सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 13 March 2019

सागर की कहानी (60)

सागर की कहानी (60) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
अपनी साधना यात्रा का विवरण प्रस्तुत करते हुए सारथी जी आगे लिखते हैं - एक बार मुझे साहित्यिक पुरस्कार मिला तो वे (परमपूज्य रमानन्द जी) तनिक भी दुखी नहीं हुए। कहते चले गए –राख़ के साथ राख़ और पत्थरों के साथ पत्थर जोड़ने का ढंग तुम्हें आ गया है, परंतु ध्यान नहीं आया। इतनी मेहनत यदि ध्यान में करते तो असंख्य पुरस्कार तुम्हारे आगे पीछे चक्र काटते। उनके कथन पर मुझे पश्चाताप भी हुआ। इसका कारण था उनका आना और कुछ देर रहकर जाने का कार्यक्रम। उन्हें मात्र दो ढाई महीने ही रहना था। पहले जब वे आये थे तो मैं पश्चाताप में झुलसा था और निश्चय किया था कि अब एक पल भी व्यर्थ नहीं गवाऊंगा। अब के आये हुए उन्हें एक सप्ताह तो हो ही गया था और मैं उन्हें अपनी बहादुरी और सफलता के कारनामे सुना रहा था। टीचर सभी कुछ नहीं सुनते थे परंतु लगता था कि वे ध्यान मग्न, दत्त चित्त हो कर सुन रहे हैं । मुझे खेद हुआ कि इस तुच्छ उपलब्धि का विवरण उन्हें क्यों सुनाया और उन्हें दुःखी किया।
मुझे तत्काल यह निश्चय करना था कि अब पूरा ही ध्यान यदि न दिया गया तो फिर मुझे प्रायश्चित करना ही होगा। उधर डोगरी भाषा के एक वरिष्ठ साहित्यकार मुझे निरंतर पूछते कि आपने लिखा क्या। चित्रकला के टीचर भी प्रश्न करते - क्या बनाया है? यह दोनों बातें मैं टीचर से कहना नहीं चाहता था। मुझे लगता था इस बात का हल मेरे ही पास कहीं है और मुझे शीघ्र मिलने वाला है। मुझे एक विधि सूझी जो थी तो संदेहजनक परन्तु शायद उसके अतिरिक्त चारा कोई नहीं था। वह यह कि ऐसा अभ्यास किया जाये कि सभी कुछ करते हुए चिंतन की स्थिति को पैदा किया जाये। टीचर लगातार कह रहे थे कि चिंतन- मनन का स्थान शून्य का स्थान है । जब तक दिल दिमाग खाली नहीं होते कुछ भी प्राप्त करना संभव नहीं है। जब तक होते हुए भी कुछ नहीं हो, करते हुए भी कुछ न किया जाये, तब तक तो एक शुरुआत भी नहीं समझनी चाहिए। निरंतर अभ्यास करने लगा कि ऐसी स्थित बन जाये कि मैं कार्य भी करता जाऊं और ध्यान में भी रहूँ। शुरू शुरू में तो यह एक असंभव बात जान पड़ी। परंतु शीघ्र ही यह होने लगा कि स्वयं प्रभु ही कार्य लगे करने का आदेश देने लगे हैं । मैंने यह बात टीचर को बताई तो वे हंसे, तुम्हारी अपनी धारणा है। यह तुम्हें काफी दृढ़ कर सकती है। तुम्हारी यह धारणा तुम्हें कई उत्तरों के रूप में प्राप्त हो सकती है।
सारथी जी के शिष्य जब उन का अभिवादन करते तो वे ‘राम भला करें’ कह कर उन्हें आशीष देते। एक बात जो वे अक्सर कहा करते वो थी ‘श्री राम भजो दुख में सुख में’ और कभी यदि उन के उपन्यासों तथा कहानियों का उन से ज़िक्र करते तो वे कहते - यह सीधा हुक्म मुझ पर श्री राम ने लागू किया है। बीच में कोई नहीं है। वे कहते हैं लिखो तो मैं लिखता हूँ। फिर जब श्री सारथी जी लिखते तो उस में झलक श्री राम की होती है। वलिदान की, शोधन की होती ।

...... क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध

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