सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (19)
मुझ पर उर्दू शायरी और अफसाना निगारी का जुनून सबार हो रहा था। ग़ालिब, फैज़् और मीर के अध्ययन ने और मुन्शी प्रेमचन्द और कृष्णचन्द्र और शरतचन्द्र के अफसानों की बेसिब ज़मीनें मुझे जम्मू में नज़र आने लगी थीं। घर पर लय-ताल, संगीत और अरूज़-पिंगल का वातावरण था।
श्री शंकर शर्मा पिपासु सूरी साहब के अनन्य भक्त तथा प्रसंशक थे। पिपासु इतने सरल, मधुर और सौन्दर्य बोध ये एकदम भरे थे कि उन से मिलते ही लगा कोई कोटि जन्मों का उन से बन्धन है। दो-चार बार मिलने पर बहुत-बहुत कवितायें सुना डालीं। और फिर कहा-बंसी लाल जी सूरी से अवश्य मिलो।
चौक चबूतरे से नीचे पक्के ड़गें की ओर चलें तो उस समय वहां पंडित वृन्दावन जी की समाचार पत्रों की दुकान थी। बाएं दुकान और दांए डॉ सहगल का दन्त चिकित्सालय। उस के साथ तंग गली। गली के भीतर चार ही कदम चल कर बाईं ओर सूरी साहब का काम-काज का चेम्बर था। साहित्यिक चेम्बर भी वही था। हम वहीं बैठे थे।
सूरी साहब मौन रहते थे परन्तु वह मौन सन्नाटा नहीं, उस खामोशी में उनके स्नेह की गरिमा होती थी। मुझे अब भी उस चुप्पी के वातावरण की कल्पना तरंगित कर देती है। ...... एक क्षण के लिए समय रूक कर सूरी साहब का गंभीर, चिन्तन की मुद्रा में डूबा चेहरा और ममत्व तथा प्यार दुलार से भरा आकार मेरे मानस पटल पर उभर आता है।
सूरी साहब से मैं सप्ताह में तीन-चार दिन अवश्य मिलने जाता। वे मेरी रचना सुनते। इतनी प्रशंसा और गुण बखान करते कि मुझे हर बार लगता, शीघ्र अति शीघ्र नई कविता, नई कहानी, नई ग़ज़ल लिखूँ और फौरन जा कर सूरी साहब को सुनाऊँ। और उन से मुझे प्रेरणा का प्रसाद मिले। सप्ताह में एक आध बार श्री पिपासु जी अथवा श्री देवरत्न शास्त्री जी के दर्शन हो जाते। वे भी सूरी साहिब की हाजिरी में आते थे।
........क्रमशः....कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (19)
मुझ पर उर्दू शायरी और अफसाना निगारी का जुनून सबार हो रहा था। ग़ालिब, फैज़् और मीर के अध्ययन ने और मुन्शी प्रेमचन्द और कृष्णचन्द्र और शरतचन्द्र के अफसानों की बेसिब ज़मीनें मुझे जम्मू में नज़र आने लगी थीं। घर पर लय-ताल, संगीत और अरूज़-पिंगल का वातावरण था।
श्री शंकर शर्मा पिपासु सूरी साहब के अनन्य भक्त तथा प्रसंशक थे। पिपासु इतने सरल, मधुर और सौन्दर्य बोध ये एकदम भरे थे कि उन से मिलते ही लगा कोई कोटि जन्मों का उन से बन्धन है। दो-चार बार मिलने पर बहुत-बहुत कवितायें सुना डालीं। और फिर कहा-बंसी लाल जी सूरी से अवश्य मिलो।
चौक चबूतरे से नीचे पक्के ड़गें की ओर चलें तो उस समय वहां पंडित वृन्दावन जी की समाचार पत्रों की दुकान थी। बाएं दुकान और दांए डॉ सहगल का दन्त चिकित्सालय। उस के साथ तंग गली। गली के भीतर चार ही कदम चल कर बाईं ओर सूरी साहब का काम-काज का चेम्बर था। साहित्यिक चेम्बर भी वही था। हम वहीं बैठे थे।
सूरी साहब मौन रहते थे परन्तु वह मौन सन्नाटा नहीं, उस खामोशी में उनके स्नेह की गरिमा होती थी। मुझे अब भी उस चुप्पी के वातावरण की कल्पना तरंगित कर देती है। ...... एक क्षण के लिए समय रूक कर सूरी साहब का गंभीर, चिन्तन की मुद्रा में डूबा चेहरा और ममत्व तथा प्यार दुलार से भरा आकार मेरे मानस पटल पर उभर आता है।
सूरी साहब से मैं सप्ताह में तीन-चार दिन अवश्य मिलने जाता। वे मेरी रचना सुनते। इतनी प्रशंसा और गुण बखान करते कि मुझे हर बार लगता, शीघ्र अति शीघ्र नई कविता, नई कहानी, नई ग़ज़ल लिखूँ और फौरन जा कर सूरी साहब को सुनाऊँ। और उन से मुझे प्रेरणा का प्रसाद मिले। सप्ताह में एक आध बार श्री पिपासु जी अथवा श्री देवरत्न शास्त्री जी के दर्शन हो जाते। वे भी सूरी साहिब की हाजिरी में आते थे।
........क्रमशः....कपिल अनिरुद्ध
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