सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Sunday, 10 March 2019

सागर की कहानी (58)

सागर की कहानी (58) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास।कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
श्री सारथी जी की अराधना साधना का स्थान समता-समानता तथा अक्रोध में देखा जा सकता। कभी जब वे समता-समानता के बारे में कहने लगते तो कहते ही चले जाते – ‘समता के केन्द्र में पहुँचने तक मानव को अपने ही शरीर से अलग होना पड़ता है। परन्तु वह एक प्रवाहित उर्जा जो सारे जगत को गति प्रदान करती है, जिस के द्वारा ही जगत का विकास संभव है, उसी उर्जा में परम की उपस्थिति और उर्जा को परम कृपा जानना यही समता है। किसी भी जीव, वस्तु, किसी भी आकार का कोई अस्तित्व मुझ से बाहिर नहीं है और न कुछ मुझ से हट कर है। जो कुछ हो रहा है वह मेरे ही भीतर, मेरे ही अन्तस में हो रहा है।‘
कभी जब वे गंगू (उन के तोते का नाम) को पुचकार रहे होते तो लगता वे अपने किसी प्रियजन को लाड़ लड़ा रहे हैं। कभी किसी बीमार श्वान की मरहम पट्टी कर रहे होते तो वही श्रद्धा एवं तन्मयता देखने को मिलती जो कोई अपने आत्मीय के प्रति रखता है। उन के लिए किसी जीव-जन्तु, पशु-पक्षी अथवा मानव में कोई भेद न था। किसी गोगी अथवा मोती (उन के संपर्क में आने वाली हर बिल्ली को वे गोगी की और हर श्वान को मोती की ही संज्ञा देते) को दुलारते तो अक्सर कहते- ‘मैं इस से उतना ही प्रेम करता हूँ, जितना आप सब से’। उन की यह बात किसी को भी हैरत में डाल देती परंतु जब आशय स्पष्ट होता तो समझने वाला रोमांचित हुए बिना न रहता।
गीता भवन, जम्मू के बड़े हालनुमा कमरे में सारथी जी द्वारा संस्कार भारती के लिए कुछ चित्र बनाए जा रहे हैं। इन में से कुछ चित्र गीता भवन के परिसर को ही अलंकृत करेंगे। कुछ चित्र बन चुके हैं और कुछ बन रहे हैं। एक चित्र में प्रेम मुग्ध शबरी श्री राम को बेर खिला रही है, एक अन्य चित्र में सुदर्शन चक्रधारी श्री कृष्ण की अनामिका उंगली पर सुदर्शन चक्र घूम रहा है । निर्माणाधीन एक चित्र में बाल कृष्ण का माधुर्य साकार हो रहा है। चित्र का अंतिम परिष्करण हो रहा है और सारथी जी उसी बड़े से चित्र पर ही बैठ कर उसे अंतिम स्वरूप प्रदान कर रहे हैं। ज्योति जी, अजय जी, सीमा जी एवं भूरिया जी के साथ मैं भी यह सब मंत्रमुग्ध सा देख रहा हूँ। तभी भूरिया जी कह उठते हैं- ‘मान्यवर, आप तो भगवान कृष्ण पर ही विराजमान हो गए हैं’। सारथी जी उसी तन्मयता से श्री कृष्ण क्षृंगार में डूबे रहते हैं। लगता है जैसे उन्होने भूरिया जी की टिप्पणी को अनसुना कर दिया है। परंतु अल्प विराम के उपरांत वे भूरिया जी की ओर दिव्य मुस्कान का तीर फेंकते हुए कहते हैं- ‘गुरु जी, भगवान कृष्ण पर कृष्ण जी ही विराजमान हो कर अपना चित्र बना रहे हैं’। भूरिया जी के साथ साथ सभी मुग्ध दर्शकों में इस प्रेमालाप का प्रसार हो जाता है।
समानता के बारे में उन का दृष्टिकोण जो उन्हें अपनी सम्प्रदा से मिला था और अभ्यास के द्वारा जिसे उन्होंने अपना जीवन बना लिया था बहुत स्पष्ट होता। उस परिपेक्ष्य में वे कहते- ‘जड़, अर्द्धचेतन, चेतन सारे जीव, समस्त मेरा है परन्तु मैं उन का नहीं हूँ। मैं उन में रची-बसी ऊर्जा का हूँ। मैं उन के आकार में नहीं, उन के मूल में हूँ।‘ इसीलिये अपनी सम्प्रदा के विषेश गुण निर्गुण उपासना के अनुसार वे अक्सर कहा करते – ‘मेरा मस्तिष्क कोरे घड़े की भान्ति खाली है’। उन की यह बात भ्रम में डाल देती, समझ में नहीं आता कि क्या कहने वाले हैं। परन्तु कभी जब बात खुलती तो सारा रहस्य समझ में आ जाता। समझ में आ जाता कि वे कह रहे हैं मुझे अपने विचारों, भावों, कल्पनायों पर पूरा अधिकार है। मैं जब चाहूं उन्हें बुला सकता हूँ और जब चाहूं उन्हें विदा कर सकता हूँ। तथा यह कि मुझे पता चल चुका है कि विचार शून्यता ही विचार समाधी की सब से बड़ी उपलब्धि है। विचारातीत, भावातीत होना इसी स्थिति का उपलब्ध होना है कि एक साधक मानसिक तौर पर मात्र शून्य में रहे।‘
श्री सारथी जी कहा करते- घटनायें तो घटती रहती हैं परन्तु यदि घटना और आप पृथक वास्तविक्तायें हैं तो घटना की प्रतिध्विन अथवा प्रतिक्रिया होगी। और यदि घटना भी आप हैं और घट भी आप हैं और जिस पर प्रभाव होना है वह भी आप स्वयं ही हैं तो यह तीनों प्रतिक्रियायें मात्र शक्ति की अथवा उर्जा की होंगी। उन के विचार में- हर कण, हर वस्तु, हर पदार्थ यह सब एक दूसरे से बुरी तरह जुड़े हुये हैं। मैं इन से और यह मुझ से विलग नहीं किये जा सकते। एक मेंढ़क का, एक सर्प का तथा एक हाथी का मुझ से अन्तर मात्र शरीर का अन्तर है। अज्ञान के अन्धेरे में यह अन्तर स्पष्ट और बहुत बड़ा दिखाई देता है परन्तु जैसे-जैसे आदमी ज्ञान की रोशनी में पहुँचता है यह अंतर बिल्कुल समाप्त हो जाता है। इसलिये वे पशुओं की उतनी ही सेवा चिकित्सा करते जितनी माता-पिता की कोई कर सकता है।
........क्रमशः .............कपिल अनिरुद्ध

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