सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (25)
साहित्यकार नीर क्षीर करने वाला होता है। उस की सूक्ष्म दृष्टि झूठ और सच को अलग अलग खेमों में खड़ा देखती है। प्रेम, सहानुभूति, संवेदना तथा श्रद्धा को पूर्ण रूपेण जानने हेतु ईर्ष्या, क्रोध, क्रूरता तथा अज्ञानता को समझना बेहद ज़रूरी है या यूँ कहें कि झूठ क्या है जान लेने वाला सच क्या है जान ही जाता है। सारथी जी हमें झूठ से परिचित करवा सच की ओर ले जाते रहे। अपने एक शेअर में वे लिखते हैं-
शौर है बस्ती से अब साये उठाये जायेंगे।
रोशनी होगी कि जिस से घर जलाये जायेंगे।
साहित्यकार नीर क्षीर करने वाला होता है। उस की सूक्ष्म दृष्टि झूठ और सच को अलग अलग खेमों में खड़ा देखती है। प्रेम, सहानुभूति, संवेदना तथा श्रद्धा को पूर्ण रूपेण जानने हेतु ईर्ष्या, क्रोध, क्रूरता तथा अज्ञानता को समझना बेहद ज़रूरी है या यूँ कहें कि झूठ क्या है जान लेने वाला सच क्या है जान ही जाता है। सारथी जी हमें झूठ से परिचित करवा सच की ओर ले जाते रहे। अपने एक शेअर में वे लिखते हैं-
शौर है बस्ती से अब साये उठाये जायेंगे।
रोशनी होगी कि जिस से घर जलाये जायेंगे।
अपनी रचनाओं में सारथी जी नैतिक अवमूल्यन के जिस दर्द को स्वर्य अनुभव करते हैं वही दर्द वे पाठक में भी जगाना चाहते हैं। साहित्यकार मानवीय मूल्यों का आईना तो समाज को दिखाता है परन्तु वह किसी उपदेशक या प्रचारक की भान्ति नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ाता बल्कि वह नैति अवमूल्यन तथा विघटन के कारणों की ओर संकेत मात्र करता जाता है। वह विकृति क्यों है यह तो बताता है परन्तु विकृति के निदान का मार्ग नहीं सुझाता। वह चाहता है मार्ग पाठक स्वयं खोजे।
सारथी जी जिन नैतिक मूल्यों की बात अपनी रचनाओं में करते रहे उन मूल्यों को वे अपनाये हुए थे। उन के लिए नैतिक मूल्य मात्र आदर्शात्मक नहीं थे बल्कि मूल्य केवल इसलिए ही जीवन और नैतिक मूल्य थे क्योंकि इन्हें जीवन में उतारा जा सकता है। वे अपनी रचनओं में कहीं लुप्त हो चले पुराने मूल्यों को पुणः स्थापित करने की बात करते है तो कहीं गौरवमय अतीत और संस्कृति शून्य वर्तमान में तुलना करते भी दीख पड़ते हैं। इस शेअर में वे हम क्या थे क्या हो गये यह बताते दृष्टिगोचर होते हैं-
सारथी जी जिन नैतिक मूल्यों की बात अपनी रचनाओं में करते रहे उन मूल्यों को वे अपनाये हुए थे। उन के लिए नैतिक मूल्य मात्र आदर्शात्मक नहीं थे बल्कि मूल्य केवल इसलिए ही जीवन और नैतिक मूल्य थे क्योंकि इन्हें जीवन में उतारा जा सकता है। वे अपनी रचनओं में कहीं लुप्त हो चले पुराने मूल्यों को पुणः स्थापित करने की बात करते है तो कहीं गौरवमय अतीत और संस्कृति शून्य वर्तमान में तुलना करते भी दीख पड़ते हैं। इस शेअर में वे हम क्या थे क्या हो गये यह बताते दृष्टिगोचर होते हैं-
नक्ष थे कितने जुनू के सब पुराने हो गए।
शौक वालों के तो मकतल में ठिकाने हो गए।
शौक वालों के तो मकतल में ठिकाने हो गए।
क्हीं वे भयावह यर्थाथ की बौखलाहट पाठक में भर उसे चिन्तन करने को विविश करते हैं तो कहीं कुछ मूल्यों में जड़ता आ जाने के कारण वे उन्हें छोड़ देने की दुहाई भी देते हें और फिर आवश्यकता पड़ने पर वे नये मूल्य भी गढ़ते है।
सारथी जी की नाराज़गी, खींज एवं क्रोध में भी संवेदना एवं करुणा छिपी रहती जिस के दर्शन यदा कदा होते ही रहते। कईं बार विषाद से प्रकुपित और शौकातुर हो वे कहते- कईं एक क्षेत्रों की भान्ति खण्ड़ काव्य की स्पर्धा में भी जम्मू की धरती पीछे छूट गयी है। बहुत कम लोग हृदय, भाव, कल्पना और सौन्दर्य को लय-ताल बद्ध करने में सम्थर्य हैं। जिन को प्रभु ने यह साम्थर्य दी भी है उन से जो कुछ भी लिखा जाता है उसे वह अपनी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति कह कर लोगों में धकेल देते हैं। और जिन्हें न काव्य का, न अतीत का, न वर्तमान का, न अपना और न लय-ताल का ज्ञान है, वे काव्य का परचम ले कर घूम रहे हैं। वे कहते काव्य की एक अति कठिन विधा को फुटपाथी बना दिया गया है। उन का संकेत शायद ग़ज़ल की ओर होता। एक दिन कहने लगे- मैंने किसी भाषा के स्वयंभू महाकवि से कहा कि वह जिस कवि से अत्याधिक प्रभावित है, उस के चार शेअर सुना दे। तो महाकवि ने उतर दिया- मैं स्वयं से तथा अपने अंहकार से प्रभावित हूँ।
वे कहते- जम्मू की धरती को क्योंकि लयताल और सुर से कोई सरोकार नहीं है इसीलिए मन्दिरों की इस धरती पर गत चार-पाँच दशकों से कोई शास्त्रीय संगीतकार रोशनी में नहीं आया तथा न ही कोई साधक-आराधक जिस ने भजनों द्वारा अर्थात काव्य द्वारा कोई उपलब्धि की हो, दृष्टिगोचर हुआ है। फिर कहते यही कारण है कि जम्मू की धरती को अब मेरी आवश्यकता नहीं।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध
वे कहते- जम्मू की धरती को क्योंकि लयताल और सुर से कोई सरोकार नहीं है इसीलिए मन्दिरों की इस धरती पर गत चार-पाँच दशकों से कोई शास्त्रीय संगीतकार रोशनी में नहीं आया तथा न ही कोई साधक-आराधक जिस ने भजनों द्वारा अर्थात काव्य द्वारा कोई उपलब्धि की हो, दृष्टिगोचर हुआ है। फिर कहते यही कारण है कि जम्मू की धरती को अब मेरी आवश्यकता नहीं।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध