गूथा जा रहा हूँ। फिर मैं नैन नक्श बन रहा हूँ। फिर हवा में रह कर सूख रहा हूँ। फिर आग में पक रहा हूँ। फिर खूसूरत रंग हो रहा हूँ। फिर टूटना शुरू हो गया हूँ। फिर मिट्टी हो गया हूँ। यह है मेरा सफर। सारी यात्रा। सारा चक्कर। मैं मिट्टी में हूँ। मिट्टी मुझ में है। रंग बदल कर फिर मैं फिर मिट्टी, फिर मैं फिर मिट्टी। फिर मैं फिर मिट्टी।

Friday, 15 March 2019

सागर की कहानी (61)

सागर की कहानी (61) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
एक बात जो दीक्षित करते हुए सारथी जी बताया करते वह है लेना रह जाये परन्तु देना शेष न रहे। समझाते हुए वे कहते – लेन - देन के संस्कारों के कारण ही तो हमें यह जन्म मिला है इसिलिये यदि जीते जी मुक्ति के आनन्द का अनुभव करना चाहते हो तो देते चले जाओ। इसी संदर्भ में वे सन्त कबीर का यह दोहा सुनाया करते।
देह धरे का गुण यही देय देय बस देय।
देह जब यह जाएगी कोई न कहेगा देय।
सागर ने मात्र देना सीखा है। मेघों को जल, धरा को वर्षा, नदियों का नीर सागर ही तो देता है।
श्री सारथी जी क्षण-क्षण न केवल नेई चेतना का दान जिज्ञासुओं को देते बल्कि उन का प्रत्येक क्षण दूसरों को देने की प्रेरणा भी देता। उन की ग़ज़ल का यह शेअर देने के भाव की ही पुष्टि करता है।
सभी के आसुओं को पी के लोगो।
मैं क़तरे से समन्दर हो रहा था।
वे कहा करते-सन्त, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक जहां यह सब खड़े हैं, जिस घर में, जिस स्थान पर, जिस मकान में खड़े हैं वह मकान अथवा सामान गली से जुड़ा है, गली बाज़ार से जुड़ी है। बाज़ार शहर से जुड़ा है। शहर पूरे देश से जुड़ा है। राष्ट्र् विश्व से और विश्व पृथ्वि से जुड़ा है। पृथ्वि ब्रह्माण्ड से जुड़ी है तो गौण अथवा मुखर रूप से सभी लोग ब्रह्माण्ड से जुड़े हैं। स्वयं को विशालता, समग्रता देते हुए, विशाल स्थापित करते हुए हर मानव यदि अपनी खोज करे तो यह विश्व एक पुण्यधाम, एक शांतिधाम और प्रभु के धाम जैसा हो जायेगा।
श्री सारथी जी कहा करते- साधना कहा जाता है निज के लिए हैं परन्तु इस का प्रभाव वातावरण पर, परिस्थितयों तथा आम लोगों पर बहुत होता है इसलिये साधना स्वान्त सुखाय न रह कर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो जाती है। यह पूछे जाने पर कि दीक्षा का वास्तविक अधिकारी कौन है, वे कहते - पूज्यपाद रामानंद जी के अनुसार दीक्षा तो कोई भी ले सकता है परन्तु जो गृहस्थ में न हो वह अधिक श्रद्धा एवं निष्ठा से गुरु, समाज और राष्ट्र की सेवा कर सकता है।
श्री सारथी जी एक साहित्यकार एवं कलाविद् होने के साथ-साथ अपने सामाजिक सरोंकारों को भी सर्वोपरि समझते थे। सामाजिक बिडम्बनाओं के प्रति संवेदनशील सारथी जी दूसरों को भी सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग हो कर कार्य करने की प्रेरणा देते। वे कहा करते - समाज अनुदान पर आधारित है। समाज को सदैव हर व्यक्ति से अनुदान चाहिए तभी इस का मूल ढ़ाचा खड़ा रह सकता है। उन के शब्दों को चाहे वह किसी भी रुप में लिखे गए हों अर्थ यही निकलता है कि समाज से माँगो नहीं समाज को देते चले जाओ। अब एक आदमी साधक बन कर समाज को जो कुछ दे सकता है वह बहुत बड़ा वैज्ञानिक और कलाकार बन कर कदापि नहीं दे सकता। हर व्यक्ति जो कि शांतिमय, सुखमय, पीड़ारहित, अभावरहित समाज में रहने का इच्छुक हो वह वैज्ञानिक बाद में बने, इतिहासकार बाद में बने, खगोलशास्त्री, भूगोलविशेषज्ञ बाद में बने पहले वह समर्पण के लिए साधना करे और यह जान जाये कि समर्पण का अर्थ जीवित ही जगत और जगत के कर्ता के लिए मर जाना है अथवा स्वयं को मृत घोषित कर देना है। यह संभव कभी नहीं हो सकता कि आदमी स्वयं भी जीवित रहे और समाज के मूल्यों को भी जीवित रख सके।
...... क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 13 March 2019

सागर की कहानी (60)

सागर की कहानी (60) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
अपनी साधना यात्रा का विवरण प्रस्तुत करते हुए सारथी जी आगे लिखते हैं - एक बार मुझे साहित्यिक पुरस्कार मिला तो वे (परमपूज्य रमानन्द जी) तनिक भी दुखी नहीं हुए। कहते चले गए –राख़ के साथ राख़ और पत्थरों के साथ पत्थर जोड़ने का ढंग तुम्हें आ गया है, परंतु ध्यान नहीं आया। इतनी मेहनत यदि ध्यान में करते तो असंख्य पुरस्कार तुम्हारे आगे पीछे चक्र काटते। उनके कथन पर मुझे पश्चाताप भी हुआ। इसका कारण था उनका आना और कुछ देर रहकर जाने का कार्यक्रम। उन्हें मात्र दो ढाई महीने ही रहना था। पहले जब वे आये थे तो मैं पश्चाताप में झुलसा था और निश्चय किया था कि अब एक पल भी व्यर्थ नहीं गवाऊंगा। अब के आये हुए उन्हें एक सप्ताह तो हो ही गया था और मैं उन्हें अपनी बहादुरी और सफलता के कारनामे सुना रहा था। टीचर सभी कुछ नहीं सुनते थे परंतु लगता था कि वे ध्यान मग्न, दत्त चित्त हो कर सुन रहे हैं । मुझे खेद हुआ कि इस तुच्छ उपलब्धि का विवरण उन्हें क्यों सुनाया और उन्हें दुःखी किया।
मुझे तत्काल यह निश्चय करना था कि अब पूरा ही ध्यान यदि न दिया गया तो फिर मुझे प्रायश्चित करना ही होगा। उधर डोगरी भाषा के एक वरिष्ठ साहित्यकार मुझे निरंतर पूछते कि आपने लिखा क्या। चित्रकला के टीचर भी प्रश्न करते - क्या बनाया है? यह दोनों बातें मैं टीचर से कहना नहीं चाहता था। मुझे लगता था इस बात का हल मेरे ही पास कहीं है और मुझे शीघ्र मिलने वाला है। मुझे एक विधि सूझी जो थी तो संदेहजनक परन्तु शायद उसके अतिरिक्त चारा कोई नहीं था। वह यह कि ऐसा अभ्यास किया जाये कि सभी कुछ करते हुए चिंतन की स्थिति को पैदा किया जाये। टीचर लगातार कह रहे थे कि चिंतन- मनन का स्थान शून्य का स्थान है । जब तक दिल दिमाग खाली नहीं होते कुछ भी प्राप्त करना संभव नहीं है। जब तक होते हुए भी कुछ नहीं हो, करते हुए भी कुछ न किया जाये, तब तक तो एक शुरुआत भी नहीं समझनी चाहिए। निरंतर अभ्यास करने लगा कि ऐसी स्थित बन जाये कि मैं कार्य भी करता जाऊं और ध्यान में भी रहूँ। शुरू शुरू में तो यह एक असंभव बात जान पड़ी। परंतु शीघ्र ही यह होने लगा कि स्वयं प्रभु ही कार्य लगे करने का आदेश देने लगे हैं । मैंने यह बात टीचर को बताई तो वे हंसे, तुम्हारी अपनी धारणा है। यह तुम्हें काफी दृढ़ कर सकती है। तुम्हारी यह धारणा तुम्हें कई उत्तरों के रूप में प्राप्त हो सकती है।
सारथी जी के शिष्य जब उन का अभिवादन करते तो वे ‘राम भला करें’ कह कर उन्हें आशीष देते। एक बात जो वे अक्सर कहा करते वो थी ‘श्री राम भजो दुख में सुख में’ और कभी यदि उन के उपन्यासों तथा कहानियों का उन से ज़िक्र करते तो वे कहते - यह सीधा हुक्म मुझ पर श्री राम ने लागू किया है। बीच में कोई नहीं है। वे कहते हैं लिखो तो मैं लिखता हूँ। फिर जब श्री सारथी जी लिखते तो उस में झलक श्री राम की होती है। वलिदान की, शोधन की होती ।

...... क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 12 March 2019

Tantu by Gurudev Sarathi


तन्तु


गति मे घिरा, एक क्षण सा
नितांत अकेला अपने मे इक वृत सा
चक्र-व्यूह का एक कोण सा,
सागर का अदृश्य किनारा
या मरूस्थल का कण सा
एक अकेला सब कुछ
भीतार- बाहिर
बाहिर – भीतर जो कुछ भी
हरपल होता है
हरपल दिखता है,
देखता हरपल, या दिखता है,
दिखने वाला, सुनने वाला और सुनाई देने वाला
अविराम गतिशील, कौन है यह ?
क्या है यह? है भी यह कुछ?
यह भीतर है, या बाहिर?
देखता यह है,
सुनता यह है,
कहता यह है,
सुनने से दिख पाने का
कहने से कहलाने का
रिश्ता – नाता, तारतम्य
किसके कारण किस माध्यम से
क्या कितना और कैसे है?
फिर क्या यह
दिखने, कहने, सुनने, बोलने योग्य है?
यदि है तो,
यह भीतर के द्वारा है या बाहिर के?
कभी कभी अनुभव होता है
स्वयं आँख है देखने वाला

सुनने वाला, स्वयं कान और जीभ स्वयं है, बोलने वाला।
और भीतर है इनका सबका आधार
गहरा भीतर, अति गहरा अंतर,
जिसका कुछ भी पा लेना
कठिन है दर्शक को,
संभव नहीं, सुना जा सके,
सब ही हैं  सामर्थ्य हीन!
            -o-
वृत मिल जाने के,
अनुमान, प्रमाण निकटता के,
भीतर के अनुसार – व्यापार यदि हों,
यह घेरे यह वृत
दिखाई देते है सिमटते और अपनाते,
बाहिर की  आँखों के द्वार ,
श्रवण की खिड़कियाँ,
जीभों के अशिष्ठ आदान प्रदान,
छिन जाए, टूट जाए, गिर जाए,
परंतु
कहा होता है टूटना, छीनना और गिरना समाप्त।
देखने दिखाने, बोलने और सुनने वाला
एक छलावा जो है
द्वार, खिड़कियों, राहों, चौराहों  बाला।
भीतर – बाहिर जिसका
रिश्ता- नाता जिसका
व्यापार सभी जिसके
जटिलता से, कठिनता  से
जुड़े हैं  बाहिर के साथ ।
बाहिर ही को भीतर स्वीकार
आकांक्षा बाहिर की
मृग तृष्णा का आवरण ओढ़ कर
ऋण की राशि से, भूमि से, आँखें बंद कर,
कर लेता है स्थापित ,
मेरा द्वार नहीं,
द्वार स्वयं मै ही हूँ,
खिड़की मेरी नहीं,
मै ही खिड़की स्वयं हूँ,
झरोका नहीं मेरा
मै ही झरोका हूँ,
चक्कर काटने इसी भाव – भ्रम मे
उल्टे हो सीधे,
सीधे हो उल्टे, पानी ढोते,
कुए के रहट की भांति,
सोचा करता भरा हुआ हूँ,
सदा खाली, खाली ही का प्रमाण!
कौन क्या भरा है,
समाधान और निर्णय इसका
दो के भ्रम की मौत
एक के मिलन का आह्वान
आकाश के रक्षक के साथ ही,
हो सकता है
हो सकती है फिर
मृत्यु जीभ की,
श्रवण, दृष्टि और वाक मृत्यु !
मृत्यु भय है।
मृत्यु भी भय है,
भीतर की हो अथवा बाहिर की
आँख की हो या जीभ की,
कर देती है निष्क्रिय, किंकर्तव्यविमूढ़,
छा जाती है मरू के बवंडरों सी,
चिंतन मे शून्य
शून्य मे चिंतन
सब कुछ भीतर उतर कर,
मान मृत्यु को, मृत्यु हार कर
दुविधा का एक अंतहीन जाल,
भीतर ही भीतर तनता जाता है,
प्रशन तर्क और उतर के भीतर का अंतराल,
नहीं टूटता, टूट जो जाए,
फांद कर अंतराल की दूरी,
जुड़ जाएँ  निर्णय कर पाएँ,
पूछता कौन है, पूछने के क्षणों में,
देता है उत्तर कौन?
दुविधा, कुंठा और भ्रम
मर सकते है, मार सकते हैं ।
            -o-

प्रश्नो के उत्तेजक क्षणों में
द्वार ,झरोके, खिड़कियाँ,
बंद कहा कर पाता है,
भले ही जाने अनजाने मृत्यु की ओर
 बढ़ता जाता है,
अंदर- भीतर भरा हुआ है,
खाली मेरे पन से,
बाहिर सब कुछ मेरा है,
यही भीतर बना हुआ है
बाहिर भीतर बना हुआ है,
बाहिर का भय बना हुआ है,
अकाल छिन जाने का भय,
पहचान हो जाने का भय,
कहाँ फिर बन पाए बोध
कि
स्वयं ही पारदर्शी हो,
तू द्वार नही
तू खिड़की नही
तू झरोका नही
साक्षी है तू इन सबका
व्यूह टूटे
हार विजय में बदले और विजस विजय में ।
-o-

क्षण क्षण घेरे आवाज़े के
बवन्डर सन्देह आकांक्षाओ के
उबल पड़ते है
झांकों भीतर, अन्तर खन्गालो,
भीतर-बाहर मन्थन कर डालो
सोच के सारथी को लेकर साथ
स्वयं भरो निर्णय का कलश,
यह तेरा मै
यह तेरा तू
क्या है ? कौन है ?
है भी है यह ? है ?
भीतरी  भीतर
जहां दीप है
सूरत, सुख, सुलक्षण
समाधिस्थ मुद्रा में
आँखें बन जाए द्वार भीतर,
जिनके चारों ओर
सूक्षम सुदृढ़ पर्दे लटक रहे हैं,
वह स्वयं हटें, मिलने दें,
मैं तूको, सत्कार करें प्रश्न-उत्तर का,
मर-अमर
जर-अजर
चेत-अचेत
सत्य-असत्य,
शिष्ट- अशिष्ट
उत्तर नहीं प्रश्न हो।
दर्शक देखने में रत्त
श्रोता सुनने में,
वक्ता बोलने में,
ऊंची मंज़िल और आकाश वाले,
कुछ द्वार, झरोके, खिड़कियाँ,
रख-सजा कर
भीतर-बाहिर ऊपर-नीचे,
भीतरा के, भीतर वाले के अशब्द संदेश
पहुँचने पहुंचाने का माध्यम बन
निचली बस्ती वालों को दें आदेश
सन्मुख आकर, लौट कर, फिर लौट कर
पूछें, हम क्या हैं?
हमारा मैं तुम्हारा तू
मेरा तू तेरा मैं
क्या है सब व्यूह सा
भीतर का बाहिर का सब कुछ
कहाँ क्यों, कैसे बुना है?
कभी कभी
भीतर की कोख से
बाहिर की देह से
एक स्वर का जन्म होता है
तू हमारा है,
हम सब तू के हैं।
एकांत और मिलन में,
क्या अन्तर पड़ता है?
मिलन में हम एक ही के हैं,
एकांत में अलग अलग एक के।
अनुभव के मनन की दृष्टि
अग्नि का सहस्त्र्मुखी दीप जला कर
करवट बदलें, और पूछें,
दृष्टि क्यों अलग है सृष्टि की?
सृष्टि क्यों अलग है दृष्टि की?
कितने अलग है ?
कहाँ अलग है ?
है भी या है एक छलावा और भुलावा?
इस का मैवही कुछ है, जो कुछ
वह दिखाई, सुनाई, सुझाई देता है ?
अथवा वही कुछ दिखाई, सुनाई देता है
जैसा वह है?
दिखने को पानी और मेघ एक नहीं हैं
दोनों वही कुछ हैं, जो कुछ
नहीं दिखाई देते, न दे सकते हैं,
पानी में परछाई दिखती है,
बादल में नहीं!
मिट्टी का निकला सब कुछ खाया जाता है।
मिट्टी नहीं ।
दोष कहाँ है?
दृष्टि में? दृश्य में याकि द्रष्टा में ?
कभी कभी सहसा अनुभव होता है,
दोष तथा गुण
सामान्तर चलते हुए
करते जाते हैं निर्माण,
इस के हैं,
इस के द्वारा हैं,
इस के समीप हैं,
यदि हैं तो इसी के भीतर हैं,
फिर यह हम से भिन्न क्यों हैं?
यह कौन है, कहाँ कैसे है,
जो भिन्न है, विलग है?
जो आकाश ऊपर, ऊपरी मंज़िल पे बैठा
झरोके, द्वारों, खिडकियों से
देता है संदेश, बनता  है प्रमाण
साथी होने, रहने का
निचली बस्ती वालों को
पलक-पलक संदेश!
-o-
तेरा तू भी,
मेरा मैं भी
जाने अंतर है, जाना पहचाना
खड़े हैं छोटे बड़े मिट्टी के टीले से,
जिन में सुंदरता है बस इतनी
जितनी होती ?
पानी पर खिंची रेखा की, अथवा
लुढ़कते पत्ते की परछाई की !
इस का मैं और तेरा तू यदि
स्थापित कर लें एक तथ्य को,
मूल-स्रोत सुन्दरता का
तेज़, अग्नि और सत्ता ताप है तो
खुल जाये बंद ग्रंथि
मैं’ ‘तू की सुंदरता है अग्नि,
तो फिर तेज़, प्रकाश, सत्ता, अग्नि को
धारणा, स्वप्न, कल्पना
धारें नही,
स्वीकारें नही,
पुकारें नही,
जब तक होता नही आभास, !
तेज़, सत्ता, ताप का सौन्दर्य
सत्य नही,
शाश्वत नही
वास्तविक नही
यथार्थ नही,
तब तक है पहचान नहीं तुल्य ही ।
नहीं की नियति,
नहीं का अवधान
नहीं ही का प्रमाण रहेगी,
आश्चर्य ! आश्चर्य बना रहेगा
श्रवण, दृष्टि और वाक को !
-o-

अग्नि की सत्ता को आधार बनाए
खड़े तीनों भवन
दिखते है जुड़े हुए आपस में,
यू जैसे दिखते हैं,
पत्ता डाल से,
डाल तने से,
तना मूल से,
और धरती आकाश से !
आधार है इतना कि
सागर का हो आकाश से
आकाश का मेघ से,
मेघ का परछाई से
परन्तु एक कही नहीं !
कहीं  नहीं एक
तीनों के घेरो-वृतों में
तीनों के भीतरी अंतरों में
अन्तर है बहुत बड़ा क्योंकि
एक भवन अणुओं का जो है,
मिल-घुलकर, लड़-भिड़ कर
अविराम घूमते
कुछ उठाते-बांधते
आकार एक भवन का
बढ़ता, उठता जाता
साथ साथ ही पाल लेता
एक पशु को भीतर,
अनिष्ठ, अस्तित्वहीन स्वप्नों को,
घिर जाता है भवन पशु द्वारा
व्यापारों में, व्यापारियों में
छूट जाता, टूट जाता व्यापार,
जो मूल है वास्तविक है,
पीछे छूटते व्यापारों से,
टूट जाते हैं भवन के कोण।

जो अनाम हैं, खाली भीतर से,
कहीं नहीं छत दीवारें जिस की,
भवन-भवन में होने से,
कहलाता, सुनवाता है भवन स्वयं को
बाहिर के, निचले वासियों द्वारा
उन की अनिश्चित क्रियाओं,
प्रतिक्रियाओं, प्रतिक्रियाओं द्वारा
एक काल तक निश्चित
हिलता, भटकता, बिखरता,
लुप्त हो जाता है, और जाते जाते
खंडित करता जाता है
मध्यवर्ती भवन को।
तीनों में से फिर,
तीसरा एक भवन
छलावो, बिडम्बनाओं नाटकों द्वारा
रोग ग्रस्त हो,
दोनों अधिकार में लाए गए भवनो को,
जो स्वामितव की दासता में बन्धे
घिसटते है,
टूटे लटके पायेदान की भांति,
पूछा करता प्रश्न
चुभोता रहता शूल,
कौन नगर है जहां बसे हो,
कौन व्यापरी है खरीदा है जिसने ?
कौन से व्यापारी में फंसा कर अब,
स्वामित्व जमाते हुए,
छ्त्तो में दरारें,
दीवारों में छेद
और फर्श पर कांटे,
क्या कुछ बिखरा दिया है,
जो कुछ बिखरता है तब, जब
तेज़ नही रह जाता अग्नि का गुण,
सीलन जल का गुण नही रहता,
वायु का धर्म बहना नही रह जाता,
और
मिट्टी और सहनशीलता दोनों
बह जाते हैं,
अस्तित्वहीन रह जाते है
दृष्टि में रहने वाला भवन,
उसके भीतर का
और उठाने वाला प्रश्न-शंकाएं
व्यस्त रहें अपने ही “मैं” में
युग-युगान्तरों तक तब
बनते-मिटते,
मिटते-बनते,
उल्झे रहते इन्ही क्रमों में
मुक्त हो, ऐसी दशा, ऐसी दिशा,
संकेत कोई,
मिलता नही, मिल सकता नही !
आकाश के रक्षक के आधार पर खड़ा
प्रकाश का बन्दी
मिलते और ढूंढने के समय,
मध्य का कारण गिराने के लिए,
हो यदि तैयार, उठ खड़ा हो
फिर, समय के चक्र
श्वासों-वृत्तियो के परिवेश,
इस के मैं के हाथो,
आ जाते हैं निकट कि जैसे
दृष्टि आँख ही में, आँख ही की होती है
समीप,
भीतर,
एक ही रूप, एक ही अनुरूप !
-o-

सर्व-सर्वस्व को घुमाता समय,
लगता है घूमने स्वय
आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, आस-पास,
परन्तु
द्वारो का बन्द होना,
धूनि का रमना,
अग्नि का तपना,
सहना सब कुछ,
कहते, देखते, सुनते हुए
अति कठिन है,
असम्भव ही है,
यह कठिनता, यह जटिलता
एक से नही, है तीनों से,
है विमुक्ति का मार्ग ! अमल मार्ग !
फिर यह तीनों
भीतर-बाहिर
लिपटे है एक दूसरे से यूं, कि
अंग-अंग, अंग से अंग
एक दूसरे के जोड़ने के लिए,
जोड़ते समय
एक के नही, तीनों के जुङते हैं,
एक नही, तीनों तपते है,
एक नही तीनों बन्धते है,
आश्चर्य,
परिचित भी एक दूसरे के,
अपरिचित भी एक दूसरे के लिए !
-o-

मित्र एक दूसरे के,
किनारे और जल निधि की भांति,
शत्रु एक दूसरे के,
मरुस्थल और वृक्ष की भांति,
वरदान एक दूसरे के लिए,
वायु और मेघ की भांति,
सन्ताप एक दूसरे के लिए,
दृष्टि और दर्पण की भांति,
मोहक एक दूसरे के लिए,
वायु और सुगन्ध की भांति,
आतंक एक दूसरे के लिए
अग्नि और जल की भांति !
परछाइयां प्रतिबिम्बित होती है,
अन्तर-भीतर के भवनो के हर चेहरे पर,
दृष्टि के वृत में रहते,
भवन के कथाओ की, भवन के क्रियाओ की ।
परन्तु परछाइयां,
निरंतर क्रम प्रतिबिंबों – का,
आड़े-तिरछे बिंबों की  रेखाओ का,
अस्तित्वहीन उपमाओ का,
अंकित कर देता है हर चेहरे पर
टूटी रेखाओ के अन्तहीन जाल,
लम्बा अन्तहीन क्रम,
भवन मध्य का
आतंकित हो भयातुर हो,
भीतर को सीमित हो,
संकुचित हो, देहहीन सा हो जाता है
मिलन हो यदि, भीतर और मध्य के भवन का,
दिखने वाला भी
श्वास शान्ति के कुछ भरता है,
परन्तु
द्वार, खिड़कियाँ, झरोके,
टकरा-टकरा कर,
जीने नहीं देते
मरने नहीं देते
स्वयं मर सकते हैं
संयम के स्थापन के शस्त्र के द्वारा।
-o-

भवनों का अंतिम स्वामी,
कोई तो आरंभ से अन्त तक,
नींव से ऊंचाई तक,
हर दिशा की अंतिम यात्रा तक
है,
बहुत समीप से बहुत दूर तक
दोनों छोरों को मिलाते
असंख्य ज्योतिपुंज्य
अगणित सूर्य
रम कर एक दूसरे में
एक महाकाश की सभी दिशाओं में,
धूनि रमा कर,
आसान जमा कर
हर क्षण की पूर्ण अवधि में,
हर सूर्य विराट का मनन,
चिंतन विराट का,
समा जाने ही का भाव,
रमा लेने हेतु,
युगों से,
युगों-युगांतरों से
समा-रमा पाने की आकांक्षा।
हो सके पूर्ण यदि
विलय, रमन के और मनन चिंतन के मध्य,
शून्य का निर्माण संभव हो
शून्य का प्रावधान निश्चित हो,
शून्य का विधान साकार हो,
यदि हो सके तो।
सूक्ष्म रश्मि, उस के तेज की,
अति सूक्ष्म तन्तु
पहरा देती रात दिवस,
भीतर-बाहिर का
समाधिस्त भवनों में प्रकाशित दीपों का,
भीतरी
बहिरी,
और मध्य के भवनों सहित
बहत्तर सहस्त्र
फैलती- सिकुड़ती शिराओं का जो आधार है,
परिवारों के रक्षक स्वामी का
भीतरी- बाहरी  गति के शवासों का क्रम
करता है मात्र आभास,
अहसास सीम से असीम का
अहसास असीम का  सीम  से,
अन्तर विराट और रश्मि के मध्य का
भवनों का आवाहन।

-o-
सहज संभाली
वायु, तेज, जल पर आधारित धरती,
धरती के गर्भ मे अंकुरित
क्षणों का जन्म
जन्म विलय, फिर जन्म
यही जल का क्रम
जन्म- विलय का क्रम  क्षण- क्षण
आने जाने के रास्ते का मूल
आवागमन
विश्वासों – अविश्वासों की भांति
आवागमन
श्वासों का जन्म और मृत्यु
आने जाने का अनन्त अंतहीन क्रम
युगो युगो के चक्र जिसे घुमाते,
सूर्य से सागर तक
सागर से आकाश तक
आकाश से बूंदों तक
नदी से अथाह तक
जिस का न यह किनारा, न वह किनारा।
थाह कहां है?
नाप कहां है?
नीचे कहां है?
उपर कहां है?
मध्य कहां है?
दृष्टि में कहां है?
दृष्टि से बाहिर कहां है?
वाक के भीतर कहां है?
श्रवण के बाहिर कहां, भीतर कहां है?
तर्क की अवधि,
तारतम्य की मृत्यु
तर्क की मृत्यु
संबंध की अवधि
हाँ अवधि, उसकी याचना
अवधि
सूर्य का ताप
धरती की पिपासा की शांति,
सूर्य का ताप,
कण की यात्रा का सर्वस्व,
सभी दिशाए, सभी कोण
सृष्टि बिन्दु की, जल की, सागर की,
धरती और अनुरक्ति की,
धरती के गर्भ में छिपे कारण
जल, वायु, आकाश और घिराव,
रंगो के, दीपो के,
भीतरी – बाहिरी स्वरो के,
रुदन–हास्य, स्वार्थ कल्पना,
क्रोध, अग्नि और जल संकोच
काम, लज्जा और अहंकार, करुणा
लोभ, समानता,
बहना, सूखना, गिरना- टूटना,
जुड़ना, जुडने की यंत्रना
अवधि का जन्म
अवधि की मृत्यु,
टुकड़ा- टुकड़ा
कतरन कतरन
आँख आँख और दृष्य दृष्य है,
जीभ जीभ और वाक वाक है,
तेरा “तू” की सृष्टि में  से
जन्मते पंक्ति बद्ध
रश्मियों से रश्मियों पर हो सवार,
रंग-ढंग बढ़ते जाते, बढ़ते ही जाते,
यह सब अनुभव होता है,
तेरे तू की स्वणन-सृष्टि का शृंगार
विराट का स्वपन होता क्षणिक साकार
पुष्प मे गंध, बिखर कर हो प्राप्त
जल की लहर भीग कर मिले,
अग्नि का ताप मिले रूप धार कर
गंध, लहर, ताप,
भीतर, बाहिर और मध्य।
उपर नीचे, कितने आकार,
किस  रूप के साक्षी हो कर,
कहा छिपे है, कहा मूल और कारण है,
अनुमान नहीं, कुच्छ ज्ञात नहीं
अज्ञात है सब,
देखने सुनने और बोलने वाला,
अपने तीनों रूपो को
यू कर लेता है परिवर्तित ,
जैसे सूर्य मेघ मे बदले,
या फिर
धरती और आकाश दोनों ही
अनेकानेक रूप करते जाएँ धारण और परिवर्तित
बनें  – मिटें  या मध्य भ्रमित।
-o-
चित्र निर्माण के लिए,
चित्रकार एक
रंगो के सागर ले कर,
रूप, स्वभाव गुण-अंग मिलाकर
रंगता है, घढ़ता है,
निर्मित कुछ होता जाए, पर
साथ साथ ही,
आ रही ऋतु; जाते मौसम,
हवा, झोंके, शरद, ताप, हेमंत,
एकत्रित कर, देकर जन्म सभी को,
उसी को सौंप उस का भार,
हो जाते है लुप्त,
पुन: आने–लाने को।
चले आने का,
चले जाने का यह क्रम
एक गोलाकार और उस मे आया हुआ मै”
देख लेता है,
सुन और अनुभव कर लेता है
की उस का मै” है उसी वृत में,
जिस के घेरे – परिवेश
एक अक्ष्य से
एक बिन्दु से
फ़ैल कर अपना आकार बढ़ाते,
बदलते हुए अपने रूप रंग
उन घेरों को
छू लेते है उन सीमाओ को
जिनके कोणो, छोरों, बिन्दुओ से आगे,
और बहुत आगे,
और बहुत दूर
सीमाएं और हैं, घेरे और हैं, परिवेश और हैं,
रंग रूप और
ऋतुएं भी और
चित्रा भी और
चित्रो के गुण- धर्म और,
गंध, भाव, स्वर, आगे ही आगे
परंतु
आगे का वृतांत
आगे की यात्रा की अज्ञात कथा
सीमाओं कोणों का मूल
वही है, इक बिन्दु पर, इक धुर्रे पर,
टिका हुआ है, छिपा हुआ है,
यही कुछ तो है!

     -o-
वह एक बिन्दु
जिस का आकार शून्य,
परंतु सर्वस्व वही,
शरीर नहीं जिसका
शरीर सभी परंतु उस के है,
आँख नहीं जिस की,
उसी मे दृष्टि, दृष्य, दृष्टा सभी,
श्रवण नहीं उस के हैं,
परंतु “तू” और मै” के समस्त
स्वर, नाद, ताल, लय, संगति में
लगे हुए हैं, लगे हुए हैं।
जिबहा नहीं है जिस की
परंतु उदय-अस्त, हर क्षण
बोल रहा है,
सुन रहा है,
सुना रहा है,
वह एक बिन्दु, वह एक धुर्रा,
आगे बहुत सूर्य के ताप से,
किरणों से ऊंचा,
सूर्य जिस का अंश मात्र
सूर्य की गरिमा का रक्षक
सूर्य की गरिमा का चालक
सूर्य के मण्डल का स्वामी
सूर्य की गरिमा का भीतर
सूर्य की गरिमा का बाहिर
वह एक बिन्दु!
-o-

वह एक बिन्दु
राह राई के कई अंत जिस में,
आकाश के घेरों के साथ
आकाश ही में समाया हुआ परंतु
रक्षक आकाश का जो
चलता है आकाश के साथ
और चलता साथ आकाश को!
-o-
वह एक बिन्दु
मिट्टी के भीतर का अंकुर
मिट्टी के बाहिर का कारक
जिस के कारण बनती मिट्टी
जिस के कारण मिट्टी है मिट्टी
भीतर-बाहिर लिप्त इसी में
फिर भी अलग मिट्टी से।
     -o-
वह एक बिन्दु
जल के दर्पण का दर्पण
जल के होने का कारण
जल रूपी दर्पण का जीवन
जल के बहने का माध्यम
वह एक बिन्दु।
     -o-
वह एक बिन्दु हो कर सभी कुछ,
और कुछ भी नहीं,
वही बिन्दु है तेरे तू का साक्षी,
और उस विराट का, जिस से,
अग्नि, वायु, जल, ताप, रक्षित है।
उस के स्वप्न की कल्पित सृष्टि के,
नाटक देखने, होने के लिए।
“मैं” है इस का भवनों वाला,
आकाश- मंज़िलों वाला,
द्वार खिड़कियों का स्वामी,
जिस के अनुशासन में हैं
सभी व्यापार, कार्य, धंधे इसके,
कार्य- व्यापार मिल कर सभी,
मैं की मान्यता के स्वामित्व में,
तेज त्याग कर अग्नि का,
पहचान भुला कर जल की,
गुण गिरवी रख वायु के,
ऋण भुला कर मिट्टी के
घेरे, आकार, कोण और परिवेश भुला
आकाश के, समुद्र के,
निर्माण से विनाश तक,
एक स्वर- एक आलाप, आलापा करता,
जो कहना, करना, सुनना चाहूँ,
वही कह, कर, सुन सकूँ।
निचली बस्ती के लोगों का भी
यही हो क्रम-विधान।
भीतर क्या है,
बाहिर क्या है,
यह विवेक इक शूल
चुभ जाता यदि चिंतन करे,
एक रंक इस का स्नेही,
यही मैं रंक,
चलता जाता, बिन देखे, बिन सोचे
और बढ़ाता जाता दूरी,
साक्षी से, साक्षी होने से! 
-o-
दिखने वाला इस का भवन,
दूसरा इस के भीतर-,
तीसरा बस कारण का कारण,
भीतरी भवनों के अति भीतर,
वह बिन्दु
जो साक्षी है उस विराट के
छोटे बड़े- होने, नहीं होने का,
ध्यान मगन बैठा है, समाधिस्थ,
भीतर- बाहिर,
जो कुछ भी दिखता है, सुना जा रहा,
यदि मेरे कारण और मेरे हेतु है
तो
इस का मैं इतना विलग क्यूँ?
कि,
स्वर का वाहन
चलता-कहता जाता हूँ, पहुंचे नहीं,
देखे नहीं, जो भी दिखता है
इस की दृष्टि से यह सृष्टि
मेरी सृष्टि से इस की दृष्टि,
अन्य क्यों है, भिन्न क्यों है?
मैं ही कारण हों इस के मैं का,
भवन मेरे कारण हैं इस के,
बस्तियाँ और बस्ती वाले,
मुझ पर आश्रित-आधारित हैं!
-o-
भटकन इस की
अंधेरे इस के,
अधिक उल्लास और अधिक उदासी,
बहिरी सुख-दुख,
पहचान की  अंधी यात्रा,
कारण है इस के विनाश की,
कारण है द्वेष के, भय के,
 मिटने का कारण
 सुरति के दीप को ले कर,
 भीतर ही भीतर जगते प्रकाश को,
अपनाने के स्थान पर,
सुरति का विस्मरण
और पहचान अंधेरी राहों से,
अनर्थ- व्यर्थ, भीष्ठ सभी कुछ
और साक्षी को भूल भिला कर,
और विराट के विमुख।
-o-
इस के मैं का टूटे स्वप्न,
टूटे यदि इस का मैं तो
स्वीकारे यदि मैं के मैं को
इस का मैं और तेरा तू
एक के दो, यदि,
दो का एक
फिर
जो कुछ भी दिखाई देता है
सुनाई देता है,
असंख्य आकाश
अगणित  सूर्य
प्रकाश के सागर अथाह
समस्त घेरे समय के
वायु के समस्त झूले हिलोरे,
मिट्टी के सारे कण
एक ही संकेत पर,
देख रहे, सुन रहे, बोल रहे,
चमक रहे
यह खुल जाये यदि हो जाये पहचान,
इस का मैं और तेरा तू
यह सब भूला सा इक स्वप्न मात्र रहे,
और यही रह जाये शेष
इस का मैं तो कभी नहीं था,
तेरा तू सदा - सदैव है!
-o-

इस का मैं तो भ्रम  मात्र,
तेरा तू आदि अंत है,
तेरा तू आकाश- धरती है,
तेरा तू स्वामी है उस का!
जिस के भवन, द्वार, मंज़िलें।

ताप – गरिमा प्रकाश की रश्मि,
जो मानती है तेरे मनन को,
जो देखती है तेरे देखने को।
सुनती है तेरे सुनने को,
यह श्रवण, देखना, सुनना,
आकाश, धरती, वायु, जल, तेज, के,
चारों ओर – हर दिशा में,
तेरा मनन- चिंतन तेरा व्याप्त है1

तेरे मनन से होकर विमुख
अपने मनन को मन कहता यह,
द्वार, खिड़कियाँ, झरोके,
विलग हर क्षण कर रहे,
धागे जुडने नहीं देता,
तेरे तू से मेरे मैं के,
मन ही तो है एक छलावा,
मैं को मान कर,
धागे तोड़े,
जोड़े नहीं,
जुड़े नहीं!
























सारथी