सागर की कहानी (23)
एक अन्य रोग की चर्चा करते हुए वे कहते - एक छोटा सा रोग है तुलना का रोग। यह जानते हुए भी कि जीवन में जो कुछ मिलना या घटित होना है वह अपने पूर्व कर्मानुसार मिलेगा। फिर भी लोग लगातार तुलना करते जाते हैं। वास्तव में आम आदमी इस लिए दुखी नहीं है कि उस की कामनायें पूरी नहीं हो रही बल्कि इसलिए दुखी है कि सामने वाले के पास जो कुछ है वह क्यों है। मेरे पास उस जैसा मकान क्यों नहीं। मेरी नौकरी उस जैसी या उस से बड़ी पदवी वाली क्यों नहीं। मेरे बच्चों को यह क्यों नहीं मिला वो सीट क्यों नहीं मिली। इस तुलना ने सम्पूर्ण मानवजाति को अपनी गिरफत में ले रखा है।
हमारा मन विशेषकर अर्द्धचेतन मन गुणों- अवगुणों, इच्छाओं, कामनाओं का भण्डार है। इस में यदि हिंसा, क्रोध, आक्रोश, इर्ष्या, तुलना इत्यादि भरे होंगे तो व्यक्ति के निरोगी होने की, स्वस्थ होने की कोई संभावना नहीं। परन्तु यदि सतोगुणी आहार विहार द्वारा मन में सतोगुण का प्रादुर्भाव हो जाए तो ऐसा मन न केवल स्वस्थ शरीर के निर्माण में सहायक होगा बलिक सम्पूर्ण वातावरण में निरोगता की तरंगें भी फैलाता चला जाएगा।
हमारा अन्तःकरण रोगी है अथवा स्वस्थ इसे परखने की विधि बताते हुए श्री सारथी जी कहते- जब शुभ संकल्प विकल्प कम हो जाये तो अन्तःकरण के रोग जन्म लेते हैं। वे कहते भीतर के रोगों की चिकित्सा हर कोई नहीं कर सकता। इस के लिए ज्ञान विज्ञान के साथ साथ क्रियात्मकता भी चाहिए। वरना आचार्य चाणक्य की यह उक्ति अनाभ्यासे विषं धर्मम अर्थात अभ्यास के बिना धर्म विष बन जाता है तो चरितार्थ होती दिखाई दे ही रही है।
बहुधा जब श्री सारथी जी शरीर अथवा मन की बात करते तो आयुर्वेद की बात सहज ही बीच में आ जाती। अपने सृजनात्मक पलों की बात करते हुए श्री विजय सेठ जी को दिये साक्षात्कार में वे कहते हैं- सुबह और रात के आखिरी पहर में लहु की रफतार, रक्त की गति बड़ी सुस्त होती है और रक्तचाप भी बड़ा कम होता है। परन्तु जब रक्त की रफतार तेज़ होती है और रक्तचाप अधिक होता है तब बहुत अधिक विचारों के आने जाने के कारण शरीर असुविधा जनक अवस्था में होता है। वे साहित्य सृजन हेतु कम रक्तचाप वाली अवस्था को उपयुक्त माना करते। उनके अनुसार इस समय नींद पूरी तरह खुली होती है पर शरीर पूरी तरह से जागृत नहीं होता। इसी संदर्भ में उच्च रक्तचाप के बारे में वे कहते हैं- बात दरअसल यह है कि विचार और कुछ नहीं हमारा रक्तचाप है, blood pressure है। विचार ही रक्तचाप को चलाता है। एक विचार आया रक्तचाप बढ़ा। दूसरा आया बढ़ा और तीसरा आया और बढ़ा.........पुत्र ने कहा फीस भरनी है, पत्नी ने कहा साड़ी चाहिए, पिता ने कहा टानिक चाहिए बस! बहार ही बहार। रक्तचाप ही रक्तचाप। वह कम तो होगा ही नहीं। वह बढ़ता चला जाएगा और एक दिन high blood pressure उच्च रक्तचाप में बदल जाएगा।
वे कहते-संशय विचार को जनम देता है। विचार तर्क को, तर्क पदार्थ को, पदार्थ रक्तचाप को। यदि सामान्य, सरल और शांत रहना चाहो तो किसलिए क्या किया इसे विस्मृति में डालने की साधना करो। कर्म होने से पूर्व और पश्चात दोनों ही उस के फल के अर्थात प्रतिक्रिया के क्षण हैं। यदि कारण मूल ही कुछ न हो तो फल तथा प्रतिक्रिया दोनों ही अस्तित्वहीन हो जाएंगे।
.......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध
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