सागर की कहानी (62) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
सागर की खामोशी, मौन एवं निस्तब्धता का सहज अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। सागर के इस मौन के साक्षी हैं सूर्यदेव एवं अनन्त आकाश। परन्तु सागर के इस मौन, इस गाम्भीर्य को तोड़ने का साहस भला कौन रखता है। कितनी ही चंचल नदियां, इतराते-बलखाते नदी एवं नाले इस के अस्तित्व में समा चुके हैं। परन्तु फिर भी यह सब मिल कर भी जलनिधी की निश्चलता को भंग नहीं कर पाये हैं।
मैं अपने अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ कि श्री सारथी जी जब लिखते हैं तो मात्र एक ही बार, बोलते हैं तो मात्र एक ही बार। यह उन के मानसिक मौन का वृहद प्रभाव था। चर्म दृष्टि अथवा वाह्य दृष्टि से देखने पर लगता कि वे बहुत व्यस्त है। हर चीज़, हर कार्य में रुचि ले रहे है। परन्तु कई बार बहुत ही निराश होना पड़ता कि अत्यन्त महत्व की बात भी उन के लिए रुचिकर नहीं। शरीर अस्वस्थ होता तो मृत्यु के किनारे चले जाते परन्तु उस अवस्था में भी अव्यक्त को व्यक्त करते चले जाते। वे एक ऐसे मौन साधक थे जो अपनी वाणी, अपनी लेखनी एवं अपनी तूलिका द्वारा सूक्ष्म को स्थूल एवं अज्ञात को ज्ञात करते चले जाते। कई बार बहुत निराश होना पड़ता कि अत्यन्त महत्व की बात भी उन के लिए रुचिकर नहीं। कई बार जब कोई अपनी बहादुरी के किस्से उन्हें सुना रहा होता तो लगता वे इन किस्सों में पूरी रुचि, पूरा आनन्द ले रहे हैं। परन्तु झट ही यह रहस्य खुल जाता कि वे मात्र रुचि लेते हुए दिखाई दे रहे हैं। कभी जब सृजन को जी चाहता तो किसी भी कलात्मक चित्र को सफेद रंग के द्वारा प्रभावशून्य बना देते और फिर उन की तूलिका यूँ चलने लगती मानो सफेद कनवास पर तस्बीर पहले से ही बन चुकी है और सारथी जी मात्र उस पर अपनी तूलिका घुमा रहे हैं। शून्य में से आकार उभरता और कुछ नहीं में से सब कुछ प्रकट होता चला जाता। स्मरण होने लगती बाईबल की उक्ति- God created everything out of nothing. एक अदभुत कलाकृति के उभर आने से मन हर्षित होने लगता परन्तु एक कलाकृति के नष्ट हो जाने का दुख भी कम न होता। लगता सारथी जी ने अपनी बेपरबाही के कारण एक बहुमूल्य कृति को गवा दिया। परन्तु उनके लिए तो यह सब खेल होता। खेल को न समझने वाले के लिए बनना-बिगड़ना बड़े महत्व का है। तभी लोग बनने पर खुशी प्रकट करते हैं और बिगडने का मातम मनाते हैं। परन्तु रचनाकार लीला धारी की तरह निरपेक्ष भाव से तमाशा करता जाता है, तमाशा देखता जाता है। रणखेत्तर उपन्यास में सारथी जी इसी भाव को प्रकट करते हैं। पढ़ कर लगता है वे स्वयं को नकार रहे हैं। स्वयं को निरर्थक घोषित कर रहे हैं। परन्तु गहनता से जुड़ने पर समझ आता कि वे सृजनात्मक्ता के मूल सिद्धांत का खुलासा कर रहे हैं। वे लिखते हैं- मैं तो मूर्तियां बनाते हुए महसूस करता हूँ कि खेल रहा हूँ। तमाशा करते हुए तमाशे के साथ मिल कर तमाशा हो रहा हूँ। मिट्टी से मिल कर मिट्टी हो रहा हूँ। हाथों, पैरों और आँखों से मिल कर हाथ, पैर और आँखें हो रहा हूँ। मैं सब कुछ हो रहा हूँ। मैं सब कुछ कर रहा हूँ और कुछ भी नहीं कर रहा। यह सब कुछ हो रहा है। मैं भी साथ साथ हो रहा हूँ। मिट्टी हो रहा हूँ। पानी से मिल कर गूथा जा रहा हूँ। फिर मैं नैन नक्श बन रहा हूँ। फिर हवा में रह कर सूख रहा हूँ। फिर आग में पक रहा हूँ। फिर खूसूरत रंग हो रहा हूँ। फिर टूटना शुरू हो गया हूँ। फिर मिट्टी हो गया हूँ। यह है मेरा सफर। सारी यात्रा। सारा चक्कर। मैं मिट्टी में हूँ। मिट्टी मुझ में है। रंग बदल कर फिर मैं फिर मिट्टी, फिर मैं फिर मिट्टी। फिर मैं फिर मिट्टी।
सागर की खामोशी, मौन एवं निस्तब्धता का सहज अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। सागर के इस मौन के साक्षी हैं सूर्यदेव एवं अनन्त आकाश। परन्तु सागर के इस मौन, इस गाम्भीर्य को तोड़ने का साहस भला कौन रखता है। कितनी ही चंचल नदियां, इतराते-बलखाते नदी एवं नाले इस के अस्तित्व में समा चुके हैं। परन्तु फिर भी यह सब मिल कर भी जलनिधी की निश्चलता को भंग नहीं कर पाये हैं।
मैं अपने अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ कि श्री सारथी जी जब लिखते हैं तो मात्र एक ही बार, बोलते हैं तो मात्र एक ही बार। यह उन के मानसिक मौन का वृहद प्रभाव था। चर्म दृष्टि अथवा वाह्य दृष्टि से देखने पर लगता कि वे बहुत व्यस्त है। हर चीज़, हर कार्य में रुचि ले रहे है। परन्तु कई बार बहुत ही निराश होना पड़ता कि अत्यन्त महत्व की बात भी उन के लिए रुचिकर नहीं। शरीर अस्वस्थ होता तो मृत्यु के किनारे चले जाते परन्तु उस अवस्था में भी अव्यक्त को व्यक्त करते चले जाते। वे एक ऐसे मौन साधक थे जो अपनी वाणी, अपनी लेखनी एवं अपनी तूलिका द्वारा सूक्ष्म को स्थूल एवं अज्ञात को ज्ञात करते चले जाते। कई बार बहुत निराश होना पड़ता कि अत्यन्त महत्व की बात भी उन के लिए रुचिकर नहीं। कई बार जब कोई अपनी बहादुरी के किस्से उन्हें सुना रहा होता तो लगता वे इन किस्सों में पूरी रुचि, पूरा आनन्द ले रहे हैं। परन्तु झट ही यह रहस्य खुल जाता कि वे मात्र रुचि लेते हुए दिखाई दे रहे हैं। कभी जब सृजन को जी चाहता तो किसी भी कलात्मक चित्र को सफेद रंग के द्वारा प्रभावशून्य बना देते और फिर उन की तूलिका यूँ चलने लगती मानो सफेद कनवास पर तस्बीर पहले से ही बन चुकी है और सारथी जी मात्र उस पर अपनी तूलिका घुमा रहे हैं। शून्य में से आकार उभरता और कुछ नहीं में से सब कुछ प्रकट होता चला जाता। स्मरण होने लगती बाईबल की उक्ति- God created everything out of nothing. एक अदभुत कलाकृति के उभर आने से मन हर्षित होने लगता परन्तु एक कलाकृति के नष्ट हो जाने का दुख भी कम न होता। लगता सारथी जी ने अपनी बेपरबाही के कारण एक बहुमूल्य कृति को गवा दिया। परन्तु उनके लिए तो यह सब खेल होता। खेल को न समझने वाले के लिए बनना-बिगड़ना बड़े महत्व का है। तभी लोग बनने पर खुशी प्रकट करते हैं और बिगडने का मातम मनाते हैं। परन्तु रचनाकार लीला धारी की तरह निरपेक्ष भाव से तमाशा करता जाता है, तमाशा देखता जाता है। रणखेत्तर उपन्यास में सारथी जी इसी भाव को प्रकट करते हैं। पढ़ कर लगता है वे स्वयं को नकार रहे हैं। स्वयं को निरर्थक घोषित कर रहे हैं। परन्तु गहनता से जुड़ने पर समझ आता कि वे सृजनात्मक्ता के मूल सिद्धांत का खुलासा कर रहे हैं। वे लिखते हैं- मैं तो मूर्तियां बनाते हुए महसूस करता हूँ कि खेल रहा हूँ। तमाशा करते हुए तमाशे के साथ मिल कर तमाशा हो रहा हूँ। मिट्टी से मिल कर मिट्टी हो रहा हूँ। हाथों, पैरों और आँखों से मिल कर हाथ, पैर और आँखें हो रहा हूँ। मैं सब कुछ हो रहा हूँ। मैं सब कुछ कर रहा हूँ और कुछ भी नहीं कर रहा। यह सब कुछ हो रहा है। मैं भी साथ साथ हो रहा हूँ। मिट्टी हो रहा हूँ। पानी से मिल कर गूथा जा रहा हूँ। फिर मैं नैन नक्श बन रहा हूँ। फिर हवा में रह कर सूख रहा हूँ। फिर आग में पक रहा हूँ। फिर खूसूरत रंग हो रहा हूँ। फिर टूटना शुरू हो गया हूँ। फिर मिट्टी हो गया हूँ। यह है मेरा सफर। सारी यात्रा। सारा चक्कर। मैं मिट्टी में हूँ। मिट्टी मुझ में है। रंग बदल कर फिर मैं फिर मिट्टी, फिर मैं फिर मिट्टी। फिर मैं फिर मिट्टी।
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