आज गुरुदेव सारथी जी का प्रयाण दिवस है । आज से 15 वर्ष पूर्व 10 सितंबर 2002 को श्री गणेश चतुर्थी के दिन वे परमतत्व में लीन हुए थे। गुरुदेव के महाँ प्रयाण दिवस पर उन के जीवन पर आधारित उन की जीवनी के इस 22वें भाग द्वारा अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सागर की कहानी (22)
श्री सारथी जी के अनुसार चिकित्सा का अर्थ औषधी निर्माण नहीं है बल्कि शरीर में वात-पित-कफ को व्यवस्थित करना और इन तीनों विकारों की वृतियों को समझे बिना चिकित्सा कार्य आड़म्बर है। जैसे कोई सुदृढ़ और प्रभावशाली रचना किसी कलाकार के निरन्तर चिन्तन की प्रक्रिया होती है, वैसे ही स्वास्थय निरन्तर चिन्तन का विषय है। वे कहते आदमी मात्र मेरुदण्ड है बाकी कुछ नहीं। मेरुदण्ड ही मस्तिष्क है, मानस पटल है। शरीर की सारी शक्तिायाँ इस के द्वारा ही कार्य करती है। आयुर्वेद अर्थात आयु का, मानव अवधी का ज्ञान-विज्ञान। तो उस को प्राप्त करने के लिए मानव क्या है, क्यों है, कैसे है यह जानना बहुत आवश्यक है।
श्री सारथी जी बहुधा बताया करते कि किसी वस्तु के सम्पूर्ण आयाम को देखना, क्यों, क्या कैसे के बिना असम्भव है। संसार क्या है, क्यों है, कैसे है। मानव क्या है, क्यों है, कैसे है। प्रकृति क्या है, क्यों है तथा कैसे है तथा मानव शरीर क्या है, क्यों है, कैसे है। जब तक यह न समझ लिया जाए तो संसार की कोई बात समझ नहीं आयेगी। वे ब्रह्मऋषि वाल्मीकि के इस शलोक शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम् का अर्थ समझाते हुए कहते-शरीर को जानना बहुत आवश्यक है। शरीर को जाने बिना संसार के किसी धर्म का पालन नहीं हो सकता। जब तक मानव शरीर को नहीं समझ लेता, संसार में वह कुछ भी नहीं समझ सकता क्योंकि आदमी जो कुछ भी करता है वह प्रतिक्रिया है विचारों की ओर विचार मस्तिष्क में पैदा होते हैं। और मस्तिष्क संस्कारों से पैदा होता है। और संस्कार मन के द्वारा हैं। इसलिए जब भी कोई अनुसंधान होता है चाहे वह अन्तर्मुखी हो या बहिर्मुखी हो, मन से आरम्भ होता है। मन संस्कारों का वाहन हो। इसलिए शरीर का निर्माण यदि सतोगुणी चीज़ो से होगा तो उस के मन में सतोगुणी बातों का प्रादुर्भाव होगा।
कुछेक मानसिक रोगों का विवरण देते हुए वे कहते- अगर शरीर को संतरे के छिलके की भांति माना जाए तो भीतर का गूधा अंतस चेतन कहलाएगा। छिलका भी रोगग्रस्त होता है और अन्दर का गूधा भी रोगी हो सकता है। कई बार बाहर का छिलका बिल्कुल स्वस्थ दिखाई देता है लेकिन भीतर से फल पूरी तरह सड़ा हुआ निकलता है। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि बाहर से निरोग और सुन्दर दिखने वाला शरीर भीतर से भी पूर्णरूप से स्वस्थ ही हो। अन्तःकरण के रोगों की बातें करते हुए वे कहते- हिंसा का घातक रोग दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा रहा है। यह रोग नैतिकता और हृार्दिक्ता का विनाश करता चला जा रहा है। यही कारण है आज सम्बन्धों मे विच्छेद बढ़ता जा रहा है। दूसरी तरफ अंहकार का रोग शरीर के भीतर का जल समाप्त कर देता है। अंहकार मनुष्य को सूखी लकड़ी जैसा रंगहीन और नमी से शून्य कर देता है। अंहकार व्यक्ति के शरीर की लचक को समाप्त करता ही है उस के भीतर की सहजता सरलता तथा विनम्रता को भी समाप्त कर देता है।
.......क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (22)
श्री सारथी जी के अनुसार चिकित्सा का अर्थ औषधी निर्माण नहीं है बल्कि शरीर में वात-पित-कफ को व्यवस्थित करना और इन तीनों विकारों की वृतियों को समझे बिना चिकित्सा कार्य आड़म्बर है। जैसे कोई सुदृढ़ और प्रभावशाली रचना किसी कलाकार के निरन्तर चिन्तन की प्रक्रिया होती है, वैसे ही स्वास्थय निरन्तर चिन्तन का विषय है। वे कहते आदमी मात्र मेरुदण्ड है बाकी कुछ नहीं। मेरुदण्ड ही मस्तिष्क है, मानस पटल है। शरीर की सारी शक्तिायाँ इस के द्वारा ही कार्य करती है। आयुर्वेद अर्थात आयु का, मानव अवधी का ज्ञान-विज्ञान। तो उस को प्राप्त करने के लिए मानव क्या है, क्यों है, कैसे है यह जानना बहुत आवश्यक है।
श्री सारथी जी बहुधा बताया करते कि किसी वस्तु के सम्पूर्ण आयाम को देखना, क्यों, क्या कैसे के बिना असम्भव है। संसार क्या है, क्यों है, कैसे है। मानव क्या है, क्यों है, कैसे है। प्रकृति क्या है, क्यों है तथा कैसे है तथा मानव शरीर क्या है, क्यों है, कैसे है। जब तक यह न समझ लिया जाए तो संसार की कोई बात समझ नहीं आयेगी। वे ब्रह्मऋषि वाल्मीकि के इस शलोक शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम् का अर्थ समझाते हुए कहते-शरीर को जानना बहुत आवश्यक है। शरीर को जाने बिना संसार के किसी धर्म का पालन नहीं हो सकता। जब तक मानव शरीर को नहीं समझ लेता, संसार में वह कुछ भी नहीं समझ सकता क्योंकि आदमी जो कुछ भी करता है वह प्रतिक्रिया है विचारों की ओर विचार मस्तिष्क में पैदा होते हैं। और मस्तिष्क संस्कारों से पैदा होता है। और संस्कार मन के द्वारा हैं। इसलिए जब भी कोई अनुसंधान होता है चाहे वह अन्तर्मुखी हो या बहिर्मुखी हो, मन से आरम्भ होता है। मन संस्कारों का वाहन हो। इसलिए शरीर का निर्माण यदि सतोगुणी चीज़ो से होगा तो उस के मन में सतोगुणी बातों का प्रादुर्भाव होगा।
कुछेक मानसिक रोगों का विवरण देते हुए वे कहते- अगर शरीर को संतरे के छिलके की भांति माना जाए तो भीतर का गूधा अंतस चेतन कहलाएगा। छिलका भी रोगग्रस्त होता है और अन्दर का गूधा भी रोगी हो सकता है। कई बार बाहर का छिलका बिल्कुल स्वस्थ दिखाई देता है लेकिन भीतर से फल पूरी तरह सड़ा हुआ निकलता है। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि बाहर से निरोग और सुन्दर दिखने वाला शरीर भीतर से भी पूर्णरूप से स्वस्थ ही हो। अन्तःकरण के रोगों की बातें करते हुए वे कहते- हिंसा का घातक रोग दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा रहा है। यह रोग नैतिकता और हृार्दिक्ता का विनाश करता चला जा रहा है। यही कारण है आज सम्बन्धों मे विच्छेद बढ़ता जा रहा है। दूसरी तरफ अंहकार का रोग शरीर के भीतर का जल समाप्त कर देता है। अंहकार मनुष्य को सूखी लकड़ी जैसा रंगहीन और नमी से शून्य कर देता है। अंहकार व्यक्ति के शरीर की लचक को समाप्त करता ही है उस के भीतर की सहजता सरलता तथा विनम्रता को भी समाप्त कर देता है।
.......क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध
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