सागर की कहानी (61) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।
एक बात जो दीक्षित करते हुए सारथी जी बताया करते वह है लेना रह जाये परन्तु देना शेष न रहे। समझाते हुए वे कहते – लेन - देन के संस्कारों के कारण ही तो हमें यह जन्म मिला है इसिलिये यदि जीते जी मुक्ति के आनन्द का अनुभव करना चाहते हो तो देते चले जाओ। इसी संदर्भ में वे सन्त कबीर का यह दोहा सुनाया करते।
देह धरे का गुण यही देय देय बस देय।
देह जब यह जाएगी कोई न कहेगा देय।
सागर ने मात्र देना सीखा है। मेघों को जल, धरा को वर्षा, नदियों का नीर सागर ही तो देता है।
श्री सारथी जी क्षण-क्षण न केवल नेई चेतना का दान जिज्ञासुओं को देते बल्कि उन का प्रत्येक क्षण दूसरों को देने की प्रेरणा भी देता। उन की ग़ज़ल का यह शेअर देने के भाव की ही पुष्टि करता है।
सभी के आसुओं को पी के लोगो।
मैं क़तरे से समन्दर हो रहा था।
वे कहा करते-सन्त, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक जहां यह सब खड़े हैं, जिस घर में, जिस स्थान पर, जिस मकान में खड़े हैं वह मकान अथवा सामान गली से जुड़ा है, गली बाज़ार से जुड़ी है। बाज़ार शहर से जुड़ा है। शहर पूरे देश से जुड़ा है। राष्ट्र् विश्व से और विश्व पृथ्वि से जुड़ा है। पृथ्वि ब्रह्माण्ड से जुड़ी है तो गौण अथवा मुखर रूप से सभी लोग ब्रह्माण्ड से जुड़े हैं। स्वयं को विशालता, समग्रता देते हुए, विशाल स्थापित करते हुए हर मानव यदि अपनी खोज करे तो यह विश्व एक पुण्यधाम, एक शांतिधाम और प्रभु के धाम जैसा हो जायेगा।
श्री सारथी जी कहा करते- साधना कहा जाता है निज के लिए हैं परन्तु इस का प्रभाव वातावरण पर, परिस्थितयों तथा आम लोगों पर बहुत होता है इसलिये साधना स्वान्त सुखाय न रह कर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो जाती है। यह पूछे जाने पर कि दीक्षा का वास्तविक अधिकारी कौन है, वे कहते - पूज्यपाद रामानंद जी के अनुसार दीक्षा तो कोई भी ले सकता है परन्तु जो गृहस्थ में न हो वह अधिक श्रद्धा एवं निष्ठा से गुरु, समाज और राष्ट्र की सेवा कर सकता है।
श्री सारथी जी एक साहित्यकार एवं कलाविद् होने के साथ-साथ अपने सामाजिक सरोंकारों को भी सर्वोपरि समझते थे। सामाजिक बिडम्बनाओं के प्रति संवेदनशील सारथी जी दूसरों को भी सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग हो कर कार्य करने की प्रेरणा देते। वे कहा करते - समाज अनुदान पर आधारित है। समाज को सदैव हर व्यक्ति से अनुदान चाहिए तभी इस का मूल ढ़ाचा खड़ा रह सकता है। उन के शब्दों को चाहे वह किसी भी रुप में लिखे गए हों अर्थ यही निकलता है कि समाज से माँगो नहीं समाज को देते चले जाओ। अब एक आदमी साधक बन कर समाज को जो कुछ दे सकता है वह बहुत बड़ा वैज्ञानिक और कलाकार बन कर कदापि नहीं दे सकता। हर व्यक्ति जो कि शांतिमय, सुखमय, पीड़ारहित, अभावरहित समाज में रहने का इच्छुक हो वह वैज्ञानिक बाद में बने, इतिहासकार बाद में बने, खगोलशास्त्री, भूगोलविशेषज्ञ बाद में बने पहले वह समर्पण के लिए साधना करे और यह जान जाये कि समर्पण का अर्थ जीवित ही जगत और जगत के कर्ता के लिए मर जाना है अथवा स्वयं को मृत घोषित कर देना है। यह संभव कभी नहीं हो सकता कि आदमी स्वयं भी जीवित रहे और समाज के मूल्यों को भी जीवित रख सके।
देह धरे का गुण यही देय देय बस देय।
देह जब यह जाएगी कोई न कहेगा देय।
सागर ने मात्र देना सीखा है। मेघों को जल, धरा को वर्षा, नदियों का नीर सागर ही तो देता है।
श्री सारथी जी क्षण-क्षण न केवल नेई चेतना का दान जिज्ञासुओं को देते बल्कि उन का प्रत्येक क्षण दूसरों को देने की प्रेरणा भी देता। उन की ग़ज़ल का यह शेअर देने के भाव की ही पुष्टि करता है।
सभी के आसुओं को पी के लोगो।
मैं क़तरे से समन्दर हो रहा था।
वे कहा करते-सन्त, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक जहां यह सब खड़े हैं, जिस घर में, जिस स्थान पर, जिस मकान में खड़े हैं वह मकान अथवा सामान गली से जुड़ा है, गली बाज़ार से जुड़ी है। बाज़ार शहर से जुड़ा है। शहर पूरे देश से जुड़ा है। राष्ट्र् विश्व से और विश्व पृथ्वि से जुड़ा है। पृथ्वि ब्रह्माण्ड से जुड़ी है तो गौण अथवा मुखर रूप से सभी लोग ब्रह्माण्ड से जुड़े हैं। स्वयं को विशालता, समग्रता देते हुए, विशाल स्थापित करते हुए हर मानव यदि अपनी खोज करे तो यह विश्व एक पुण्यधाम, एक शांतिधाम और प्रभु के धाम जैसा हो जायेगा।
श्री सारथी जी कहा करते- साधना कहा जाता है निज के लिए हैं परन्तु इस का प्रभाव वातावरण पर, परिस्थितयों तथा आम लोगों पर बहुत होता है इसलिये साधना स्वान्त सुखाय न रह कर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो जाती है। यह पूछे जाने पर कि दीक्षा का वास्तविक अधिकारी कौन है, वे कहते - पूज्यपाद रामानंद जी के अनुसार दीक्षा तो कोई भी ले सकता है परन्तु जो गृहस्थ में न हो वह अधिक श्रद्धा एवं निष्ठा से गुरु, समाज और राष्ट्र की सेवा कर सकता है।
श्री सारथी जी एक साहित्यकार एवं कलाविद् होने के साथ-साथ अपने सामाजिक सरोंकारों को भी सर्वोपरि समझते थे। सामाजिक बिडम्बनाओं के प्रति संवेदनशील सारथी जी दूसरों को भी सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग हो कर कार्य करने की प्रेरणा देते। वे कहा करते - समाज अनुदान पर आधारित है। समाज को सदैव हर व्यक्ति से अनुदान चाहिए तभी इस का मूल ढ़ाचा खड़ा रह सकता है। उन के शब्दों को चाहे वह किसी भी रुप में लिखे गए हों अर्थ यही निकलता है कि समाज से माँगो नहीं समाज को देते चले जाओ। अब एक आदमी साधक बन कर समाज को जो कुछ दे सकता है वह बहुत बड़ा वैज्ञानिक और कलाकार बन कर कदापि नहीं दे सकता। हर व्यक्ति जो कि शांतिमय, सुखमय, पीड़ारहित, अभावरहित समाज में रहने का इच्छुक हो वह वैज्ञानिक बाद में बने, इतिहासकार बाद में बने, खगोलशास्त्री, भूगोलविशेषज्ञ बाद में बने पहले वह समर्पण के लिए साधना करे और यह जान जाये कि समर्पण का अर्थ जीवित ही जगत और जगत के कर्ता के लिए मर जाना है अथवा स्वयं को मृत घोषित कर देना है। यह संभव कभी नहीं हो सकता कि आदमी स्वयं भी जीवित रहे और समाज के मूल्यों को भी जीवित रख सके।
...... क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध
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