सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास। आप के सुझाबों का इंतज़ार रहेगा।
सागर की कहानी (63)
सागर की कहानी (63)
वे अक्सर कहा करते - मुँह से बात करना और चुप रहना दोनों का अपना-अपना महत्व है। परन्तु यदि कोई व्यक्ति चिल्ला कर बातें कर रहा हो, परन्तु क्रोध में न हो, तो मैं उसे मौनधारी सन्त कहूँगा। यदि उस के चारों ओर भोग की बस्तुयें पड़ी हैं और वह लोभ में नही हैं तो वह मौन है, चुप है। यदि वह अभिनय कर रहा है, भाव भंगिमा में वह अभिमानी दिखाई दे रहा है परन्तु अभिमान और अहंकार उसे छू भी नहीं सकें हैं तो वह संसार का सब से बड़ा मौन साधक होगा। फिर कहते - मौन एक खालीपन की हालत है। एक नहीं की, एक शून्य की स्थिति है। जिस में सब तत्वों, पदार्थों और दिशाओं का बोध तो है परन्तु रुचि और सम्बन्ध शून्य हैं। दूसरे शब्दों में देखते हुए न देखना मौन है। सुनते हुए नहीं सुनना चुप है।
श्री सारथी जी की आकांक्षा सदेव यही होती कि जिज्ञासु एवं पिपासु साधक उन के द्वारा अर्जित अनुभव एवं अनुभूतियों को अपना कर शांत हो जाये, मौन हो जाये। वे कहते - मौन साधना के द्वारा नहीं वरन विश्लेषण और अनुसंधान के द्वारा पकड़ में आयेगा। और बताते विश्लेषण यूँ करना होगा कि क्या कुछ है और किस की आवश्यकता है। सब कुछ है अथवा कुछ भी नहीं है। मुझ से क्या-क्या सम्बन्धित है और मैं किस से सम्बन्धित हूँ। श्रवण, दृष्टि, वाक, स्पर्षादि पर मेरे मन का नियन्त्रण है अथवा मेरी चेतना का। क्या मुझे अपनी साम्थर्य तथा क्षमता का आभास है? मैं जो कहता, सुनता ,बोलता और स्पर्श करता हूँ उस में भाव लौकिक हैं अथवा अलौकिक। सीम हैं अथवा असीम, नित्य हैं अथवा अनित्य। और जो कुछ बोल रहा हूँ उस में आशा है अथवा निराशा, राग है अथवा विराग?
यह सब क्या है? ज्यों-ज्यों इन के समाधान होते जायेंगे तुम मौन होते जाओगे। तब तुम बहुत बातें करोगे परन्तु तुम्हें हैरानगी होगी कि तुम चुप क्यों हो? कुछ बोलते क्यों नहीं?
एक दिन उन के पास पहुँचता हूँ तो दायीं ओर के कमरे के बाहर सलीके से रखे बूट और चप्पलों के जोड़ों को देख कर समझने में देर नहीं लगती कि कुछ लोग सारथी जी से मिलने आये हुये हैं।
द्वार के समीप पहुँचता हूँ तो श्री सारथी जी के कुछ वचन कानों में पड़ते हैं और साथ ही उन के खाँसने की आवाज़ मुझे कुछ आहत भी कर देती है। धीमे-धीमे कदमों से भीतर प्रवेश कर उन के आगे झुक जाता हूँ। उन की लम्बी उंगलियां मेरे बालों और गर्दन के ऊपर घूम जाती हैं। तेज़ बुखार से तपती उंगलियां मुझे और सतर्क कर देती हैं पर उन के वचनों का प्रवाह रोक कर हाल पूछने की हिमाकत मैं नहीं कर सकता। बस उन की तरफ प्रश्नसूचक नज़रों से देखता हूँ। वो मुस्कुरा देते हैं। मानो कह रहे हों सब कुछ ठीक है, चिन्ता की आवश्यकता नहीं। उन के वचनों का प्रवाह मुझे शांत कर देता है। मानसिक हलचल समाप्त हो जाती है। वो कह रहे हैं -”तुम यदि योगी बनना चाहते हो। साधना करना और प्रभु को प्राप्त करना चाहते हो, तो मेरी बात मानो। तुम कलाकार बनो। और कला को उसकी चरम सीमा तक पहुंचाओ। मैंने असंख्य लोग देखें है। कला के अनन्य भक्त परन्तु जब कला में चमत्कार पैदा होना आरंभ हेाता है, तो वे चमत्कार ही को कला की चरम सीमा मान लेते हैं। परन्तु कला की चरम सीमा तो विराट को, पालक को, गोपाल को गोविंद को और गोवर्धन को निकट से देखने का सरल उपाय है। कला के द्वारा तो कलाकार प्रभु और उसकी माया के बड़े से बड़े रहस्य को उद्घाटित कर सकता है। परन्तु करता नहीं। बहुत कम लोग करते है। तभी यह सब असम्भव दिखाई देता है।“
खाँसी पुणः अपना प्रभाव दिखाती है। पर उन के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई गिला नहीं। बस एक रुहानी मुस्कान है। जब सब लोग उठ के चले जाते हैं श्री सारथी जी मेरे सिर पर हाथ फेरते हैं। मैं कहता हूँ गुरुदेव आप को तो तेज़ बुखार है। सितार की गूँज सी हसी का ठहाका गूँज जाता है, कहते हैं- भले मानस, बीमार मैं नहीं, शरीर है। फिर अपनी मुस्कान का तीर मुझे मारते हुए कहते हैं- शरीर तो इक दिन चला जायेगा, मैं नहीं जांऊगा। शरीर इक दिन मर जायेगा, मैं नहीं मरुंगा। मैं मर ही नहीं सकता। मुझे रह रह कर सारथी जी की ग़ज़ल का मकता याद आ रहा है।
सारथी अब ज़िस्म की कोई ज़रूरत हो न हो।
आस्माँ की फ़िक्र थी अब आस्माँ हो जाऊंगा ।।
........क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध
श्री सारथी जी की आकांक्षा सदेव यही होती कि जिज्ञासु एवं पिपासु साधक उन के द्वारा अर्जित अनुभव एवं अनुभूतियों को अपना कर शांत हो जाये, मौन हो जाये। वे कहते - मौन साधना के द्वारा नहीं वरन विश्लेषण और अनुसंधान के द्वारा पकड़ में आयेगा। और बताते विश्लेषण यूँ करना होगा कि क्या कुछ है और किस की आवश्यकता है। सब कुछ है अथवा कुछ भी नहीं है। मुझ से क्या-क्या सम्बन्धित है और मैं किस से सम्बन्धित हूँ। श्रवण, दृष्टि, वाक, स्पर्षादि पर मेरे मन का नियन्त्रण है अथवा मेरी चेतना का। क्या मुझे अपनी साम्थर्य तथा क्षमता का आभास है? मैं जो कहता, सुनता ,बोलता और स्पर्श करता हूँ उस में भाव लौकिक हैं अथवा अलौकिक। सीम हैं अथवा असीम, नित्य हैं अथवा अनित्य। और जो कुछ बोल रहा हूँ उस में आशा है अथवा निराशा, राग है अथवा विराग?
यह सब क्या है? ज्यों-ज्यों इन के समाधान होते जायेंगे तुम मौन होते जाओगे। तब तुम बहुत बातें करोगे परन्तु तुम्हें हैरानगी होगी कि तुम चुप क्यों हो? कुछ बोलते क्यों नहीं?
एक दिन उन के पास पहुँचता हूँ तो दायीं ओर के कमरे के बाहर सलीके से रखे बूट और चप्पलों के जोड़ों को देख कर समझने में देर नहीं लगती कि कुछ लोग सारथी जी से मिलने आये हुये हैं।
द्वार के समीप पहुँचता हूँ तो श्री सारथी जी के कुछ वचन कानों में पड़ते हैं और साथ ही उन के खाँसने की आवाज़ मुझे कुछ आहत भी कर देती है। धीमे-धीमे कदमों से भीतर प्रवेश कर उन के आगे झुक जाता हूँ। उन की लम्बी उंगलियां मेरे बालों और गर्दन के ऊपर घूम जाती हैं। तेज़ बुखार से तपती उंगलियां मुझे और सतर्क कर देती हैं पर उन के वचनों का प्रवाह रोक कर हाल पूछने की हिमाकत मैं नहीं कर सकता। बस उन की तरफ प्रश्नसूचक नज़रों से देखता हूँ। वो मुस्कुरा देते हैं। मानो कह रहे हों सब कुछ ठीक है, चिन्ता की आवश्यकता नहीं। उन के वचनों का प्रवाह मुझे शांत कर देता है। मानसिक हलचल समाप्त हो जाती है। वो कह रहे हैं -”तुम यदि योगी बनना चाहते हो। साधना करना और प्रभु को प्राप्त करना चाहते हो, तो मेरी बात मानो। तुम कलाकार बनो। और कला को उसकी चरम सीमा तक पहुंचाओ। मैंने असंख्य लोग देखें है। कला के अनन्य भक्त परन्तु जब कला में चमत्कार पैदा होना आरंभ हेाता है, तो वे चमत्कार ही को कला की चरम सीमा मान लेते हैं। परन्तु कला की चरम सीमा तो विराट को, पालक को, गोपाल को गोविंद को और गोवर्धन को निकट से देखने का सरल उपाय है। कला के द्वारा तो कलाकार प्रभु और उसकी माया के बड़े से बड़े रहस्य को उद्घाटित कर सकता है। परन्तु करता नहीं। बहुत कम लोग करते है। तभी यह सब असम्भव दिखाई देता है।“
खाँसी पुणः अपना प्रभाव दिखाती है। पर उन के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई गिला नहीं। बस एक रुहानी मुस्कान है। जब सब लोग उठ के चले जाते हैं श्री सारथी जी मेरे सिर पर हाथ फेरते हैं। मैं कहता हूँ गुरुदेव आप को तो तेज़ बुखार है। सितार की गूँज सी हसी का ठहाका गूँज जाता है, कहते हैं- भले मानस, बीमार मैं नहीं, शरीर है। फिर अपनी मुस्कान का तीर मुझे मारते हुए कहते हैं- शरीर तो इक दिन चला जायेगा, मैं नहीं जांऊगा। शरीर इक दिन मर जायेगा, मैं नहीं मरुंगा। मैं मर ही नहीं सकता। मुझे रह रह कर सारथी जी की ग़ज़ल का मकता याद आ रहा है।
सारथी अब ज़िस्म की कोई ज़रूरत हो न हो।
आस्माँ की फ़िक्र थी अब आस्माँ हो जाऊंगा ।।
........क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध
No comments:
Post a Comment