सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Sunday, 24 September 2017

सागर की कहानी (25)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (25)
साहित्यकार नीर क्षीर करने वाला होता है। उस की सूक्ष्म दृष्टि झूठ और सच को अलग अलग खेमों में खड़ा देखती है। प्रेम, सहानुभूति, संवेदना तथा श्रद्धा को पूर्ण रूपेण जानने हेतु ईर्ष्या, क्रोध, क्रूरता तथा अज्ञानता को समझना बेहद ज़रूरी है या यूँ कहें कि झूठ क्या है जान लेने वाला सच क्या है जान ही जाता है। सारथी जी हमें झूठ से परिचित करवा सच की ओर ले जाते रहे। अपने एक शेअर में वे लिखते हैं-
शौर है बस्ती से अब साये उठाये जायेंगे।
रोशनी होगी कि जिस से घर जलाये जायेंगे।
अपनी रचनाओं में सारथी जी नैतिक अवमूल्यन के जिस दर्द को स्वर्य अनुभव करते हैं वही दर्द वे पाठक में भी जगाना चाहते हैं। साहित्यकार मानवीय मूल्यों का आईना तो समाज को दिखाता है परन्तु वह किसी उपदेशक या प्रचारक की भान्ति नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ाता बल्कि वह नैति अवमूल्यन तथा विघटन के कारणों की ओर संकेत मात्र करता जाता है। वह विकृति क्यों है यह तो बताता है परन्तु विकृति के निदान का मार्ग नहीं सुझाता। वह चाहता है मार्ग पाठक स्वयं खोजे।
सारथी जी जिन नैतिक मूल्यों की बात अपनी रचनाओं में करते रहे उन मूल्यों को वे अपनाये हुए थे। उन के लिए नैतिक मूल्य मात्र आदर्शात्मक नहीं थे बल्कि मूल्य केवल इसलिए ही जीवन और नैतिक मूल्य थे क्योंकि इन्हें जीवन में उतारा जा सकता है। वे अपनी रचनओं में कहीं लुप्त हो चले पुराने मूल्यों को पुणः स्थापित करने की बात करते है तो कहीं गौरवमय अतीत और संस्कृति शून्य वर्तमान में तुलना करते भी दीख पड़ते हैं। इस शेअर में वे हम क्या थे क्या हो गये यह बताते दृष्टिगोचर होते हैं-
नक्ष थे कितने जुनू के सब पुराने हो गए।
शौक वालों के तो मकतल में ठिकाने हो गए।
क्हीं वे भयावह यर्थाथ की बौखलाहट पाठक में भर उसे चिन्तन करने को विविश करते हैं तो कहीं कुछ मूल्यों में जड़ता आ जाने के कारण वे उन्हें छोड़ देने की दुहाई भी देते हें और फिर आवश्यकता पड़ने पर वे नये मूल्य भी गढ़ते है।
सारथी जी की नाराज़गी, खींज एवं क्रोध में भी संवेदना एवं करुणा छिपी रहती जिस के दर्शन यदा कदा होते ही रहते। कईं बार विषाद से प्रकुपित और शौकातुर हो वे कहते- कईं एक क्षेत्रों की भान्ति खण्ड़ काव्य की स्पर्धा में भी जम्मू की धरती पीछे छूट गयी है। बहुत कम लोग हृदय, भाव, कल्पना और सौन्दर्य को लय-ताल बद्ध करने में सम्थर्य हैं। जिन को प्रभु ने यह साम्थर्य दी भी है उन से जो कुछ भी लिखा जाता है उसे वह अपनी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति कह कर लोगों में धकेल देते हैं। और जिन्हें न काव्य का, न अतीत का, न वर्तमान का, न अपना और न लय-ताल का ज्ञान है, वे काव्य का परचम ले कर घूम रहे हैं। वे कहते काव्य की एक अति कठिन विधा को फुटपाथी बना दिया गया है। उन का संकेत शायद ग़ज़ल की ओर होता। एक दिन कहने लगे- मैंने किसी भाषा के स्वयंभू महाकवि से कहा कि वह जिस कवि से अत्याधिक प्रभावित है, उस के चार शेअर सुना दे। तो महाकवि ने उतर दिया- मैं स्वयं से तथा अपने अंहकार से प्रभावित हूँ।
वे कहते- जम्मू की धरती को क्योंकि लयताल और सुर से कोई सरोकार नहीं है इसीलिए मन्दिरों की इस धरती पर गत चार-पाँच दशकों से कोई शास्त्रीय संगीतकार रोशनी में नहीं आया तथा न ही कोई साधक-आराधक जिस ने भजनों द्वारा अर्थात काव्य द्वारा कोई उपलब्धि की हो, दृष्टिगोचर हुआ है। फिर कहते यही कारण है कि जम्मू की धरती को अब मेरी आवश्यकता नहीं।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध

Monday, 18 September 2017

सागर की कहानी (24)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (24)
सागर में जन्म देने, पालन करने तथा संहार करने की शक्तियाँ निहित होती हैं। जहां एक तरफ सागर कईं जीव-जन्तुओं, जड़ी-बूटियों का जन्म दाता है वहीं सागर ज्वार भाटा की स्थिति में संहारक की भूमिका निभाता भी नज़र आता है। नवनिर्माण के लिए संहार आवश्यक है। सड़ी- गली रुढ़ियों का विनाश ही नई आस्थओं एवं परम्पराओं को जन्म देता है। इस संबंध में सुमित्रा नन्दन पंत की यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :-
द्रुत झरो जगत् के जीर्ण पत्र!
हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!
श्री सारथी जी जहां एक तरफ उत्कृष्ट रचनाकार थे, जिज्ञासुओं के मार्गदर्शक एवं प्रेरणा स्त्रोत थे वहीं अनैतिकता, मूल्यहीनता एवं संस्कार शून्यता के विरुद्ध एक संहारक की भूमिका निभाते भी नज़र आते। श्री सारथी जी की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में श्री आरo केo भारती जी कहते हैं - मैं अदबीकुंज की साप्ताहिक गोष्ठी में एक व्यंग्य लेख ले कर आया। यह लेख ऊर्दू दैनिक हिन्द समाचार में प्रकाशित हुआ था। मैंने उस लेख में उन आधुनिक नारियों की बात की थी जो कार में अपने कुत्तों को गोदी में बिठा कर घूमती हैं। उस लेख में कुछ एक ऐसी बातें भी मैं लिख गया था जिसे एक ढंग से अश्लीलता की कोटि में रखा जा सकता है। जब मैने वही लेख श्री सारथी जी के सामने पढ़ा तो वे कुपित हो गये और कहने लगे- किस मूर्खानन्द ने तुम्हारा यह लेख समाचार पत्र में प्रकाशित कर दिया। तुम्हें तो साहित्यिक भाषा का भी ज्ञान नहीं। साहित्य तो सब का हित करने वाला, उत्थान करने वाला होता है और तुम....................मैं एक अपराधी की भान्ति मूक खड़ा सब कुछ सुनता जा रहा था। उस दिन तो शायद उन के शब्दों के मर्म को पूरी तरह न समझ पाया होऊं परन्तु आज यह महसूस कर पा रहा हूँ कि सारथी जी के मन में नैतिक्ता, मर्यादा तथा मानवीय मूल्यों के प्रति कितनी गहरी संवेदना थी।
एक साहित्यकार अपने समय का सजग पहरेदार होने के साथ-साथ समाज को नैतिक्ता का दर्पण दिखाने वाला भी होता है। आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी साहित्य में मूल्यों का समर्थन करते हुए कहते हैं-मैं साहित्य में मनुष्य की दृष्टि का पक्षपाती हूँ। जो मनुष्य को दुर्गति एवं हीनता से बचा न सके, जो उस की आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को समाज का दर्पण बताया है। सामाजिक उत्थान एवं पतन साहित्य रूपी समाज में साफ झलकता है। साहित्य समाज से और समाज साहित्य से प्रेरति होता ही रहता है। दोनों को यदि एक दूसरे का पूरक कहा जाये तो अनुचित न होगा। सारथी जी अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को नैतिकता का दर्पण दिखाते हुए व्यक्ति के खोखलेपन, उस की आडम्बर वृति तथा निरर्थक्ता पर कटाक्ष करते हैं। हर कोई दौड़ रहा हे परन्तु कोई कहीं पहुँच नहीं रहा। मुबारकवाद, शोक सभाओं तथा बेकार के प्रर्दशनों में खोया आदमी अपनी मौलिक्ता खो चुका है। प्रगति एवं उन्नति के नाम पर मानवता का वध किया जा रहा है। उन की रचनाओं में सम्पूर्ण नगर, पूरी धरा को एक सजग रचनाकार की नज़र से देखा गया है।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 14 September 2017

सागर की कहानी (23)


सागर की कहानी (23)
एक अन्य रोग की चर्चा करते हुए वे कहते - एक छोटा सा रोग है तुलना का रोग। यह जानते हुए भी कि जीवन में जो कुछ मिलना या घटित होना है वह अपने पूर्व कर्मानुसार मिलेगा। फिर भी लोग लगातार तुलना करते जाते हैं। वास्तव में आम आदमी इस लिए दुखी नहीं है कि उस की कामनायें पूरी नहीं हो रही बल्कि इसलिए दुखी है कि सामने वाले के पास जो कुछ है वह क्यों है। मेरे पास उस जैसा मकान क्यों नहीं। मेरी नौकरी उस जैसी या उस से बड़ी पदवी वाली क्यों नहीं। मेरे बच्चों को यह क्यों नहीं मिला वो सीट क्यों नहीं मिली। इस तुलना ने सम्पूर्ण मानवजाति को अपनी गिरफत में ले रखा है।
हमारा मन विशेषकर अर्द्धचेतन मन गुणों- अवगुणों, इच्छाओं, कामनाओं का भण्डार है। इस में यदि हिंसा, क्रोध, आक्रोश, इर्ष्या, तुलना इत्यादि भरे होंगे तो व्यक्ति के निरोगी होने की, स्वस्थ होने की कोई संभावना नहीं। परन्तु यदि सतोगुणी आहार विहार द्वारा मन में सतोगुण का प्रादुर्भाव हो जाए तो ऐसा मन न केवल स्वस्थ शरीर के निर्माण में सहायक होगा बलिक सम्पूर्ण वातावरण में निरोगता की तरंगें भी फैलाता चला जाएगा।
हमारा अन्तःकरण रोगी है अथवा स्वस्थ इसे परखने की विधि बताते हुए श्री सारथी जी कहते- जब शुभ संकल्प विकल्प कम हो जाये तो अन्तःकरण के रोग जन्म लेते हैं। वे कहते भीतर के रोगों की चिकित्सा हर कोई नहीं कर सकता। इस के लिए ज्ञान विज्ञान के साथ साथ क्रियात्मकता भी चाहिए। वरना आचार्य चाणक्य की यह उक्ति अनाभ्यासे विषं धर्मम अर्थात अभ्यास के बिना धर्म विष बन जाता है तो चरितार्थ होती दिखाई दे ही रही है।
बहुधा जब श्री सारथी जी शरीर अथवा मन की बात करते तो आयुर्वेद की बात सहज ही बीच में आ जाती। अपने सृजनात्मक पलों की बात करते हुए श्री विजय सेठ जी को दिये साक्षात्कार में वे कहते हैं- सुबह और रात के आखिरी पहर में लहु की रफतार, रक्त की गति बड़ी सुस्त होती है और रक्तचाप भी बड़ा कम होता है। परन्तु जब रक्त की रफतार तेज़ होती है और रक्तचाप अधिक होता है तब बहुत अधिक विचारों के आने जाने के कारण शरीर असुविधा जनक अवस्था में होता है। वे साहित्य सृजन हेतु कम रक्तचाप वाली अवस्था को उपयुक्त माना करते। उनके अनुसार इस समय नींद पूरी तरह खुली होती है पर शरीर पूरी तरह से जागृत नहीं होता। इसी संदर्भ में उच्च रक्तचाप के बारे में वे कहते हैं- बात दरअसल यह है कि विचार और कुछ नहीं हमारा रक्तचाप है, blood pressure है। विचार ही रक्तचाप को चलाता है। एक विचार आया रक्तचाप बढ़ा। दूसरा आया बढ़ा और तीसरा आया और बढ़ा.........पुत्र ने कहा फीस भरनी है, पत्नी ने कहा साड़ी चाहिए, पिता ने कहा टानिक चाहिए बस! बहार ही बहार। रक्तचाप ही रक्तचाप। वह कम तो होगा ही नहीं। वह बढ़ता चला जाएगा और एक दिन high blood pressure उच्च रक्तचाप में बदल जाएगा।
वे कहते-संशय विचार को जनम देता है। विचार तर्क को, तर्क पदार्थ को, पदार्थ रक्तचाप को। यदि सामान्य, सरल और शांत रहना चाहो तो किसलिए क्या किया इसे विस्मृति में डालने की साधना करो। कर्म होने से पूर्व और पश्चात दोनों ही उस के फल के अर्थात प्रतिक्रिया के क्षण हैं। यदि कारण मूल ही कुछ न हो तो फल तथा प्रतिक्रिया दोनों ही अस्तित्वहीन हो जाएंगे।
.......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 13 September 2017

सागर की कहानी (22)

आज गुरुदेव सारथी जी का प्रयाण दिवस है । आज से 15 वर्ष पूर्व 10 सितंबर 2002 को श्री गणेश चतुर्थी के दिन वे परमतत्व में लीन हुए थे। गुरुदेव के महाँ प्रयाण दिवस पर उन के जीवन पर आधारित उन की जीवनी के इस 22वें भाग द्वारा अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
सागर की कहानी (22)
श्री सारथी जी के अनुसार चिकित्सा का अर्थ औषधी निर्माण नहीं है बल्कि शरीर में वात-पित-कफ को व्यवस्थित करना और इन तीनों विकारों की वृतियों को समझे बिना चिकित्सा कार्य आड़म्बर है। जैसे कोई सुदृढ़ और प्रभावशाली रचना किसी कलाकार के निरन्तर चिन्तन की प्रक्रिया होती है, वैसे ही स्वास्थय निरन्तर चिन्तन का विषय है। वे कहते आदमी मात्र मेरुदण्ड है बाकी कुछ नहीं। मेरुदण्ड ही मस्तिष्क है, मानस पटल है। शरीर की सारी शक्तिायाँ इस के द्वारा ही कार्य करती है। आयुर्वेद अर्थात आयु का, मानव अवधी का ज्ञान-विज्ञान। तो उस को प्राप्त करने के लिए मानव क्या है, क्यों है, कैसे है यह जानना बहुत आवश्यक है।
श्री सारथी जी बहुधा बताया करते कि किसी वस्तु के सम्पूर्ण आयाम को देखना, क्यों, क्या कैसे के बिना असम्भव है। संसार क्या है, क्यों है, कैसे है। मानव क्या है, क्यों है, कैसे है। प्रकृति क्या है, क्यों है तथा कैसे है तथा मानव शरीर क्या है, क्यों है, कैसे है। जब तक यह न समझ लिया जाए तो संसार की कोई बात समझ नहीं आयेगी। वे ब्रह्मऋषि वाल्मीकि के इस शलोक शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम् का अर्थ समझाते हुए कहते-शरीर को जानना बहुत आवश्यक है। शरीर को जाने बिना संसार के किसी धर्म का पालन नहीं हो सकता। जब तक मानव शरीर को नहीं समझ लेता, संसार में वह कुछ भी नहीं समझ सकता क्योंकि आदमी जो कुछ भी करता है वह प्रतिक्रिया है विचारों की ओर विचार मस्तिष्क में पैदा होते हैं। और मस्तिष्क संस्कारों से पैदा होता है। और संस्कार मन के द्वारा हैं। इसलिए जब भी कोई अनुसंधान होता है चाहे वह अन्तर्मुखी हो या बहिर्मुखी हो, मन से आरम्भ होता है। मन संस्कारों का वाहन हो। इसलिए शरीर का निर्माण यदि सतोगुणी चीज़ो से होगा तो उस के मन में सतोगुणी बातों का प्रादुर्भाव होगा।
कुछेक मानसिक रोगों का विवरण देते हुए वे कहते- अगर शरीर को संतरे के छिलके की भांति माना जाए तो भीतर का गूधा अंतस चेतन कहलाएगा। छिलका भी रोगग्रस्त होता है और अन्दर का गूधा भी रोगी हो सकता है। कई बार बाहर का छिलका बिल्कुल स्वस्थ दिखाई देता है लेकिन भीतर से फल पूरी तरह सड़ा हुआ निकलता है। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि बाहर से निरोग और सुन्दर दिखने वाला शरीर भीतर से भी पूर्णरूप से स्वस्थ ही हो। अन्तःकरण के रोगों की बातें करते हुए वे कहते- हिंसा का घातक रोग दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा रहा है। यह रोग नैतिकता और हृार्दिक्ता का विनाश करता चला जा रहा है। यही कारण है आज सम्बन्धों मे विच्छेद बढ़ता जा रहा है। दूसरी तरफ अंहकार का रोग शरीर के भीतर का जल समाप्त कर देता है। अंहकार मनुष्य को सूखी लकड़ी जैसा रंगहीन और नमी से शून्य कर देता है। अंहकार व्यक्ति के शरीर की लचक को समाप्त करता ही है उस के भीतर की सहजता सरलता तथा विनम्रता को भी समाप्त कर देता है।
.......क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध

Monday, 11 September 2017

सागर की कहानी (21)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (21)
श्री सारथी जी का जीवन बहुआयामी रहा है। उन के अनुसार उन का जन्म जीवन की अज्ञात शक्तियों को खोजने के लिए उन क्षेत्रों को खोजने के लिए हुआ जिन्हें विज्ञान, योग, साधना, कला, अध्यात्म का नाम दिया है। इस में गहनता से उतरना था। मुझे भगवान ने यह देखने के लिए भेजा था कि देखो ताल क्या होता है, सुर क्या होता है। शब्द, अर्थ, रस क्या होता है। जप, तप, योग, मंत्र साधन यह सब क्या है। फिर सब से बड़ा यंत्र यह शरीर क्या है जिस के द्वारा सब कुछ है। जिस के भीतर मानव बैठा है और जो एक लम्बे अर्से तक मानव की रक्षा करता है।
श्री सारथी रुपी सागर के आगोश से उदय होने वाले और फिर उसी में अस्त हो जाने वाले एक और सूरज का नाम आयुर्वेद है। शरीर के मर्मज्ञ श्री सारथी जी को धर्म गुरू एवं अपने मामा से चिकित्सा की विद्या उपलब्ध हुई। इस में भी उन का दृष्टिकोण रचनात्मक न हो कर अनुसंधानात्मक होता। जब वे किसी रोग का विवरण देने लगते तो ज्ञात होता कि वे ब्रह्माण्ड के किसी विकार से बात कर रहे हैं। मैंने उन्हें कईं बार असाध्य रोगों को साध्य बनाते हुए देखा है। चिकित्सा के बारे में वे कहते-भगवान शरीर देते हैं, चिकित्सक प्राण देता है। भगवान और चिकित्सक मिल कर संसार चलातें हैं। एक भी कोताही करेगा तो विश्व विनष्ट हो जाएगा।
वे कहते मानव समाज का सारा दायित्व चिकित्सक पर है। वे तीन प्रकार की चिकित्सा में विश्वास रखते। शरीर की चिकित्सा, मन की चिकित्सा, तथा आत्मा की चिकित्सा। तीनों डाकटर चाहिए तीनों समर्पित चाहिए। रोग मात्र शारीरिक ही नहीं होते वे मन तथा आत्मा दोनों को ग्रस लेते हैं। अज्ञानी चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा की सेवा लिए जाने पर रोग भयंकर रुप धारण कर लेते हैं। तीनों चिकित्सक अत्यन्त अनुभवी चाहिए। विशेषकर वे जो मन और आत्मा की बिमारियों की चिकित्सा करते हैं। वे कहते -शरीर के भीतर मन है, शरीर के भीतर आत्मा है तथा शरीर के भीतर उर्जा है। इन तीनों का आपस में सामंजस्य, तीनों की संधि जीवन कहलाता है। भारत की पुण्यभूमि पर हज़ारों वर्षों से ऐसे चिकित्सक अवतरति होते रहे हैं जिन्होंने मन की चिकित्सा की, प्राणों की तथा शरीर की चिकित्सा की। वे अनुभवी होने के साथ-साथ स्वयं में अनुसंधान प्रयोगशाला थे तथा बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के मूल मंत्र का उच्चारण कर मानव का किसी भी प्रकार का दुःख दूर करने का प्रयत्न करते थे। परन्तु लौकिकता तथा पदार्थ के दुष्प्रभाव ने मानव को भोगवादी सुसंकृति के मध्य ला खड़ा कर दिया हैं। वे कहा करते आयुर्वेद युक्ता आहार-विहार के द्वारा सतोगुण आहार पर बल देता है। जिस से शरीर का निर्माण हो, शरीर विचलित न हो। किसी प्रकार की साधना के लिए शरीर का ठहराव अत्यावश्यक है। ठहरे हुए शरीर में ही मन ठहर सकता है। दूसरी ओर शरीर संयम से, दमन से ठहरता है। एकाग्रता चाहे आनन्द प्राप्ति, भगवद् प्राप्ति, किसी वस्तु की प्राप्ति अथवा ललित कला में सिद्धहस्त होने के लिए हो, इस में मन और शरीर दोनों का सहयोग अनिवार्य है। और आयुर्वेद में बहुत सारी औषधियाँ, बहुत से ऐसे रस मौजूद हैं जिन के सेवन से मन भी ठहरता है और शरीर भी। इसलिए उन के कथनानुसार शरीर का अध्ययन बहुत ज़रुरी है। हर एक आदमी को अपने शरीर का सर्म्पूण ज्ञान और आयुर्वेद का उचित ज्ञान होना अनिवार्य है।
श्री सारथी जी की बातों में आयुर्वेद का उल्लेख प्राय आ ही जाता। अपने प्रथम डोगरी उपन्यास त्रेह समुन्दर दी में व नई चिकित्सा पद्धतियों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं- ‘सब कुछ परिवर्तित हुआ है परन्तु रोग नहीं। रोग वही हैं। उन की चिकित्सा भी वैसी ही होनी चाहिए। परन्तु आश्चर्य है कि रोग व उस का मूल कारण वही पुराना है, पर औषधियाँ बदल गई हैं। औशधी बदल जाने से रोग के निवारण की विधि में परिवर्तन नहीं हेाता व न ही रोग अपना स्वभाव तथा लक्षण बदलता है’। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं- ‘शरीर में जहाँ विकार होता है, उस की चिकित्सा भी वहीं पर होती है। प्रत्येक विकार शरीर की सफाई माँगता है। शोधन माँगता है’।
........क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 6 September 2017

सागर की कहानी (20)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (20)
सागर भूमध्य रेखा की असहनीय गर्मी को झेलते हुए भी शान्त बना रहता है तभी महासागर कहलाता है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में यह सागर ठिठुरती ठण्ड़ भी झेलता है। कहीं यह रत्नाकर इतना शान्त है कि शांति की पराकाष्ठा के इस में दर्शन किए जा सकते हैं। दूसरी ओर यह आँधी और तूफानों के बीच नृत्य करता भी दिखाई देता है। समुद्र के आगोश में कहीं भीष्ण गर्जन करती लहरों का ताण्डव होता है तो कहीं मन्द गति से उठती लहरों द्वारा पैदा किया गया मधुर संगीत सुनाई देता है। परन्तु इतना सब होने पर भी हर रोज़ एक नया सूर्य सागर के आगोश से उदय होता है और शाम को उसी में समा भी जाता है।
श्री सारथी जी रुपी सागर के वक्ष पर खेलता एक नया सूर्य उन के प्रकृति प्रेम का सूर्य है। यह सूर्य उन का पौधों एवं वृक्षों से प्यार का सूरज है। वे जंगल-जंगल, घाटी-घाटी घूमे हैं। उन्होंने पौधों के चित्र बनाये हैं। छाया चित्र खींचे हैं और फिर उन का ज़िक्र यूँ किया है जैसे वह किसी विशिष्ट जाति के औरतों और मर्दों का ज़िक्र करते हैं। वे कहते - मैं ईमली का पेड़ हूँ। देखो मैं जामुन का पेड़ हूँ। मेरी ओर देखो, यह दोनों कुछ नहीं, मैं आम हूँ। फिर घरेलू पौधों का ज़िक्र तो वे घर के जीवों की भान्ति करते। एक बार घर में रखा हुआ आलू स्फुटित हो गया तो उन्होंने उसे एक गमले में लगवा दिया। पाँच-सात दिन के बाद जब वह पौधा बन गया तो कहने लगे- देखो बेटा जबान हो गया है।
पौधों की बहुत गहरी और लम्बी-चौड़ी दुनिया प्रकृति प्रेमी सारथी जी ने देखी है। पौधों से वर्षों तक बातें की हैं। लेटे हुए पौधों से, बालिश्त भर ज़मीन से उगे हुए पौधों से, रेंग कर खड़े होने की कोशिश करते हुए पौधों से। घरती की छाती फाड़ कर निकलते हुए वृक्षों से तथा ऐसे वृक्षों से बातें की हैं जो हमेशा ही आकाश की पगड़ी पहने रहते हैं और उन का मन करे तो बादलों से अपना मुँह धो लेते हैं।
श्री सारथी जी ने पोधों की morphology की है उन के द्वारा चित्रित पौधों के chromosomic characte हैरान कर देते । कभी किसी परिचित अपरिचित साथी के साथ टहलते हुए जब वे वनस्पति जगत के किसी पौधे को देखते तो उस का वैज्ञानिक नाम, देसी नाम, आयुर्वेदिक महत्व इत्यादि जानकारियाँ सहज ही उन के द्वारा सामने आने लगती और सुनने वाला आवाक सा यह सारा विवरण सुनता चला जाता। अपने एक संस्मरण में हिन्दी डोगरी के प्रख्यात साहित्यकार डा निर्मल विनोद लिखते हैं-ओ पी शर्मा सारथी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और अनेकमुखी व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे अपनी तरह के अकेले रचनाकार थे.......... 'सारथी जी चित्रकला के शैदाई थे और यह उन का पेशा भी था। मैं बाटनी का विद्यार्थी हूं और क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला में जब भी उनके पास जाता, देखता वो फूल-पत्तों और पेड़ों का कितना जीवन्त चित्रण करते थे। वे कहते यदि पौधा न हो, कार्बन न हो, कुछ भी न हो। हम लोग पौधा पहनते हैं, पौधा खाते हैं, पौधा पीते हैं और पौधे हमारी अन्तिम यात्रा में भी सहायक होते हैं।' उन के द्वारा रचित पर्यावरण गीतों में उन के पर्यावरण प्रेम और पौधों से उन के अत्याधिक लगाव के ही दर्शन होते हैं।
........क्रमशः....कपिल अनिरुद्ध

सागर की कहानी (19)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास 
सागर की कहानी (19)
मुझ पर उर्दू शायरी और अफसाना निगारी का जुनून सबार हो रहा था। ग़ालिब, फैज़् और मीर के अध्ययन ने और मुन्शी प्रेमचन्द और कृष्णचन्द्र और शरतचन्द्र के अफसानों की बेसिब ज़मीनें मुझे जम्मू में नज़र आने लगी थीं। घर पर लय-ताल, संगीत और अरूज़-पिंगल का वातावरण था।
श्री शंकर शर्मा पिपासु सूरी साहब के अनन्य भक्त तथा प्रसंशक थे। पिपासु इतने सरल, मधुर और सौन्दर्य बोध ये एकदम भरे थे कि उन से मिलते ही लगा कोई कोटि जन्मों का उन से बन्धन है। दो-चार बार मिलने पर बहुत-बहुत कवितायें सुना डालीं। और फिर कहा-बंसी लाल जी सूरी से अवश्य मिलो।
चौक चबूतरे से नीचे पक्के ड़गें की ओर चलें तो उस समय वहां पंडित वृन्दावन जी की समाचार पत्रों की दुकान थी। बाएं दुकान और दांए डॉ सहगल का दन्त चिकित्सालय। उस के साथ तंग गली। गली के भीतर चार ही कदम चल कर बाईं ओर सूरी साहब का काम-काज का चेम्बर था। साहित्यिक चेम्बर भी वही था। हम वहीं बैठे थे।
सूरी साहब मौन रहते थे परन्तु वह मौन सन्नाटा नहीं, उस खामोशी में उनके स्नेह की गरिमा होती थी। मुझे अब भी उस चुप्पी के वातावरण की कल्पना तरंगित कर देती है। ...... एक क्षण के लिए समय रूक कर सूरी साहब का गंभीर, चिन्तन की मुद्रा में डूबा चेहरा और ममत्व तथा प्यार दुलार से भरा आकार मेरे मानस पटल पर उभर आता है।
सूरी साहब से मैं सप्ताह में तीन-चार दिन अवश्य मिलने जाता। वे मेरी रचना सुनते। इतनी प्रशंसा और गुण बखान करते कि मुझे हर बार लगता, शीघ्र अति शीघ्र नई कविता, नई कहानी, नई ग़ज़ल लिखूँ और फौरन जा कर सूरी साहब को सुनाऊँ। और उन से मुझे प्रेरणा का प्रसाद मिले। सप्ताह में एक आध बार श्री पिपासु जी अथवा श्री देवरत्न शास्त्री जी के दर्शन हो जाते। वे भी सूरी साहिब की हाजिरी में आते थे।
........क्रमशः....कपिल अनिरुद्ध

Saturday, 2 September 2017

सागर की कहान((18)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहान((18)
सारथी जी ने शब्दों, सुरों एवं रंगों के माध्यम से इसी धरा को गौरवान्वित किया है। इसी धरती का शृंगार, इस का ही गौरव गान किया है। अपने एक गीत में वे लिखते हैं।
आओ मिल कर करें वंदना
धरती माँ की करें अर्चना
सर्व प्रफुल्लित धरती माँ हो
सदा सुरक्षित धरती माँ हो
पुत्र सभी नयौछाबर माँ पर
सब से ऊंची यही साधना
उन का राष्ट्र प्रेम किसी इश्तिहारबाजी या नारेबाजी द्वारा कभी प्रदर्शित नहीं हुआ। वसुंधरा से उन का नेह इस आँचल की लोक धुनों, लोक आस्थायों, लोक विश्वासों, आंचलिक चित्रकला तथा डुग्गर संस्कृति से प्रेम के रूप में अनेक माध्यमों से अभिव्यक्ति होता। यह उन का इस राष्ट्र से प्रेम ही था जो डुग्गर के इस आँचल में बोली जाने वाली सभी भाषाओं जैसे हिन्दी, उर्दू, डोगरी तथा पंजाबी के माध्यम से साहित्य, संगीत और कलायों के द्वारा प्रकट हुआ। उन के लिए राष्ट्र मात्र किसी एक विशेष भूखंड का नाम नहीं बल्कि इस के पहाड़ों, नदियों, खेतों-खलिहानों , मानवों, पशु-पक्षियों, इस में अविरल रूप से बहती संस्कृति धारा से प्यार है। उन का मानना है जीवन वही है जो धरा के काम आए, तभी एक गीत में वे कह उठते हैं।
धरती का बोज बन कर जीना भी क्या है जीना
दुख दूसरों को देना जीवन के विष को पीना
जब श्री ओम प्रकाश भूरिया जी के आग्रह पर उन्होंनें देश प्रेम के गीत लिखे तो इन गीतों को न केवल धरती के गीतों से अलंकृत किया बल्कि इन गीतों को स्वयं संगीत बद्ध कर संस्कार भारती के सदस्यों द्वारा इस का गायन करबा, इसे एक कैसेट के रूप में एक बड़े कार्यक्रम में माननीय शेषाद्री जी को भेंट भी किया। सारथी जी का मानना है यह धरा सब की सांझी है परंतु इसे माँ माने बिना, माँ मान कर इस की रक्षा का संकल्प लिए बिना हमारा अस्तित्व सुरक्षित नहीं रह सकता। इसी भाव की अभिव्यक्ति उन के इस गीत में भी होती है
अगर तुम ज़मीं को ही माँ मानते हो
तभी ज़िंदा रहने की सूरत बनेगी
अगर सर की कीमत है मालूम तुम को
तभी शान से तुम सभी जी सकोगे
सफरनामा में सारथी जी आगे लख्ते हैं ......
नये प्रोवेस्ट मार्शल I.P.S.Gill थे। देखने, बोलने और अनुशासन में बड़े सख्त और अनुशासनप्रिय परन्तु मैकेनिक, पेंटर, कारपेंटर की बड़ी कद्र करने वाले। गिल साहब के ज़माने में मैने बेशुमार चित्र बनाये और भ्रमण के खूब अवसर प्राप्त हुए। मण्ड़िलयाँ बना कर प्रतियोगितायें करबाईं। गाने बजाने का अभ्यास भी खूब चलता रहा। पुस्तकालय में नई किताबें आईं। मनपसन्द पुस्तकें मैंने पढ़ डाली। उन्हीं दिनों मैंने राहुल सांस्कृत्यायन की भागो नहीं बदल ड़ालो और तुम्हारा क्षय हो पढी। फिर मेरा परिचय मधुषाला, दीपशिखा आदि से हुआ।
1959 में मुझे नोकरी छोड़ लौटना पड़ा पर तब तक मेरी स्थिति बड़ी परिपक्व हो चुकी थी। मैं स्वयं को एक विकसित आदमी मानने लगा था। अपने एक संस्मरण में सारथी जी लिखते हैं- मेरा श्री बंसी लाल सूरी महोदय से मिलना 1958-59 में हुआ। उन दिनों वे हिन्दी साहित्य मंडल के प्रधान थे। जम्मू आते ही मैंने सुना कि श्री सूरी हिन्दी के प्रबल समर्थक रहे हैं। हिन्दी आन्दोलनों में भाग ले चुके हैं। हिन्दी का कई एक उच्च स्तरों पर विरोध होता आ रहा था और सूरी साहब रण के लिए डटे हुए थे।
मुझ पर उर्दू शायरी और अफसाना निगारी का जुनून सबार हो रहा था। ग़ालिब, फ़ैज़ और मीर के अध्ययन ने और मुंशी प्रेमचन्द और कृष्णचन्द्र और शरतचन्द्र के अफसानों की बेहिस ज़मीनें मुझे जम्मू में नज़र आने लगी थीं। घर पर लय-ताल, संगीत और अरूज़-पिंगल का वातावरण था।
.......क्रमशः .....कपिल अनिरुद्ध

Friday, 1 September 2017

सागर की कहानी (17)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (17)
श्री सारथी जी के प्रथम डोगरी उपन्यास त्रेह समुन्दरै दी में भी सेना में उनके आरम्भिक कार्यकाल की झलक मिलती है। वे लिखते हैं- सेना की वह इकाई छोटी थी। कोई डेढ़ सौ के करीब सैनिक थे। जंगल में मंगल बाली बात थी। डेस्क एनo सीoओo से काई बीस कदम चल कर क्वार्टर गार्ड। उस के साथ कोत। कोत से मिलता वस्त्र भंडार। फिर दूसरी कतार चालू। रिक्रिएशन व कैन्टीन। आगे दो बडे टैंट रीडिंग रूम के। उनके ठीक सामने गोलाई में लगे हुए पांच सात टैंट कार्यालय के। रीडिंग रूम का इंचार्ज हवलदार हरीचन्द था। लायब्रेरी, स्पोटर्स व रिक्रिएशन का कार्यभार वही सम्भालता। भानुदत्त (उपन्यास का नायक) की डयूटी उसी के पास लगी।................... सब से बड़ी बात यह कि हवलदार हरी चन्द ने उस को पुस्तकें पढ़ने को कहीं, एक एक पुस्तक उस ने कईं बार पढ़ी और हर बार उसे लगा कि वह सैर कर रहा है, बंगाल की, बंगाल के गाँव की, बंगाल के लोगों से मिल रहा है। उन से कह रहा है मैंने आप को पहचान लिया है। आप की रस्में पहचान ली हैं। क्या आप भी मुझे पहचानते हैं। उस ने उत्तर प्रदेश के कई स्थानों को अपनी आँखों के सामने से गुज़रते देखा। वहाँ के लोगों को अपने साथ वार्तालाप करते अनुभूत किया।..................... उस ने उक आध कहानी लिखी जो सेना की ही पत्रिका में सैर शीर्षक से छपी।
..................................अब भानु की युनिट को स्थानांतरित हो कर ऊधमपुर जाना था। तीन वर्ष भानु ऊधमपुर रहा। हर सप्ताह घर आता रहा। उस की यूनिट नगर से दूर थी इस कारण से कभी कभी ही शहर का चक्कर लगता था। कभी कभार वह ऊधमपुर शहर जाता और घूमता। लोगों से बातचीत करता। परन्तु उसे यह अनुभव होता कि लोग उसे अपने से अलग समझ रह हैं।................................................... वह यूनिट थी या परिबार। बड़ा सा कुन्बा। जिस का हर व्यक्ति एक दूसरे के प्रति कुछ भी करने को हर क्षण तत्पर था। समूचे समाज की भान्ति। उस छोटे से यूनिट के कार्य बटे हुए थे। झाडू देने का कार्य, पानी लाने का कार्य। कपड़े धोने का कार्य। पढ़ने पढ़ाने का कार्य। शस्त्र लेने व देने तथा संभाल कर रखने का कार्य। वह तो एक सम्पूर्ण समाज था। छोटा सा चल समाज। इधर नगर में रहने वाले इस समाज में रहने वाले लोगों को क्या समझते थे।
श्री सारथी जी द्वारा द्वारा लिखित आरम्भिक कहानियों में एक सैनिक की सोच, दर्द एवं पीडा़ओ ने अभिव्यक्ति पाई है। 1965 में लिखित प्रथम उर्दू कहानी संग्रह उमरें उन्होंने उन वीरों के नाम समर्पित किया जिन्होंने देश रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्यौछाबर कर दिये। इसी काव्य संग्रह की एक कहानी रमता योगी सैनिक जीवन के अनुशासन तथा एक सैनिक की कर्मठता एवं राष्ट्रप्रेम को व्यक्त करती है। उन की इस कहानी का सैनिक उस योगी की तरह है जो एक स्थान पर अधिक नहीं ठहरता। जिस प्रकार माना जाता है कि रमता योगी और बहता पानी पवित्र होते हैं बैसी ही पवित्रता उन्हें एक सैनिक में नज़र आती है। उन के प्रथम डोगरी संग्रह त्रेह समुन्दरै दी में उन्होंने शहरी नागरिकों द्वारा एक सैनिक की अवहेलना को भी उजागर किया है जब कि उन के प्रथम डोगरी कहानी संग्रह सुक्का बरूद की कहानी लाम में युद्ध द्वारा लाये गए विनाश की पीड़ा को अभिव्यक्ति मिली है। उन का मानना है कि युद्ध मानव एवं मानवता दोनों का शत्रु है।
सैनिक जीवन के संघर्ष का क्रम जारी रखते हुए वे लिखते हैं -हरिचन्द के पास ही यूनिट का recreation था। हारमोनियम, तबला, ढ़ोलक, खंजरी, चिमटा सब मौजूद था। रोज़ शाम को यूनिट में महफिल सजने लगी, साहब रामचन्द्रन भी आने लगे। मेरा हारमोनियम सुन कर बहुत खुश हुए तथा उन्हें हैरानी भी हुई। अपने क्वाटर्र में ले गए। मुझे मिसेज रामचन्द्रन को हारमोनियम सिखाने को कहा। यूनिट में मेरे भविष्य की कोठियाँ पक्की होने लगीं। एक बड़ा I.P.Tent लगा। चन्द्रन साहब ने recreation और library room का उद्घाटन किया। मेरा कार्यक्षेत्र स्टाफ कारों के नम्बरों से आगे बढ़ा। मैने उमर-ए-ख्य्याम और कुछ भूदृष्य (landscape) बनाए और वहाँ लगाए। कला यात्रा और संवरती गई। यूनिट में बेशुमार रंग, फ्रेम की लकड़ी special grade कन्वास मौजूद थे। यूनिट का काम करने के उपरान्त मैं चित्रों की कापियाँ और नकलें लगातार करने लगा। उन्हीं दिनों मुझे पता चला कि देवीदास भी किसी गोरखा यूनिट में बतौर पेंटर काम कर रहा है। गा़लि़ब का एक शेअर है।
लताफत बे कसाफत जलबा पैदा कर नहीं सकती
चमन जंगार है आईना-ए-बादा-ए बहारी का
लुत्फ का आनन्द का कोई विषेश अहसास नहीं हो सकता जब तक उस की प्राप्ति में कठिनाईयाँ, रुकाबटें और कड़बाहटें न हों।
एक और सूरज निकलने के साथ पता चला कि रामचन्द्रन साहब जा रहे हैं। मैं ऐसा रोआ मानों पिता मृत्यु को प्राप्त हो रहे हों। मैंने उन से कहा कि मैं यूनिट छोड़ दूँगा। उन्होंने समझाया- फोजी कहीं भी जाये वह भारत में ही होगा। मैं भारत में हूँ, सब भारत में हैं। कुछ दिनों के उपरान्त पता चला कि प्रोवेस्ट यूनिट उधमपुर जा रही है। मैं यूनिट के साथ उधमपुर आ गया।
.........क्रमशः .......कपिल अनिरुद्ध