सागर की कहानी (59)
श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
अध्यात्म का पथ, स्वयं के अध्ययन, स्वयं की तलाश का पथ है। स्वयं को जानने हेतु स्वयं का विश्लेषण, परिमार्जन एवं अनुसंधान अनिवार्य है। अपनी साधना यात्रा के संबंध में घड़ी साज में सारथी जी लिखते हैं- मुझे तब लगा कि जब मैं अकेला हेाता हूं तो अपने प्रश्नों का समाधान अच्छी तरह न भी कर पाऊं, तो भी अपने प्रश्नों को भली भांति समझ तो सकता ही हूं। यह भी एक दुख्रांत रहा है कि मैं अपने ही कई एक संशयों और संदेहों के रंग रूप ही समझ नहीं पाया हूं और जिनकों थोड़ा बहुत समझ पाया हूं वे सारे लाईलाज हैं। टीचर कहते हैं – प्रश्न होना अनिवार्य है। मैं उन से कहता हूँ – प्रश्न हो न हो, उत्तर प्राप्त करना ही परम आनंद को प्राप्त होना है। क्योंकि मैं बहुत तुच्छ हूँ, प्रकृति के रहस्यों को समझने के लिए। उन में पड़ना समय की बरबादी के सिवाय और कुछ नहीं है। क्योंकि जितने भी सद्गुण और सदप्रवृतियां है। वे सभी उत्तर है, प्रश्न नहीं है। प्रभु उत्तर हैं। दया विनम्रता, सहानुभूति, सहायता, सेवा यह सभी प्रभु के रूप के उत्तर ही हैं। इन उत्तरों को प्राप्त करने के लिए नितांत ‘व्याकुलता’ की आवश्यकता है। व्याकुलता का मुझ में अभाव था। यह कैसे बढ़े, यह भी नज़र नहीं आ रहा था। इधर कलाक्षेत्र और साहित्य। उधर प्रभु वांछित विछलता का भाव। यहां तत्काल प्राप्ति। वहां प्रतीक्षा। प्रतीक्षा भी एक नहीं, कई जन्मों की। यहाँ पिता श्री गाते थे – साहित्य, संगीत, कला विहिना।
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः।।
यही संस्कार मैं भी ले कर चल रहा था। यह बात टीचर को सुनता था। वे बहुत खुश होते थे। कहते थे तुम्हारे पिता अवतार पुरुष हैं। टीचर स्वयं भी गाते थे। और गाते हुए मीरा अथवा कबीर के पदों में डूब कर भाव-विभोर हो जाते थे। इतने भावुक की पहरों अश्रुयों की अविरल गंगा बहती चली जाती थी। और उन्हें चेतना से भी दुख होने लगता था। और बीच बीच में कहते थे – चेतना भी मुझे लगता है प्रभु की अनुभूति में शत्रु है। तुम भी यही अनुभव करोगे तो चेतना द्वारा होने वाले कर्मों को त्याग दोगे। मुझे टीचर की बात अच्छी लगती थी। उन का चेतना का अर्थ चेतना मन और जागृत बुद्धि से होता था।..........................................क्रमशः कपिल अनिरुद्ध
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः।।
यही संस्कार मैं भी ले कर चल रहा था। यह बात टीचर को सुनता था। वे बहुत खुश होते थे। कहते थे तुम्हारे पिता अवतार पुरुष हैं। टीचर स्वयं भी गाते थे। और गाते हुए मीरा अथवा कबीर के पदों में डूब कर भाव-विभोर हो जाते थे। इतने भावुक की पहरों अश्रुयों की अविरल गंगा बहती चली जाती थी। और उन्हें चेतना से भी दुख होने लगता था। और बीच बीच में कहते थे – चेतना भी मुझे लगता है प्रभु की अनुभूति में शत्रु है। तुम भी यही अनुभव करोगे तो चेतना द्वारा होने वाले कर्मों को त्याग दोगे। मुझे टीचर की बात अच्छी लगती थी। उन का चेतना का अर्थ चेतना मन और जागृत बुद्धि से होता था।..........................................क्रमशः कपिल अनिरुद्ध
No comments:
Post a Comment