सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Saturday, 2 September 2017

सागर की कहान((18)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहान((18)
सारथी जी ने शब्दों, सुरों एवं रंगों के माध्यम से इसी धरा को गौरवान्वित किया है। इसी धरती का शृंगार, इस का ही गौरव गान किया है। अपने एक गीत में वे लिखते हैं।
आओ मिल कर करें वंदना
धरती माँ की करें अर्चना
सर्व प्रफुल्लित धरती माँ हो
सदा सुरक्षित धरती माँ हो
पुत्र सभी नयौछाबर माँ पर
सब से ऊंची यही साधना
उन का राष्ट्र प्रेम किसी इश्तिहारबाजी या नारेबाजी द्वारा कभी प्रदर्शित नहीं हुआ। वसुंधरा से उन का नेह इस आँचल की लोक धुनों, लोक आस्थायों, लोक विश्वासों, आंचलिक चित्रकला तथा डुग्गर संस्कृति से प्रेम के रूप में अनेक माध्यमों से अभिव्यक्ति होता। यह उन का इस राष्ट्र से प्रेम ही था जो डुग्गर के इस आँचल में बोली जाने वाली सभी भाषाओं जैसे हिन्दी, उर्दू, डोगरी तथा पंजाबी के माध्यम से साहित्य, संगीत और कलायों के द्वारा प्रकट हुआ। उन के लिए राष्ट्र मात्र किसी एक विशेष भूखंड का नाम नहीं बल्कि इस के पहाड़ों, नदियों, खेतों-खलिहानों , मानवों, पशु-पक्षियों, इस में अविरल रूप से बहती संस्कृति धारा से प्यार है। उन का मानना है जीवन वही है जो धरा के काम आए, तभी एक गीत में वे कह उठते हैं।
धरती का बोज बन कर जीना भी क्या है जीना
दुख दूसरों को देना जीवन के विष को पीना
जब श्री ओम प्रकाश भूरिया जी के आग्रह पर उन्होंनें देश प्रेम के गीत लिखे तो इन गीतों को न केवल धरती के गीतों से अलंकृत किया बल्कि इन गीतों को स्वयं संगीत बद्ध कर संस्कार भारती के सदस्यों द्वारा इस का गायन करबा, इसे एक कैसेट के रूप में एक बड़े कार्यक्रम में माननीय शेषाद्री जी को भेंट भी किया। सारथी जी का मानना है यह धरा सब की सांझी है परंतु इसे माँ माने बिना, माँ मान कर इस की रक्षा का संकल्प लिए बिना हमारा अस्तित्व सुरक्षित नहीं रह सकता। इसी भाव की अभिव्यक्ति उन के इस गीत में भी होती है
अगर तुम ज़मीं को ही माँ मानते हो
तभी ज़िंदा रहने की सूरत बनेगी
अगर सर की कीमत है मालूम तुम को
तभी शान से तुम सभी जी सकोगे
सफरनामा में सारथी जी आगे लख्ते हैं ......
नये प्रोवेस्ट मार्शल I.P.S.Gill थे। देखने, बोलने और अनुशासन में बड़े सख्त और अनुशासनप्रिय परन्तु मैकेनिक, पेंटर, कारपेंटर की बड़ी कद्र करने वाले। गिल साहब के ज़माने में मैने बेशुमार चित्र बनाये और भ्रमण के खूब अवसर प्राप्त हुए। मण्ड़िलयाँ बना कर प्रतियोगितायें करबाईं। गाने बजाने का अभ्यास भी खूब चलता रहा। पुस्तकालय में नई किताबें आईं। मनपसन्द पुस्तकें मैंने पढ़ डाली। उन्हीं दिनों मैंने राहुल सांस्कृत्यायन की भागो नहीं बदल ड़ालो और तुम्हारा क्षय हो पढी। फिर मेरा परिचय मधुषाला, दीपशिखा आदि से हुआ।
1959 में मुझे नोकरी छोड़ लौटना पड़ा पर तब तक मेरी स्थिति बड़ी परिपक्व हो चुकी थी। मैं स्वयं को एक विकसित आदमी मानने लगा था। अपने एक संस्मरण में सारथी जी लिखते हैं- मेरा श्री बंसी लाल सूरी महोदय से मिलना 1958-59 में हुआ। उन दिनों वे हिन्दी साहित्य मंडल के प्रधान थे। जम्मू आते ही मैंने सुना कि श्री सूरी हिन्दी के प्रबल समर्थक रहे हैं। हिन्दी आन्दोलनों में भाग ले चुके हैं। हिन्दी का कई एक उच्च स्तरों पर विरोध होता आ रहा था और सूरी साहब रण के लिए डटे हुए थे।
मुझ पर उर्दू शायरी और अफसाना निगारी का जुनून सबार हो रहा था। ग़ालिब, फ़ैज़ और मीर के अध्ययन ने और मुंशी प्रेमचन्द और कृष्णचन्द्र और शरतचन्द्र के अफसानों की बेहिस ज़मीनें मुझे जम्मू में नज़र आने लगी थीं। घर पर लय-ताल, संगीत और अरूज़-पिंगल का वातावरण था।
.......क्रमशः .....कपिल अनिरुद्ध

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