सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (21)
श्री सारथी जी का जीवन बहुआयामी रहा है। उन के अनुसार उन का जन्म जीवन की अज्ञात शक्तियों को खोजने के लिए उन क्षेत्रों को खोजने के लिए हुआ जिन्हें विज्ञान, योग, साधना, कला, अध्यात्म का नाम दिया है। इस में गहनता से उतरना था। मुझे भगवान ने यह देखने के लिए भेजा था कि देखो ताल क्या होता है, सुर क्या होता है। शब्द, अर्थ, रस क्या होता है। जप, तप, योग, मंत्र साधन यह सब क्या है। फिर सब से बड़ा यंत्र यह शरीर क्या है जिस के द्वारा सब कुछ है। जिस के भीतर मानव बैठा है और जो एक लम्बे अर्से तक मानव की रक्षा करता है।
श्री सारथी रुपी सागर के आगोश से उदय होने वाले और फिर उसी में अस्त हो जाने वाले एक और सूरज का नाम आयुर्वेद है। शरीर के मर्मज्ञ श्री सारथी जी को धर्म गुरू एवं अपने मामा से चिकित्सा की विद्या उपलब्ध हुई। इस में भी उन का दृष्टिकोण रचनात्मक न हो कर अनुसंधानात्मक होता। जब वे किसी रोग का विवरण देने लगते तो ज्ञात होता कि वे ब्रह्माण्ड के किसी विकार से बात कर रहे हैं। मैंने उन्हें कईं बार असाध्य रोगों को साध्य बनाते हुए देखा है। चिकित्सा के बारे में वे कहते-भगवान शरीर देते हैं, चिकित्सक प्राण देता है। भगवान और चिकित्सक मिल कर संसार चलातें हैं। एक भी कोताही करेगा तो विश्व विनष्ट हो जाएगा।
वे कहते मानव समाज का सारा दायित्व चिकित्सक पर है। वे तीन प्रकार की चिकित्सा में विश्वास रखते। शरीर की चिकित्सा, मन की चिकित्सा, तथा आत्मा की चिकित्सा। तीनों डाकटर चाहिए तीनों समर्पित चाहिए। रोग मात्र शारीरिक ही नहीं होते वे मन तथा आत्मा दोनों को ग्रस लेते हैं। अज्ञानी चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा की सेवा लिए जाने पर रोग भयंकर रुप धारण कर लेते हैं। तीनों चिकित्सक अत्यन्त अनुभवी चाहिए। विशेषकर वे जो मन और आत्मा की बिमारियों की चिकित्सा करते हैं। वे कहते -शरीर के भीतर मन है, शरीर के भीतर आत्मा है तथा शरीर के भीतर उर्जा है। इन तीनों का आपस में सामंजस्य, तीनों की संधि जीवन कहलाता है। भारत की पुण्यभूमि पर हज़ारों वर्षों से ऐसे चिकित्सक अवतरति होते रहे हैं जिन्होंने मन की चिकित्सा की, प्राणों की तथा शरीर की चिकित्सा की। वे अनुभवी होने के साथ-साथ स्वयं में अनुसंधान प्रयोगशाला थे तथा बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के मूल मंत्र का उच्चारण कर मानव का किसी भी प्रकार का दुःख दूर करने का प्रयत्न करते थे। परन्तु लौकिकता तथा पदार्थ के दुष्प्रभाव ने मानव को भोगवादी सुसंकृति के मध्य ला खड़ा कर दिया हैं। वे कहा करते आयुर्वेद युक्ता आहार-विहार के द्वारा सतोगुण आहार पर बल देता है। जिस से शरीर का निर्माण हो, शरीर विचलित न हो। किसी प्रकार की साधना के लिए शरीर का ठहराव अत्यावश्यक है। ठहरे हुए शरीर में ही मन ठहर सकता है। दूसरी ओर शरीर संयम से, दमन से ठहरता है। एकाग्रता चाहे आनन्द प्राप्ति, भगवद् प्राप्ति, किसी वस्तु की प्राप्ति अथवा ललित कला में सिद्धहस्त होने के लिए हो, इस में मन और शरीर दोनों का सहयोग अनिवार्य है। और आयुर्वेद में बहुत सारी औषधियाँ, बहुत से ऐसे रस मौजूद हैं जिन के सेवन से मन भी ठहरता है और शरीर भी। इसलिए उन के कथनानुसार शरीर का अध्ययन बहुत ज़रुरी है। हर एक आदमी को अपने शरीर का सर्म्पूण ज्ञान और आयुर्वेद का उचित ज्ञान होना अनिवार्य है।
श्री सारथी जी की बातों में आयुर्वेद का उल्लेख प्राय आ ही जाता। अपने प्रथम डोगरी उपन्यास त्रेह समुन्दर दी में व नई चिकित्सा पद्धतियों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं- ‘सब कुछ परिवर्तित हुआ है परन्तु रोग नहीं। रोग वही हैं। उन की चिकित्सा भी वैसी ही होनी चाहिए। परन्तु आश्चर्य है कि रोग व उस का मूल कारण वही पुराना है, पर औषधियाँ बदल गई हैं। औशधी बदल जाने से रोग के निवारण की विधि में परिवर्तन नहीं हेाता व न ही रोग अपना स्वभाव तथा लक्षण बदलता है’। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं- ‘शरीर में जहाँ विकार होता है, उस की चिकित्सा भी वहीं पर होती है। प्रत्येक विकार शरीर की सफाई माँगता है। शोधन माँगता है’।
........क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (21)
श्री सारथी जी का जीवन बहुआयामी रहा है। उन के अनुसार उन का जन्म जीवन की अज्ञात शक्तियों को खोजने के लिए उन क्षेत्रों को खोजने के लिए हुआ जिन्हें विज्ञान, योग, साधना, कला, अध्यात्म का नाम दिया है। इस में गहनता से उतरना था। मुझे भगवान ने यह देखने के लिए भेजा था कि देखो ताल क्या होता है, सुर क्या होता है। शब्द, अर्थ, रस क्या होता है। जप, तप, योग, मंत्र साधन यह सब क्या है। फिर सब से बड़ा यंत्र यह शरीर क्या है जिस के द्वारा सब कुछ है। जिस के भीतर मानव बैठा है और जो एक लम्बे अर्से तक मानव की रक्षा करता है।
श्री सारथी रुपी सागर के आगोश से उदय होने वाले और फिर उसी में अस्त हो जाने वाले एक और सूरज का नाम आयुर्वेद है। शरीर के मर्मज्ञ श्री सारथी जी को धर्म गुरू एवं अपने मामा से चिकित्सा की विद्या उपलब्ध हुई। इस में भी उन का दृष्टिकोण रचनात्मक न हो कर अनुसंधानात्मक होता। जब वे किसी रोग का विवरण देने लगते तो ज्ञात होता कि वे ब्रह्माण्ड के किसी विकार से बात कर रहे हैं। मैंने उन्हें कईं बार असाध्य रोगों को साध्य बनाते हुए देखा है। चिकित्सा के बारे में वे कहते-भगवान शरीर देते हैं, चिकित्सक प्राण देता है। भगवान और चिकित्सक मिल कर संसार चलातें हैं। एक भी कोताही करेगा तो विश्व विनष्ट हो जाएगा।
वे कहते मानव समाज का सारा दायित्व चिकित्सक पर है। वे तीन प्रकार की चिकित्सा में विश्वास रखते। शरीर की चिकित्सा, मन की चिकित्सा, तथा आत्मा की चिकित्सा। तीनों डाकटर चाहिए तीनों समर्पित चाहिए। रोग मात्र शारीरिक ही नहीं होते वे मन तथा आत्मा दोनों को ग्रस लेते हैं। अज्ञानी चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा की सेवा लिए जाने पर रोग भयंकर रुप धारण कर लेते हैं। तीनों चिकित्सक अत्यन्त अनुभवी चाहिए। विशेषकर वे जो मन और आत्मा की बिमारियों की चिकित्सा करते हैं। वे कहते -शरीर के भीतर मन है, शरीर के भीतर आत्मा है तथा शरीर के भीतर उर्जा है। इन तीनों का आपस में सामंजस्य, तीनों की संधि जीवन कहलाता है। भारत की पुण्यभूमि पर हज़ारों वर्षों से ऐसे चिकित्सक अवतरति होते रहे हैं जिन्होंने मन की चिकित्सा की, प्राणों की तथा शरीर की चिकित्सा की। वे अनुभवी होने के साथ-साथ स्वयं में अनुसंधान प्रयोगशाला थे तथा बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के मूल मंत्र का उच्चारण कर मानव का किसी भी प्रकार का दुःख दूर करने का प्रयत्न करते थे। परन्तु लौकिकता तथा पदार्थ के दुष्प्रभाव ने मानव को भोगवादी सुसंकृति के मध्य ला खड़ा कर दिया हैं। वे कहा करते आयुर्वेद युक्ता आहार-विहार के द्वारा सतोगुण आहार पर बल देता है। जिस से शरीर का निर्माण हो, शरीर विचलित न हो। किसी प्रकार की साधना के लिए शरीर का ठहराव अत्यावश्यक है। ठहरे हुए शरीर में ही मन ठहर सकता है। दूसरी ओर शरीर संयम से, दमन से ठहरता है। एकाग्रता चाहे आनन्द प्राप्ति, भगवद् प्राप्ति, किसी वस्तु की प्राप्ति अथवा ललित कला में सिद्धहस्त होने के लिए हो, इस में मन और शरीर दोनों का सहयोग अनिवार्य है। और आयुर्वेद में बहुत सारी औषधियाँ, बहुत से ऐसे रस मौजूद हैं जिन के सेवन से मन भी ठहरता है और शरीर भी। इसलिए उन के कथनानुसार शरीर का अध्ययन बहुत ज़रुरी है। हर एक आदमी को अपने शरीर का सर्म्पूण ज्ञान और आयुर्वेद का उचित ज्ञान होना अनिवार्य है।
श्री सारथी जी की बातों में आयुर्वेद का उल्लेख प्राय आ ही जाता। अपने प्रथम डोगरी उपन्यास त्रेह समुन्दर दी में व नई चिकित्सा पद्धतियों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं- ‘सब कुछ परिवर्तित हुआ है परन्तु रोग नहीं। रोग वही हैं। उन की चिकित्सा भी वैसी ही होनी चाहिए। परन्तु आश्चर्य है कि रोग व उस का मूल कारण वही पुराना है, पर औषधियाँ बदल गई हैं। औशधी बदल जाने से रोग के निवारण की विधि में परिवर्तन नहीं हेाता व न ही रोग अपना स्वभाव तथा लक्षण बदलता है’। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं- ‘शरीर में जहाँ विकार होता है, उस की चिकित्सा भी वहीं पर होती है। प्रत्येक विकार शरीर की सफाई माँगता है। शोधन माँगता है’।
........क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध
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