सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (24)
सागर में जन्म देने, पालन करने तथा संहार करने की शक्तियाँ निहित होती हैं। जहां एक तरफ सागर कईं जीव-जन्तुओं, जड़ी-बूटियों का जन्म दाता है वहीं सागर ज्वार भाटा की स्थिति में संहारक की भूमिका निभाता भी नज़र आता है। नवनिर्माण के लिए संहार आवश्यक है। सड़ी- गली रुढ़ियों का विनाश ही नई आस्थओं एवं परम्पराओं को जन्म देता है। इस संबंध में सुमित्रा नन्दन पंत की यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :-
द्रुत झरो जगत् के जीर्ण पत्र!
हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!
श्री सारथी जी जहां एक तरफ उत्कृष्ट रचनाकार थे, जिज्ञासुओं के मार्गदर्शक एवं प्रेरणा स्त्रोत थे वहीं अनैतिकता, मूल्यहीनता एवं संस्कार शून्यता के विरुद्ध एक संहारक की भूमिका निभाते भी नज़र आते। श्री सारथी जी की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में श्री आरo केo भारती जी कहते हैं - मैं अदबीकुंज की साप्ताहिक गोष्ठी में एक व्यंग्य लेख ले कर आया। यह लेख ऊर्दू दैनिक हिन्द समाचार में प्रकाशित हुआ था। मैंने उस लेख में उन आधुनिक नारियों की बात की थी जो कार में अपने कुत्तों को गोदी में बिठा कर घूमती हैं। उस लेख में कुछ एक ऐसी बातें भी मैं लिख गया था जिसे एक ढंग से अश्लीलता की कोटि में रखा जा सकता है। जब मैने वही लेख श्री सारथी जी के सामने पढ़ा तो वे कुपित हो गये और कहने लगे- किस मूर्खानन्द ने तुम्हारा यह लेख समाचार पत्र में प्रकाशित कर दिया। तुम्हें तो साहित्यिक भाषा का भी ज्ञान नहीं। साहित्य तो सब का हित करने वाला, उत्थान करने वाला होता है और तुम....................मैं एक अपराधी की भान्ति मूक खड़ा सब कुछ सुनता जा रहा था। उस दिन तो शायद उन के शब्दों के मर्म को पूरी तरह न समझ पाया होऊं परन्तु आज यह महसूस कर पा रहा हूँ कि सारथी जी के मन में नैतिक्ता, मर्यादा तथा मानवीय मूल्यों के प्रति कितनी गहरी संवेदना थी।
एक साहित्यकार अपने समय का सजग पहरेदार होने के साथ-साथ समाज को नैतिक्ता का दर्पण दिखाने वाला भी होता है। आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी साहित्य में मूल्यों का समर्थन करते हुए कहते हैं-मैं साहित्य में मनुष्य की दृष्टि का पक्षपाती हूँ। जो मनुष्य को दुर्गति एवं हीनता से बचा न सके, जो उस की आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को समाज का दर्पण बताया है। सामाजिक उत्थान एवं पतन साहित्य रूपी समाज में साफ झलकता है। साहित्य समाज से और समाज साहित्य से प्रेरति होता ही रहता है। दोनों को यदि एक दूसरे का पूरक कहा जाये तो अनुचित न होगा। सारथी जी अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को नैतिकता का दर्पण दिखाते हुए व्यक्ति के खोखलेपन, उस की आडम्बर वृति तथा निरर्थक्ता पर कटाक्ष करते हैं। हर कोई दौड़ रहा हे परन्तु कोई कहीं पहुँच नहीं रहा। मुबारकवाद, शोक सभाओं तथा बेकार के प्रर्दशनों में खोया आदमी अपनी मौलिक्ता खो चुका है। प्रगति एवं उन्नति के नाम पर मानवता का वध किया जा रहा है। उन की रचनाओं में सम्पूर्ण नगर, पूरी धरा को एक सजग रचनाकार की नज़र से देखा गया है।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (24)
सागर में जन्म देने, पालन करने तथा संहार करने की शक्तियाँ निहित होती हैं। जहां एक तरफ सागर कईं जीव-जन्तुओं, जड़ी-बूटियों का जन्म दाता है वहीं सागर ज्वार भाटा की स्थिति में संहारक की भूमिका निभाता भी नज़र आता है। नवनिर्माण के लिए संहार आवश्यक है। सड़ी- गली रुढ़ियों का विनाश ही नई आस्थओं एवं परम्पराओं को जन्म देता है। इस संबंध में सुमित्रा नन्दन पंत की यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :-
द्रुत झरो जगत् के जीर्ण पत्र!
हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!
श्री सारथी जी जहां एक तरफ उत्कृष्ट रचनाकार थे, जिज्ञासुओं के मार्गदर्शक एवं प्रेरणा स्त्रोत थे वहीं अनैतिकता, मूल्यहीनता एवं संस्कार शून्यता के विरुद्ध एक संहारक की भूमिका निभाते भी नज़र आते। श्री सारथी जी की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में श्री आरo केo भारती जी कहते हैं - मैं अदबीकुंज की साप्ताहिक गोष्ठी में एक व्यंग्य लेख ले कर आया। यह लेख ऊर्दू दैनिक हिन्द समाचार में प्रकाशित हुआ था। मैंने उस लेख में उन आधुनिक नारियों की बात की थी जो कार में अपने कुत्तों को गोदी में बिठा कर घूमती हैं। उस लेख में कुछ एक ऐसी बातें भी मैं लिख गया था जिसे एक ढंग से अश्लीलता की कोटि में रखा जा सकता है। जब मैने वही लेख श्री सारथी जी के सामने पढ़ा तो वे कुपित हो गये और कहने लगे- किस मूर्खानन्द ने तुम्हारा यह लेख समाचार पत्र में प्रकाशित कर दिया। तुम्हें तो साहित्यिक भाषा का भी ज्ञान नहीं। साहित्य तो सब का हित करने वाला, उत्थान करने वाला होता है और तुम....................मैं एक अपराधी की भान्ति मूक खड़ा सब कुछ सुनता जा रहा था। उस दिन तो शायद उन के शब्दों के मर्म को पूरी तरह न समझ पाया होऊं परन्तु आज यह महसूस कर पा रहा हूँ कि सारथी जी के मन में नैतिक्ता, मर्यादा तथा मानवीय मूल्यों के प्रति कितनी गहरी संवेदना थी।
एक साहित्यकार अपने समय का सजग पहरेदार होने के साथ-साथ समाज को नैतिक्ता का दर्पण दिखाने वाला भी होता है। आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी साहित्य में मूल्यों का समर्थन करते हुए कहते हैं-मैं साहित्य में मनुष्य की दृष्टि का पक्षपाती हूँ। जो मनुष्य को दुर्गति एवं हीनता से बचा न सके, जो उस की आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को समाज का दर्पण बताया है। सामाजिक उत्थान एवं पतन साहित्य रूपी समाज में साफ झलकता है। साहित्य समाज से और समाज साहित्य से प्रेरति होता ही रहता है। दोनों को यदि एक दूसरे का पूरक कहा जाये तो अनुचित न होगा। सारथी जी अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को नैतिकता का दर्पण दिखाते हुए व्यक्ति के खोखलेपन, उस की आडम्बर वृति तथा निरर्थक्ता पर कटाक्ष करते हैं। हर कोई दौड़ रहा हे परन्तु कोई कहीं पहुँच नहीं रहा। मुबारकवाद, शोक सभाओं तथा बेकार के प्रर्दशनों में खोया आदमी अपनी मौलिक्ता खो चुका है। प्रगति एवं उन्नति के नाम पर मानवता का वध किया जा रहा है। उन की रचनाओं में सम्पूर्ण नगर, पूरी धरा को एक सजग रचनाकार की नज़र से देखा गया है।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध
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