सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Monday, 30 October 2017

सागर की कहानी (34)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (34)
अपने लेखन में प्रतीकों के प्रयोग के बारे में वे कहते हैं -मेरे लेखन में प्रतीकों का प्रभाव चित्रकला तथा कुछ सीमा तक संगीतकला के कारण है। वे लिखते हैं मैं चित्रकार तथा मूर्तिकार रहा हूँ। चित्र और मूर्ति की भाषा बहुत गहन प्रभावशाली तथा सम्प्रेष्यात्मक है। उस का कारण यह है कि सभी रंग रूपक हैं। सभी रंग स्वयं में कुछ न हो कर अन्य भाव-विचार, स्थिति, रस को दर्शाते हैं। चित्र में प्रयोग किए गए सभी रंग मानों बहुत सारी स्थितियाँ, रसों और रूपकों को जोड़ कर एक स्थिति में बाँध दिये गए होते हैं। अब उन का संदेश सामूहिक रूपाकात्मक होता है। सभी कुछ समझने पर निर्भर करता है। रंग पढ़ लेने पर ही कथ्य तक पहुँचना संभव होता है। हर रंग रूपक होने के साथ बहुआयामी होता है। लेखन में जिन शब्दों और अक्षरों की लेखक को आवश्यकता पड़ती है वह सभी शब्द रूपक हैं। एक ही शब्द में कितने ही आयाम गुप्त पड़े रहते हैं। आम भाषा में घर, बाहर, सड़क, पिता, बादल, आकाश, प्रकाश, अंधकार, सूर्य, अध्ययन यह सभी शब्द रूपक होने के कारण अपने पूरे अर्थों में उचित स्थानों पर बिराजमान होते हैं। पीले रंग के कितने ही अर्थ हमारे सम्मुख आ जाते हैं जैसे पतझड़, रक्तअल्पता, पाण्डु रोग, मृत्यु, भयातुरता, विरागदि। इस प्रकार हर शब्द व्यापक है। घर में क्या नहीं होता। गिनने लगें तो सदी लग जाए। फिर मैं एक ईंटों के घर में रहता हूँ। आत्मा शरीर रूपी घर में रहती है। सारा संसार प्रभु का घर आदि।
मुझे लगता है लेखन दो प्रकार से यात्रा करता है। एक यात्रा सार से विस्तार की ओर की है और दूसरी यात्रा विस्तार से सार की ओर मुख किए हुए है। परन्तु यदि लेखक, सर्जक, जनक के पास सार है तो विस्तार करने में कोई कठिनाई नहीं हेाती है। सार का अर्थ ऐसा कथ्य है जो किसी बहुत बड़े मानवीय विचार, समस्या पहेली, विज्ञटन तथा संत्रास के लिए होता है। मुझे लेखन से पहले हर बार यह संतुष्टि स्वयं को करबानी पड़ती है कि विषय वस्तु अथवा कथ्य काफी समय तक जीवित रहने की क्षमता रखता है। सार को सम्भाले रखने में व्यंजना भाषा मुझे लगा है कि सूक्ष्म है और सार के संदर्भों और अध्यायों की सार्थक अभिव्यक्ति तथा लगभग पूर्ण अभिव्यक्ति प्रतीको तथा चिन्हों के द्वारा संभव है।
श्री सारथी जी द्वारा प्रतीकों के प्रयोग पर पंजाबी के प्रख्यात साहित्यकार डा. करतार सिंह सूरी उन के पंजाबी उपन्यास बिन पैरां दे धरती की भूमिका में लिखते है - सारथी के ड़ोगरी और हिन्दी उपन्यासों के बारे में एक बात अक्सर कही जाती है कि वह संकेतों और प्रतीकों की भाषा का बहुत प्रयोग करता है, जिस के कारण उस की लेखनी में अस्पष्टता ओर धुंधलापन आ जाता है। पहली बात मैं स्वीकार करता हूँ कि वह प्रतीकों का अत्याधिक प्रयोग करता है और यह बात प्रस्तुत उपन्यास में भी खरी उतरती है। पर दूसरी बात से मैं सहमत नहीं कि वह अस्पष्ट और धुंधला है। मेरे अनुभव के अनुसार पाठक का उस के साथ जब तारतम्य स्थापित हो जाता है, जब पाठक उस की रचना के साथ एक सुर हो जाता है तो उस के बिम्ब और प्रतीक सहज ही ग्रहण होने लगते हैं। बिम्बों, प्रतीकों एवं संकेतों का प्रयोग वह क्यों करता है। इस बात को समझने के लिए मैं उस के समूचे व्यक्तित्व की थाह लेता हूँ।
सारथी एक चित्रकार है, संगीतकार है और लेखक है। सारथी मेरे विचार में किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं। वह चित्रकला, संगीतकला और लेखनकला के मिले झुले रूप की संज्ञा का आकार है। सारथी की लेखनी की यात्रा सुरों, धुनों ओर शब्दों-अर्थों से पहले रंगों के रास्ते अभिव्यक्ति का माध्यम ले कर चलती है। और फिर समय बीतने के साथ अभिव्यक्ति ने अर्थों, शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, संकेतों ओर चिन्हों का माध्यम अपनाया। असल में रंगों और लकीरों की कला, संकेतों और चिन्हों-बिम्बों की भाषा है। इसीलिए सारथी की गद्य रचना में संकेतों, प्रतीकों और बिम्बों की बहुलता है।
दूसारी तरफ सारथी को संगीत बिरासत में मिला है। सुर-लय और ताल का गहन अनुभव उस के अन्दर रचा-बसा है। वह सुर का जानकार होने के नाते आदमी के अन्दर और बाहर के रूप को पहचान सकता है। इसलिए वह अपनी लेखनी में अदृष्य, अरूप और सूक्ष्म अनुभवों को अस्तित्व देता है।
.......क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध

Friday, 27 October 2017

सागर की कहानी (33)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (33) 
सारथी जी को नवीन शिल्प, नवीन कथ्य एवं प्रतीकों तथा संकेतों के अधिकाधिक प्रयोग हेतु एक प्रयोगधर्मी रचनाकार की संज्ञा दी जाती है। उन की कहानियों, नाटकों एवं उपन्यासों में न तो परम्परागत पात्र ही दिखाई देते हैं तथा न ही उन का परम्परागत चित्रण ही देखने को मिलता है। वे कहा करते- हम जिसे सोचना कहते हैं वह घिसी पिटी लीक को बार बार पीटना है। पहनना क्या है, खाना क्या है, सोना कहाँ है। आम लोक परिपाटी को, लीक को पीटते हैं। परन्तु आध्यात्म तर्क से आरम्भ होता है। सृजन भी तर्क की ही देन है। यदि संशय में गिरोगे तो सृजन कर सकोगे। उनके शब्दों में संदेह विचार को जन्म देता है। विचार तर्क का जनक है। तर्क निर्णय में ले जाता है तथा निर्णय ही निर्माण का आधार है। हाँ सुविधा में जीने वाला तर्क को सहन नहीं करता परन्तु यदि वास्तव में कोई जीवन को सरल, सुखमय बनाना चाहता है तो उसे तर्क में से गुज़रना ही पड़ेगा।
वास्तव में सारथी जी बने बनाये रास्ते पर न चल कर अपनी राह स्वयं बनाते चले गए। जिस प्रकार एक गोताखोर अपनी शक्ति और साहस के बल पर सागर की गहराई में उतर कर अनदेखे संसार को देखता है वैसे ही प्रयोगधर्मी सारथी जी साहित्य एवं कला के सागर की अतल गहराई में जाने का जोखिम भी उठाते रहे और उस गहराई से प्राप्त मोती माणिक्य इत्यादि से जगत को लाभान्वित भी करते रहे। प्रयोगधर्मिता को स्थापित करता उनका यह शेअर इसी भाव को स्थापित करता है।
मैं राह ढ़ूँढता हूँ नई मुझ को सजा दो।
ईसा हूँ मैं सलीब उठाने के लिए हूँ।
शंकर शर्मा पिपासु - व्यक्तित्व और कृतित्व नामक पुस्तक में श्री सुभाष भारद्वाज लिखते हैं -पिपासु के साथ इस लेखक का संपर्क 10 - 12 वर्ष तक रहा है। इनमें अधिकांश मुलाकातें किसी साहित्यिक आयोजन विशेषतः किसी कवि गोष्ठी अथवा कवि सम्मेलन में ही हुआ करती थी। इसलिए उनके व्यक्ति के भीतर झांकने के बहुत ही कम अवसर मिलते थे। हां उन कुछ महीनों की यादें शायद कभी नहीं भूलेंगी जब अपने एक साहित्यकार बंधु ‘सारथी’ के निवास पर हम चार पांच साहित्यकार नित्य मिलते थे उस कमरे को जहां हम बैठक करते थे हमने प्रयोगशाला का नाम दिया था वहां लगभग रोज बैठने वालों में पिपासु भी थे
सारथी जी न तो तथाकथित नवीनता के पक्षधर थे तथा न ही नयेपन के नाम पर स्वछन्दता एवं वैयक्तिक स्वतन्त्रता की दुहाई देने वालों के हिमायती ही थे। वे लिखते हैं- नये की परिभाषा तो यह होनी चाहिए कि जो लिखा गया, चित्रित किया गया अथवा तराशा गया है वह कलाकार मंगल ग्रह, वृहस्पति ग्रह या शुक्र ग्रह से ले कर आया है। वह सब इस धरती पर कहीं भी नहीं था। और यदि वह सब कुछ यहीं पर था, प्लाट, भाषा, शैली, लय-ताल, गति-यति इत्यादि तो रचना नयी क्या और कैसे हुई। यह कहा जा सकता है कि पहले वह अदृष्य थी अब दृष्य हुई है। Discover अब हुई है। वैसे भी यह सृष्टि बहुत बड़ी है। जीवन बहुत लम्बी यात्रा है। उस के मुकाबले में रचनाकार एक कण भी नहीं। 
पत्थर ते रंग उपन्यास में वे लिखते हैं- आकाश कभी नया पुराना नहीं होता। सागर कभी नया पुराना नहीं होता, धरती कभी नयी पुरानी नहीं होती। सूरज, चाँद, तारे, हवा, पानी, अग्नि, ठण्ड़क भी नये पुराने नहीं होते। एक कलाकार इन्हीं सभी तत्वों का जाया होता है। वह भी नया पुराना नहीं होता।
वास्तव में नये पन का सम्बन्ध व्यक्ति के चिंतन मनन एवं अनुसंधान से है। नये पन का सम्बन्ध कलाकार अथवा साहित्यकार के अनुभवों और अनुभूतियों से है। जिस समय कलाकार अपने किसी दृष्टिकोण का निर्माण कर लेता है उस के लिए हर तत्व, पदार्थ नया हो जाता है। इसी भाव को अभिव्यक्त करते हुए पत्थर ते रंग में वे लिखते हैं- सूरज, सागर, चित्र, गीत, कथा, नृत्य, दर्शन, अक्षर और ज्ञान, संगीत और मूर्तियां यह सब कुछ कभी भी नया पुराना नहीं होता परन्तु व्यक्ति की यह धारणा है कि वह रात के बाद आने बाले सूरज को नये तरीके से अनुभव करे। चित्र को ओर नया देख सके। संगीत को ओर नये सुरों में महसूस कर सके। मूर्ति से नित नया संदेश उसे मिले। अक्षर, ज्ञान-विज्ञान और अथे के साथ वह फिर से साक्षात्कार करे।
फिर नयेपन को समय की माँग, समय की आवश्यकतायों से जोड़ते हुए तथा नयेपन को परिभाषित करते हुए इस उपन्यास में वे लिखते हैं- समय अपने आप में स्वयं नया होता है। जो कुछ उसे चाहिए होता है वह करबाता जाता है। समय से अलग रह कर रचनेवाला, शऊर वाला कुछ भी नहीं कर सकता। एक ही नियम सब का सांझा होना चाहिए कि जो कुछ आज माँग रहा हे वह उसे दिया जाये।
जो नवीनता एवं प्रयोगधर्मिता को, वैयतिकता को सामाजिक दायित्वों से अधिक महत्व देते उन का सारथी जी सदैव खण्ड़न करते। वास्तव में प्रयोवाद के दौरान प्रयोगों के नाम पर जिस प्रकार साहित्य में अश्लीलता एवं कामुकता परोसी जाने लगी उस पर अपनी खिन्नता प्रकट करते हुए सारथी जी पत्थर ते रंग उपन्यास में लिखते हैं- सृजन की कल्पना अपने पन की कल्पना है। अपने पन की विशालता की कल्पना है। अपने पन की कामना, सुन्दरता एवं सुकून की कल्पना है। सृजन की कल्पना एक दूसरे के लिए खड़े होने तथा एक दूसरे को स्वयं में भर लेने की कल्पना है। कुछ कलाकारों का नयापन अकेलापन है। इस शहर को , वातावरण को, लोगों को, लोगों पर छाए अम्बर को और शहर की धरती को साथ रख कर जो कल्पना की जायेगी वह नयी होगी। और कल्पना का रचनाकार शहर में नहीं रहेगा, वातावाण में नहीं रहेगा, सारा शहर, लोग और वातावरण उस में रहेंगे। 
.......क्रमशः .............कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 26 October 2017

सागर की कहानी (3२)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (3२)
सारथी जी के कथानुसार-‘शास्त्रानुसार भाषा शैली तीन प्रकार अथवा तीन विधा की है। व्यंजना शैली सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। लक्षणा द्वितीय तथा अभिधा की हल्की विधाओं में गणना होती है। निजि तौर पर मैं व्यंजना शैली को ही अपनाने का आदि हूँ। मैंने जो कुछ भी ईश्वर कृपा से और ईश्वर प्रदत शक्ति, साम्थर्य से अभिव्यक्त किया है वह व्यंजना शैली में ही साकार हुआ है। उस का मूल कारण लगभग यह है कि मैं बुनियादी तौर पर बात को, विचार तथा भाव को प्रतीक के रूप में ही अनुभव करने का आकांक्षी होता हूँ। मुझे अनेकों बार ऐसा लगा है कि मैं अपने चिन्तन को बहुआयामी विधियों से मूर्तिमान होते देखते आया हूँ। और अभिवयक्ति के समय कथ्य का बहुआयामी पक्ष गुम न हो, हाथ से न टूटे और सभी कुछ कह दिया जाये तो बात पूरी होती है और यह तभी संभव है जब मैं प्रतीकों में और संकेतों तथा चिन्हों में स्वयं को व्यक्त करने का प्रयास करूँ।‘
उन के अनुसार- ‘कथ्य ही सतोगुणी, कथ्य ही रजोगुणी और कथ्य ही तमोगुणी होता है। इन के आधार पर अभिव्यक्ति भी उच्चतम, सामान्य और निकृष्ट होती है।‘
वे कहते –‘उत्कृष्ट अभिव्यक्ति सारगर्भित और मानव हेतु आरोहण का मार्ग प्रशस्त करने वाली ऊर्ध्वगमनीय होती है। कई बार मानव में क्रान्ति के बीज भी बो देती है और निकृष्ट अभिव्यक्ति का सत्य और संवेदना से कोई सरोकार नहीं होता। वह पदार्थ से ही जन्म लेती है, पदार्थ ही का प्रमाण होती है और पदार्थ के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है।
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए वे कहते- लेखन भगवान की परम कृपा से होना संभव है। यह लेखक नहीं जो लिखता है, उस के उच्च कर्म, उच्च संस्कार तथा संस्कारों के अनुसार प्राप्त संवेदना ही अक्षरों के रूप में ढ़लती जाती है। मैं दर्शन को साहित्य की आत्मा मानता हूँ और सौन्दर्य को साहित्य का परमलक्ष्य। एक साहित्य का साधक अपनी साधना द्वारा अज्ञात की ही निरन्तर खोज में रहता है। सत्य ओर सौन्दर्य का वह चरम बिन्दु कहाँ है जो कि उसे शान्त करे, सन्तुष्ट करे, यही लक्ष्य मेरा सदैव रहा है।
संवेदना लेखन की रीढ़ की हड्डी है। संवेदना का प्रादुर्भाव होने पर ही मैं अभिव्यक्ति हेतु बाध्य होता हूँ । कथ्य, मूल भूमि, बस्तु तो पहले ही से हर दिशा में विद्यमान है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। समस्त साहित्य जो कि मानव मात्र की करुण दशा के प्रति अनुभूति करबाता है अथवा किसी संघर्ष की ओर इंगित करता है, उच्चतम साहित्य की कोटी में ही गिना जा सकता है। मैं जो लिखता हूँ, जिस प्रकार के कथ्य का, भूमि का, बस्तु सत्य का चुनाव करता हूँ, उस के लिए मार्ग मैं स्वयं ही निर्धारित करता हुआ हूँ।
मेरी आकांक्षा होती है कि मैं मानव के अन्तस में छिपे उन विचारों, भावों, कर्मों का चित्रण करूँ जो मानव को दोहरी भूमिका प्रस्तुत करने में बाध्य करते हैं। और बनते-बनते एक आदमी जो स्थानानुसार, अवसरानुसार स्थिति को परखते हुए स्वयं को निरन्तर बदलता जाता है। वह स्वयं के भीतर दोष भरता जाता है, वह Guilty होता जाता है। मानव समाज में रहने और अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए ही वह यह सब करता है, परन्तु वह इतना कृत्रिम, इतना बनावटी होता जाता है कि उसे एक दिन ढ़ू़ँढ़ना कठिन हो जाता है कि उस के भीतर का वास्तबिक आदमी कहाँ है।
दूसरा संदर्भ चेहरों और मुखोटों का संदर्भ है, जो अवसरवादी होने का ही दूसरा रूप है। आज का मानव अपने पास इतने मासूम और आकर्षक चेहरे रखे हुए है जो वह अपने भयावह मुँह पर चढ़ा लेता है, यह एक चिन्ता का विषय है और यह मुझे अत्याधिक रुचिकर लगता है।
तीसरा विषय है- मानव का निर्माण, शिक्षा के मूल्य। सभ्यता और व्यवहारिक्ता का अभाव। आज दशा है-बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए। शिशु ही मानव बन कर समाज निर्माण करता है। जैसा शिशु तथा उस के संस्कार होंगे बैसा ही वह समाज निर्माण करेगा।
आज के वैज्ञानिक और तकनीकी काल ने सभी को पर्दाथवादी और पर्दाथभोगी बना दिया है। आदमी के अशांत और असंतुष्ट रहने का शायद यही कारण है कि वह पदार्थ और उस की प्राप्ति में सुख और अप्राप्ति में दुख का अनुभव कर रहा है। पदार्थ के पीछे अन्धी दौड़ का परिणाम है- मूल्यों का हनन एवं हृास। मैंने उपन्यासों और निबन्धों में इस हनन पर चिन्ता के साथ-साथ मानवीय वृति पर भरपूर कटाक्ष किए हैं। बालक को इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफैसर, एडमिनिस्टर, वैज्ञानिक बनाने हेतु समाज में विश्वविध्यालय तथा संस्थान स्थापित किए हैं, परन्तु कहीं कोई ऐसा संस्थान दृष्टिगोचर नहीं होता जहाँ शिक्षार्थी को मानव, एक नीतिवान, शालीन तथा विचारक मानव बनाया जाना अनिवार्य हो। शिक्षार्थी चाहे कुछ भी बन जाये, परन्तु उस का स्वयं की शक्तियों - क्षमताओं को जानना समाज के लिए अनिवार्य है। मेरे विश्वास के अनुसार साहित्य मनोरंजन नहीं है, बड़ा भारी दायित्व है। इसी कारण मुझे कथावस्तु के चयन में कभी कोई विलम्ब अथवा वाधा नहीं आई। इस के विपरीत मेरे आसपास इतने कथ्य फैले हैं कि चयन ही कठिन हो जाता है।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 24 October 2017

सागर की कहानी (31)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (31)
अपनी लेखन यात्रा उन्होंने ऊर्दू भाषा से आरम्भ की। आर्मी के कार्य काल के दौरान वे शरतचन्द एवं प्रेमचन्द से बेहद प्रभावित थे तथा तभी उन्होने ऊर्दू में रचना कर्म का श्रीगणेश किया। इस के बाद उन्होने हिन्दी तथा पंजाबी में कहानी लेखन द्वारा अपने रचना धरम को निभाया तथा अन्ततः वे डोगरी के प्रतिष्ठित कहानीकार के रूप में स्थापित हुए। श्री सारथी जी का प्रथम उर्दू कहानी संग्रह उमरें 1965 में प्रकाशित हुआ। यह कहानियाँ उन्होंने अपने सेना के कार्यकाल के दौरान लिखीं जिन्हें बाद में प्रकाशित करबाया गया। 
वास्तव में यह वो समय था जब देश नवीणीकरण के पथ पर आगे बढ़ रहा था। देश भर में नए नए उद्योग लगाए जा रहे थे। सड़के रूप आकार ग्रहण कर रही थीं, इमारते बनाई जा रही थीं। सारथी जी इस तथाकथित विकास में मानव के कद को घटता हुआ देख रहे थे। इस दर्द की अभिव्यक्ति उनके प्रथम डोगरी उपन्यास त्रेह समुन्दर दी में हुई है। वे लिखते हैं-‘प्रचीन गलियाँ घड़े हुए पत्थरों की बनी हुई थीं। नगर को घेरने व मिलाने वाली सड़कें प्रायः कच्ची थी। नगर के मन्दिरों के रंग प्राचीन थे परन्तु थे टिकाऊ। नगर के बासी कच्चे मकानों में रहते थे परन्तु थे दृढ़ व समर्थ। धीरे धीरे नगर अपने स्थान से सरकने लगा। उन्नति करने लगा, अग्रगमन करने लगा। गलियाँ पक्का होना प्रारम्भ हुई। मकानों में गारे के स्थान पर सीमेंट व सरिया प्रयोग होने लगा। परन्तु मनुष्य कच्चे होते गए। भुरभुरे होते गए। मनुष्य जर्जर व खोखले होते गए’।
इसी क्रम में उपन्यास में वे आगे लिखते हैं – ‘मुहल्ले में सीमेंट, सरिया व ईंटे आ जाने के कारण पड़ोसियों के स्वभाव में अन्तर आ गया। पहले मूँग की दाल एक हाँडी में बन कर कटोरी द्वारा घर घर घूमती थी परन्तु धीरे धीरे कटोरी व पतीले का घेरा कम होता गया। अब गली से गुजरते हुए सुगन्ध द्वारा अनुमान लगने लगे कि किस घर में सब्जी बनी है और किस घर में दाल उबली है’।
शहर के तथाकथित विकास के समब्न्ध में वे लिखते हैं –‘पुराना चित्र नए रंगों से नवीन हो रहा था। शहर विकास कर रहा था। परन्तु इस बीच किसी भी भले मानस को विचार नहीं आया कि नगर मनुष्यों को ले कर बसते हैं। मनुष्यों से बनते हैं। नगर की शोभा मनुष्य हाते हैं मनुष्यों की शोभा नगर नहीं होते’।
शिक्षा के क्षेत्र में जिस विकास के नारे लगाए जा रहे थे, उस पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं – ‘इस के साथ साथ एक और अपरिचित दौड़, शिक्षा के क्षेत्र में लगी। नगर में जहाँ गिने चुने पाँच सात विद्यालय थे वहाँ अब विद्यालयों की संख्या में बढौतरी होने लगी। मानों शहर की बढ़ती जनसंख्या के साथ ही विद्यालयों की दौड़ लग गई हो। नए विद्यालय खुले अनगिनत - असंख्य। प्रत्येक पाँचवे छत पर विद्यालय का बोर्ड दिखाई देने लगा। विद्यालयों के भवन इतने सुन्दर व लुभावने थे कि लोगों को विश्वास हो गया कि उनके बच्चे चोटी के ज्ञानवान हो जाँएगे। यह सोचे बिना कि भवन बच्चों को नहीं पढ़ाते उन में निवास करने वाले सोमदत्त ही बच्चों को पढ़ाते हैं’।
त्रेह समुन्दर दी उपन्यास 1965 में प्रकाशित हुआ जबकि बिन पैरां दे धरती नामक पंजाबी उपन्यास का प्रकाशन वर्ष 1990 है। इस अंतराल में बेढंगी प्रगति की वेदना और अधिक सशक्तता एवं मार्मिकता से सारथी जी की रचनाओं में प्रकट होती है। उनके दर्द एवं पीड़ा का यह विकास क्रम उन की अन्य रचनाओं में भी स्पष्ट देखा जा सकता है। बिन पैरां दे धरती में वे लिखते हैं – ‘चार दिवारी ने ढकने और छुपाने का गुण छोड़ दिया था। बरामदे ने स्वागतम के स्थान पर पैर धरने वाले को घूरना आरम्भ कर दिया था’। 
एक ओर स्थान पर वे लिखते हैं- बसती का जो नया रूप उभर कर सामने आया था, उस के हिस्से दो अलग आकारों में दिखने लग गए थे। एक हिस्सा ऐसा था जहां रोशनी, प्रकाश, काम-काज, धन्धे कभी भी समाप्त नहीं होते थे।....... सब कुछ आठो पहर चलता रहता था। .............. दूसरे हिस्से में दूर तक न रोशनी थी, ना ही धन्धों, कार्यों के चिन्ह थे। वे लोग पैर और सड़क किसी भी चीज़ को प्रयोग में नहीं ला सकते थे।
तरक्की एवं उन्नती के नाम पर वृक्षों को काटा जा रहा था, मशीनीकरण के कारण आम व्यक्ति का अपने काम धन्धों से हाथ धोते जारहा था। इसी संदर्भ में बिन पैरां दे धरती में वे लिखते हैं- ‘बसती तेजी से बढ़ कर वीराने को निगल रही थी। बीराना अपने अस्तित्व को संभालने हेतु आगे बढ़ रहा था। बसती का विस्तार उस का पीछा कर रहा था’।
तमाशे में उलझा व्यक्ति तमाशा क्या है नहीं जान सकता। परन्तु बसती को दूर से देखने वाला ही बसती के बारे में निर्णायक हो कर कुछ कह सकता है। वीराना एक ऐसा स्थान है जहां से शहर को, बसती को साक्षी भाव से देखा जा सकता है। सन्त कबीर कहते हैं- राम झरोखे बैठ कर जग का मुजरा देख। श्री सारथी जी अपनी विवके दृष्टि से बसती को देखते है तथा उस का विवरण अपनी रचनाओं में करते चले जाते हैं।एक लेख में वे लिखते हैं- ‘हमारे नगर में एक नई बीमारी तीव्रता से फैल रही है। जिस के पास कमरे में ढलान में, डयोढी में, वाथरूम में अर्थात कहीं भी छः आठ फुट का स्थान है, वह वहीं पर करियाना का सामान और डबल रोटी और मिट्टी का तेल रखने जा रहा है’।
अपने समृद्ध अतीत को स्मरण कर एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं – ‘मुझे अपना बचपन याद आ गया है। शहर में तीन चार पंसारी हुआ करते थे।ऊपर के शहर में नानक पंसारी और भगता पंसारी। दक्षिण शहर में दौलत पंसारी और सुन्दर पंसारी। इनके पास जोशीन्दा, पंचरका सभी कुछ था। यह सारे डाक्टर, हकीम, वैद्य, तबीव सभी कुछ थे।..............अब गली गली में पंसारी बैठा है। न जोशांदे का पता है, न ईसबगोल का और न ही पंचरके का। अब तो बस डबल रोटी, एक्लेयर की टाफियां, टू मिन्ट न्यूडल्स और टोमैटो कैचअप की बातले हैं।
पंजाबी उपन्यास रणखेत्तर का मुख्य पात्र भी वीराने का निबासी बताया गया है । वे लिखते हैं- ‘जहां वीराना खत्म होता था वहां से बसती शुरू होती थी और जहां बसती खत्म होती थी वहां वीराना आरम्भ होता था। उस का अंधेरा जैसा तिकोना कमरा उसी सीमा पर था’। श्री सारथी जी की अन्य रचनाओं में भी रचनाकार पूरी बसती अथवा नगर का सर्वेक्षण करता चला जाता है। वह नगर की विकृतियों, अभावों एवं अवमूल्यनों को कलमबद्ध करता हुआ पूरे नगर का विषलेषण हमारे सामने प्रस्तुत करता है। प्रतीत होता है सामूहिक विवके ही बड़े मंच पर खड़ा हो कर सारा विवरण दे रहा हो। सारथी जी स्वयं लिखते हैं- ‘जितनी जल्दी हो सके किसी टीले पर चढ़ जाओ। यह तो तुम्हारी अपनी वीरता होगी कि चढ़ने के लिए कितना ऊंचा टीला तुम ढूंढ सकते हो।........... टीले पर चढ़ने का सीधा मतलब पदार्थ मे से निकल आने का है। ऊपर उठने का और आध्यात्मिक प्रवृति का होना और अंतमुर्खी हो जाना है। ऊपर हो जाने का अर्थ बड़े और विशाल हो जाना है। सहनशील हो जाना और सब से बड़ी बात संतुष्ट हो जाना है। ऊपर हो जाने का अर्थ सब को सम्पन्न देखना और दूसरों की सम्पन्नता में आनंद का अनुभव है .........यदि तुम एक क्षण के लिए तुलना में से निकल कर समाने आ सकते हो तो आ जाओ। फिर तुम देखोगे कि तुम सच ही संसार के महान व्यक्तियों में से एक हो। तुम देखेगे कि तमु उन सब में हो जो भक्त हैं, ज्ञानी है, विवेकशील हैं, बुद्धिमान हैं, कर्मठ हैं, जो संतुष्ट हैं। 
सबसे बड़ी बात एक परिवर्तन की अनुभूति होगी। तुम देखेागे कि सभी लोग क्रोध से घृणा करेंगे। सभी लोग शांति चाहेंगे। सभी सुख समृद्धि ओर निरोग की कामना करेंगे। सभी ऊपर उठ जाएंगे। सारा समाज श्रेष्ठ हो जाऐगा। समस्त मानव समाज ही स्वर्ग की अनुभूति करने लगेगा। 
..............क्रमशः..............कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 12 October 2017

सागर की कहानी (30)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (30)
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते है - मास्टर संसारचन्द जी के एक वैज्ञानिक मित्र कश्मीरी लाल हांडा ड्रग रिसर्च प्रयोगशाला में कार्यरत्त थे। वहाँ दो-चार दिन मेरी परीक्षा चलती रही। मुझ से चोपड़ा साहब ने ब्रैंकड़ धतूरा के रेखाचित्र बनवाए और मुझे प्रयोगशाला में म्यूज़िम सहायक की नौकरी मिल गई। इस के साथ ईश्वर ने नौकरी की चिन्ता समाप्त कर दी।
वे लिखते है- अब मेरा विकास तीन दिशाओं में होने लगा। बाटनी में एक बोटैनिकल चित्रकार के नाते, समाज में ऊर्दू और डोगरी के लेखक के नाते और संगीत के क्षेत्र में गायक-वादक के नाते। रेडियो जम्मू से कहानी कविता के अनुबन्ध मिलने लगे। पहली फीस पच्चीस रूपये मिली। फिर श्री विष्णु भारद्वाज जी से मुलाकात हुई। उन्होंने नाटक लिखने की प्रेरणा दी। मैने हिन्दी, ऊर्दू और डोगरी में नाटक लिखे हैं जिन की संख्या पचास से अधिक है।
सत्तर-पचहतर तक हिन्दी, ऊर्दू, डोगरी पंजाबी की कोई बात न थी। मैं कईं गोष्ठियों में चारो भाषाओं की ग़ज़ले पढ़ता था। यदि न पढ़ता तो इसरार किया जाता।
सारथी जी भाषा को मात्र अभिवयक्ति का ही माध्यम मानते। उन के अनुसार भाषा साध्य नहीं साधन है। वे कहते भाषा तक ही सीमित रहना ठीक नहीं। वास्तविक बात तो उस अनुभूति की है जो कुछ अभिव्यक्त करेगी। एक अच्छी रचना चाहे किसी भी भाषा में लिखी जाए पढ़ने बाले को प्रभावित अवश्य करेगी। वे अक्सर कहा करते जो बात कही जानी है वह अपनी भाषा स्वयं ले कर आती है। उन्होंने संकेतों और प्रतीको की भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त किया है तथा सब को भाषा की गुटबंदियों से उपर उठ कर स्वयं को अभिव्यकत करने की प्रेरणा दी है। उन से प्रेरणा एवं मार्गदर्शन लेने वाले हर भाषा के लोग हुआ करते थे। डोगरी भाषा को आठवें छडयूल में शामिल किए जाने वाले आन्दोलन के बारे में वे लिखते हैं -दरबारी, सरकारी मान्यता तो उस बात को चाहिए होती है जिस का साधारण लोगों में कोई आधार न हो। जिस बोली या भाषा को लाखों-करोड़ों लोग बोलते हों, उस की मान्यता के लिए जनमत पैदा करना हास्यास्पद सा लगता है। इस में ज़रूर कहीं लेखक की कमज़ोरी है, कोताही है, अज्ञानता है या उस की लाचारी है। लेखक ने ही दर्द के वो मुकाम खोजने है जिन के निरनतर प्रकाश में आने से क्रान्ति के स्वर उभरते हैं।
यदि किसी भाषा को मान्यता मिलती भी है तो लाभ चापलूसों और खिलाड़ियों को ही होता है। कवि, कथाकार, उपन्यासकार, निबन्ध्कार, जीवनीकार, नाटककार को रत्तीभर भी फायदा नहीं होता। वे कहते भाषा के भाग्य का निर्माण न तो रैजीमैंटेशन पर आधारित है और न ही आप ही अच्छा और बहुत अच्छा कह कर। भाषा के भाग्य का दारोमदार न तो वेतन है ना किसी का निजि प्रभाव। यह सब कुछ समय के लिये किसी के नाम का डुबा या उछाल सकता है पर वास्तव में भाग्य का निर्माण लेखक और पाठक के हाथों में है, यह बात आज भी सत्य है और कल भी यही सत्य होगा।
.......क्रमशः....कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 11 October 2017

सागर की कहानी (29)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (29)
श्री सारथी जी की कहानियों एवं उपन्यासों में भी चित्रात्मकता अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती है । नंगा रुक्ख की समीक्षा करते हुए प्रख्यात साहित्यकार एवं समीक्षक भोलानाथ भ्रमर लिखते हैं - जैसे चित्रकार एक के बाद एक चित्र बना कर उन की प्रदर्शनी करता है और समझदार पाठक उन का केन्द्रीय भाव पकड़ता है। वैसे ही चित्रकार सारथी की कलम ने शब्दों से कुछ चित्र बनाये हैं और इस उपन्यास के रूप में उन की प्रदर्शनी प्रस्तुत की है। चित्रों के पास बाणी नहीं होती, वाणी के पास आँखों के दृष्य-विषय नहीं होते, किन्तु चित्रकार की आत्मा बाले लेखक के पास शब्दों की भाषा बोलने वाली तस्वीरें होती हैं। सारथी के नंगा रुक्ख की यह सब से बड़ी विशेषता है कि नंगा रुक्ख के चित्र मार्मिक, विचारोत्तेजक एवं व्यंग्य और प्रतीक की बाणी बोलते हैं।
श्री सारथी जी कहते – “यदि जीवन के द्वार कला-साधना के लिए खुल जायें तो प्रकृति में मानव शरीर के भीतर असंख्य प्रकार के साधना के आयाम देखे जा सकते हैं और उन के परस्पर सम्बंध अनुभूत किए जा सकते हैं। जैसे भतृरिहरि ने कहा है-
साहित्य संगीत कला बिहीनः
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः
तो वेदो ने कहा है - सा कला या विमुक्तये- जहां कला साधना, पशु की योनि से निकाल आदमी को सौंदर्य और दर्शन में प्रवेश करबाती हैं वहीं पर कला मुक्ति के द्वार भी खोलती है। मुक्ति के लिए एक सेतु का कार्य भी करती है”।
वे कहते- “मैं बहुत सामान्य बुद्धि का बालक था। फिर सब से पहले मेरे कला गुरू ने मिट्टी के खिलौने बनवाये। फिर रेखा चित्र । फिर सुसभ्य व्यक्तियों की संगति में पहले अच्छा, फिर श्रेष्ठ, फिर उच्चतम् साहित्य पढ़ने को मिला। इसलिए मेरा विचार है कि विकास की संभावना व्याप्त है, पर्याप्त है और किसी भी समय किसी का भी विकास आरम्भ हो सकता है। और वह विकास किसी भी चर्म-सीमा को छू सकता है। एक छोटे से उदाहरण के तौर पर वह अपने दो-चार शिष्यों का वर्णन करते। वे कहते- मैं बहुत छोटा हूँगा कि पिताश्री के पास बैठ गायन सुना करता था। उन की आकांक्षा थी कि मैं शास्त्रीय संगीत सीखूँ। जब उम्र हुई कि हारमोनियम का अभ्यास और तबले का ज्ञान प्राप्त कर सकूँ तो सीखने और शिक्षा दोनों का क्रम बनता गया। परन्तु पिता श्री का बार-बार कहना कि लय-ताल को गहनता से समझों क्योंकि बेसुरा चल जाता है पर बेताला नहीं चल सकता। मैंने ताल की ओर अधिक ध्यान देना आरम्भ किया। पठन में हिन्दी-संस्कृत मेरे प्रिय विषय रहे। यह प्यार संगीत के अध्ययन में क्रियान्वित हुआ। भरतमुनि, दामोदर पंडित, अमीर खुसरो और भातखन्डे आदि द्वारा रचित पुस्तकों का अध्ययन साथ चला। परन्तु लेखन के प्रति जिस प्रवृति ने अधिकाधिक आकृष्ट किया वह थी भक्तपदावली तथा भजन संग्रहों का सदैव दृष्टि में रहना। मीरा, तुलसी, सूर कबीर, नानक, रामदास, सहजो, ब्रह्मानंद आदि की आध्यात्मिक रचनाओं ने एक मेरा संगीत तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण दर्शाने का वृहत कार्य किया। दूसरे हर रचना शास्त्रोक्त विधि से सीखने के साथ मुझे रचनाओं ने तरंगित किया जिस के फलस्वरूप मेरे अन्तस में संवेदना का अतिसूक्ष्म बीजारोपण हुआ। पिताश्री निरन्तर अभ्यास करते। वे ताल के ज्ञाता थे। परन्तु अत्यन्त सूक्ष्मभावी तथा स्नेहमय। साथ-साथ कहते जाते कला तो प्रेम की छलछलाती सरिता है। अच्छी शिक्षा विषय का ज्ञान ही नहीं विषय से प्रेम भी सिखाती है। विषय से प्रेम जीवन ही से प्रेम है और जीवन से प्रेम समग्रता से, सर्व से प्रेम है। सर्व से प्रेम ही प्रभु के होने से प्रेम है। एक कलाकार कला के द्वारा प्रभु तक पहुँच जाता है”।
सारथी जी बताते- “नवीं-दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते कलागुरू श्री संसारचन्द शर्मा जी से शिष्यता प्राप्त हो चुकी थी। उनके निर्देश आदेश में मिट्टी की मूर्तिकला तथा चित्रांकन का अभ्यास बहुत ही रूचिकर लगने लगा था, मुझे याद है सोचा करता था कि रात ही न हो। मात्र अभ्यास और पठन-पाठन जारी रहे। साथ- साथ हमारे समय के अध्यापक अध्यापन पाठन को ही समर्पित थे। उनका लक्ष्य ही हर बालक को विधा-कला सम्पन्न करना था। मेरे अन्तस चेतन में अब भी कुछेक गुरू आकृतियां हर क्षण विद्यमान रहती हैं। पंडित शुक देव शास्त्री जी, वामदेव जी, श्री श्याम लाल शर्मा, श्री तपस्वी राम जी ऐसे ही महान अध्यापक रहे।
आज का और तब का समय तुलनीय कदापि नहीं है। सागर की बिन्दु से भला क्या तुलना”।
.........क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध

Monday, 9 October 2017

सागर की कहानी (28)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (28)
श्री सारथी जी की किसी भी बात के बारे में पूर्वानुमान लगाना लगभग असम्भव सा था। उन की हर बात, हर क्रिया जो देखने में कितनी ही अर्थहीन दिखे भीतर किसी बड़े अर्थ को समेटे हुए होती। संस्कार भारती का चित्रकला शिविर गीता भवन में चल रहा था। उस शिविर में कई दिनों तक सारथी जी गीता भवन के प्रथम तल पर बने एक हालनुमा कमरे में भारतीय महापुरुषों के चित्र बनाते रहे। उन से कला के गुर सीखने वालों में उनके शिष्यों के साथ-साथ संस्कार भारती के अन्य सदस्य भी शिविर में मौजूद रहते। ......उन के द्वारा बनाए एक खूबसूरत भूदृश्य की पृष्ठ भूमि में त्रिकुटा की पहाड़ियां नजर आ रही हैं। उनके आगे किसी चट्टान पर कोई गारड़ी (लोक गायक) डोगरा परिधान पहने, सिर पर पगड़ी, लंबा कुर्ता और चूड़ीदार पायजामा पहने दिखाई दे रहा है जिस ने हाथ में एक लाठी पकड़ रखी है और उसके साथ ही एक गठरी पड़ी है। गारड़ी एक चट्टान पर बैठा है। गारड़ी (लोक गायक) लोकगायकी का तो प्रचार प्रसार करते ही वे डुग्गर संस्कृति के संवाहक के रूप में भी कार्य करते। एक गांव से दूसरे गांव चलते जोगी एक का संदेश दूसरे तक तथा दूसरे का तीसरे तक पहुंचाते जाते और कारकों, विशनपतों तथा बारों के द्वारा लोगों के मन में अपना स्थान बनाते चले जाते। पूरा भूदृश्य डुग्गर आँचल की एक प्रतिनिधि तस्वीर के रूप में उभरा है। गारड़ी के चेहरे पर संतोष का भाव है साथ ही अध्यात्मिक आनंद भी प्रकट हो रहा है ।
.......एक दिन भगवान श्री कृष्ण के बड़े से चित्र पर उन की तूलिका रंग बिखेर रही थी। मालूम हो रहा था मानों उन की तूलिका अपने आप ही बड़े कन्वास पर घूम रही हो । गोलाकार में उन्हें घेर कर बैठे जिज्ञासु उन की तूलिका की अद्धभुत कार्य कुशलता को सांस रोके, अपलक देख रहे थे। अचानक तूलिका थम गई। पैलेट के रंग पूरी व्यग्रता से सारथी जी को देखते रह गए। जैसे किसी ने अचानक बटन घुमा कर सारा कार्यकलाप रोक दिया हो। सब इस अवरोध का कारण जानना चाहते थे परन्तु कोई साहस न कर पा रहा था। सब आँखों ही आँखों एक दूसरे को इशारे से इस स्थगन का कारण पूछ रही थी। तभी ज्योति साहस बटौर पूछती है- गुरूदेव क्या हुआ। आप ने काम क्यों रोक दिया। कुछ देर निस्तब्धता छाई रही। फिर चुप्पी तोड़ते हुए सारथी जी कहते हैं- यदि तुम श्री कृष्ण के बनते चित्र को देख कृष्णमय नहीं हो जाते, तो कोई अर्थ नहीं है मेरे चित्र बनाने का.............. मेरे लिए तो यह कार्य उपासना है, आराधना है।..... सब के चेहरों के मनोभाव बदल जाते हैं। मानों सब आत्मग्लानि का अनुभव कर रहे हों। किसी के सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मनोभाव सारथी जी से छुपे कहां रहते। फिर सारथी जी अपनी दिव्य सी मुस्कान का तीर सब की ओर फेंकते हैं और उन की तूलिका पुणः कन्वास पर घूमने लगती है। सब कला के शिल्प को भूल कृष्णमय होने लगते हैं। फिर सारा वातावरण ही कृष्णमय हो जाता है।
सागर रंगों की आत्मा को जानता है। रंगों का वाहक सूर्य हर सुबह रत्नाकर के गर्भ से निकलता है और शाम को उसी में समा भी जाता है। हर नई सुबह नया सूर्य सागर के आँचल से मुँह बाहर निकालता है और शाम को उसी के आँचल में मुँह छुपा लेता है। विस्तृत आकाश भी स्वयं को संबारने हेतु अपना मुख मण्डल सागर ही में देखता है और अपनी नीलिमा के साथ-साथ अपने सारे रंग सागर को दे जाता है। नई सुबह का नया सूर्य जब सागर के वक्ष पर अपने रंगों का जादू बिखेरता है तो रंग भी अपने आप पर इतराने लगते हैं। उदय और अस्त होते सूर्य ने अनेकों बार सागर के साथ रंगों की होली खेली है। आसमान भी यदा-कदा सागर पर रंग बरसाना नहीं भूलता क्योंकि नभ जानता है रंग उसी को दिये जाते हैं जो रंगों के मर्म को जानता हो।
कला मर्मज्ञ श्री सारथी जी निरन्ता तजुर्बे करते रहते और इस दौरान जो तथ्य व्यक्त हो सकते वे हमें बताते रहते। वे कहते- सात अलंकार होते हैं षडज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। सात रंग होते हैं। सात का महत्व बताते हुए वे कहते- जैसे दिनों के नाम दे दिये गए हैं। रविबार को रवि के साथ जोड़ा गया, सोम का अर्थ चन्द्र होता है, मंगल का कल्याण, बुद्ध - बुद्धि का अत्याधिक उपयोग, वृहस्पति शास्त्र के अनुसार गुरू तथा विद्या का दिन, शुक्र मनोरंजन तथा आराम का दिन, शनिश्चर जैसे कि नाम से ही प्रकट है- शनै चर अर्थात धीरे चलने वाला सुस्त दिन। बिल्कुल वैसे ही सफेद रंग शांति का परिचायक है। पीत मृत्यु का, झर जाने का, पतझड़ का रंग। फिर गेरूआ जो लाल-पीले अर्थात जीवन मृत्यु का मिश्रण है, जीवन और मृत्यु दोनों के समन्वय को दर्शाता है, जिसे अध्यात्मिक रंग भी कहा जाता है।
रंगों के दार्शनिक स्वरूप से परिचित करबाते हुए श्री सारथी जी आगे कहते कि गेरूये वस्त्र वाला मानव, महामानव, आत्मा से महात्मा हो सकता है क्योंकि वह अपने वस्त्रों से प्रकट करता है कि वह मर कर जी उठा है। अर्थात क्षण-क्षण मरने को तैयार है और उस मृत्यु से जो जीवन प्राप्त होता है वह शाश्वत जीवन है। इसी प्रकार जामुनी रंग- शक्ति का, माया का, विद्या का, रस का रंग है। यह दो रंगों का मिश्रण है- लाल तथा नीले का। विशुद्ध नीला तो गहराई का रंग है। गगन, समुद्र, ईश्वरत्व, ब्रह्माण्ड़, विचार सागर की गहराई। हरा बनस्पति का, उपज का, पुर्नजन्म का, प्रफुल्लित होने का। परन्तु श्री सारथी जी सफेद और काले को रंग न मानते हुए कहते - सफेद मात्र प्रकाश परदर्शित करने के लिए अथवा प्रकाश का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। श्याम अर्थात काला रंग, रंग न हो कर अंधकार का रंग, अज्ञान का रंग और निष्क्रियता का रंग है।
क्रमशः...........कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 8 October 2017

सागर की कहानी (27)

सागर की कहानी (27)
श्री सारथी जी की चित्रकला और अधिक थाह लेने से पूर्व ऐसे रचनाकार की रचना प्रक्रिया को समझाना होगा जो साहित्य सृजन के साथ साथ रेखायों और चित्रों के माध्यम से भी स्वयं को व्यक्त करता हो। ऐसे में एक नाम जो मस्तिष्क पटल पर उभरता है वह गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर का है। बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि टैगोर ने 63 वर्ष की आयु में चित्रकला सीखनी आरंभ की थी और 4 वर्ष उपरांत उन्होंने क्लाकृतियाँ बनाना आरंभ कर दी थी ..... आने वाले अगले 14 वर्षों में उन्होंने भारतीय चित्रकला क्षेत्र में अपनी कलात्मकता की अमिट छाप छोड़ दी थी । टैगोर का मानना है की चित्रों के द्वारा वे ऐसी अभिव्यक्ति चाहते थे जो वे लेखनी द्वारा न कर पाए। टैगोर की अधिकतर चित्र कलाकृतियां प्रतीकात्मक है हालांकि उनकी लेखनी में प्रतीकों का कम ही इस्तेमाल हुआ है। कहने का भाव यह है कि चित्रों द्वारा उनके पास अभिव्यक्ति के लिए ऐसा बहुत कुछ था जो वे अपनी लेखनी द्वारा अभिव्यक्त न कर पाये थे।
इस के विपरीत सारथी जी ने सर्वप्रथम सुरों एवं रंगों को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया,साहित्य सृजन को उन्होने बाद में अपनाया। सुरों एवं रंगों में अज्ञात को ज्ञात करने की क्षमता शब्दों से कहीं अधिक है। यही कारण है सारथी जी साहित्य में प्रतीकों एवं संकेतों की बहुलता है । सारथी जी का साहित्य चिंतन प्रधान है जब की उन के चित्रों एवं रेखाचित्रों में भाव प्रधानता है। विषय के आधार पर उन के चित्रों एवं रेखा चित्रों को चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
मानव चित्र portrait
भूदृश्य landscape
आंचलिक चित्र regional paintings
पौराणिक चित्र mythological paintings
सांकेतिक चित्र symbolic paintings
जब रविंद्र नाथ टैगोर के चित्रों की बात होती तो doodles का ज़िक्र होता ही है । doodles ऐसी drawings को कहते हैं जो चिंतन में व्यस्त कलाकार सहज ही बनाता चला जाता जिस का विशेष अर्थ हो सकता है और यह अमूर्त आकृतियों के रूप में भी हो सकते हैं। सारथी जी के बहुत कम doodles देखने को मिलते हैं क्योंकि साधारणतः वे जब भी कोई लेख कहानी इत्यादि लिखते तो साथ ही किसी रेखा चित्र की रचना भी हो ही जाती। पेंसिल से खींची गई उनकी रेखा में प्रकाश और छाया के अद्भुत प्रभाव को देखा जा सकता। घुमावदार, हल्की, गहरी, गोलाकार, अर्ध गोलाकार, बहुत गहरी, सहलाती, बलखाती रेखाएं। कहीं रेखा बहुत हल्की, कहीं थोड़ी गहरी, फिर और गहरी, फिर बहुत गहरी, फिर बिना पेंसिल ऊपर उठाए किसी भी रेखा चित्र को ऐसे बनाते मानो पेंसिल कागज पर चिपकी हुई हो और बिना रुके सहज ही अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही हो। पैन से कोई रेखा चित्र बनाते हुए भी ऐसा ही चमत्कार देखने को मिलता। मैंने उन्हें कभी किसी रेखा को मिटाते हुए कभी नहीं देखा । किसी रेखा में किसी प्रकार का संशोधन करते हुए नहीं देखा। घड़ीसाज और चिंतन शीर्षक से छपी दैनिक कश्मीर टाइम्स में उनकी धारावाहिक लेखमाला के साथ एक रेखाचित्र सदैव रहता जिसे वे पैन से बनाते। पहले वे रेखा चित्र बनाते फिर बड़े से पन्ने पर लेख उतरने लगता। मैंने उन्हें कभी किसी वाक्य को दोहराते, संशोधित करते नहीं देखा। जो लिखा वही उनका अंतिम सत्य होता । एक बार आरंभ करने के बाद लेख की समाप्ति पर ही कलम को हाथ से छोड़ते।
श्री सारथी जी हमें बताया करते - वास्तव में चित्रकला के द्वारा हमें वहाँ पहुँचना चाहिए जो हम देख नहीं सकते। सन 1965-66 में उन्होंने इस दर्शन को कन्वास पर उतारना आरम्भ कर दिया। उन का कथन है - जब तक एक व्यक्ति जो दिखाई नहीं देता उस को देखना आरम्भ नहीं करता तब तक केवल पदार्थ की नकल का कोई औचित्य नहीं। इसी दौरान उन्होंने वेदों, उपनिषदों एवं भतृरिहरि के श्लोकोंपर आधारित चित्र बनाना आरम्भ कर दिया। उन के द्वारा बनाये पानी और तैल रंगों से बने चित्रों में रंगों की हारमोनी देखते ही बनती। स्वयं मास्टर संसारचन्द जी उन्हें रंगों का जादूगर कहा करते।
क्रमशः......कपिल अनिरुद्ध

Monday, 2 October 2017

सागर की कहानी (26)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (26)
सफरनामा के द्वारा श्री सारथी जी की जीवन यात्रा और आगे बढ़ती है - 1959 में आर्मी की नौकरी छोड़ने के उपरान्त मैं मास्टर जी, मास्टर संसारचन्द से मिला। वे डोगरी संस्था के संस्थापकों में से एक थे और उस समय संस्था के प्रधान थे। उन के होते हुए मेरे जीवन ने एक नया रंग इख्तियार किया। प्रोo रामनाथ शास्त्री जी से मिलना हुआ। फिर नारायण मिश्र, राम लाल शर्मा, मधुकर, दीप से मिलना हुआ। साथ ही हिन्दी के मुजाहिद श्री बंसी लाल सूरी जी से मिलना हुआ। फिर हिन्दी के लेखकों से परिचय हुआ। एक नये प्रकार की बाकफियत मदन मोहन शर्मा, वेद राही, वेदपाल दीप, विद्यारत्न खजुरिया, श्यामलाल शर्मा, गंगा दत्त शास्त्री विनोद तथा कईं सदस्यों के साथ होने के साथ मेरे परिचय का आकाश विस्तृत हुआ। 1962-63 में चित्रकला -एकल- प्रदर्शनियाँ डोगरी संस्था की आर्थिक सहायता से कीं।
उन के चित्रों में डोगरी और डुग्गर के प्रति उन के प्रेम की पराकाष्ठा के दर्शन होते। चाहे portrait हो या landscape उस में जम्मू का जुगराफिया और कुदरत ही झाँकेगी। कहीं किसी चित्र में कोई गारड़ी नई सुहागिन को घर की खबर देता दिखाई देता तो कहीं कोई औरत छबील का पानी पिलाती नज़र आती।
डुग्गर लोकजीवन एवं डुग्गर सभ्यता एवं संस्कृति ने भी उन के चित्रों के माध्यम से अभिव्यक्ति पाई है। उन के द्वारा चित्रित बावे का किला, तवी की रबानगी, समाधियाँ, पुराने मन्दिर, त्रिकुटा पर्वत एवं जम्मू के अन्य पर्वत डुग्गर धरती की सुन्दरता का ही बखान करते नज़र आते हैं।
श्री सारथी जी बताया करते कि उन्होंने श्री देवदास जी के साथ पगड़ी दे कर एवं लड्डू खिला कर मास्टर जी की शिष्यता ग्रहण की थी। उन के अनुसार - जब मास्टर जी कार्य करते तो हम दोनों मैं और देवदास ड्राइंग करते हुए चोरी नज़रों से उन्हें देखते। उन की पैलेट बहुत ही संक्षिप्त और गर्म मिज़ाज की पैलेट थी। वह शायद कण्ड़ी और गर्मी का प्रभाव रहा होगा। दूसरी ओर मास्टर जी तस्बीर पूर्ण करने में उताबले बहुत होते थे। इतने उताबले कि निरन्तर एक टक देखने पर भी कोई यह ग्रहण करने में सक्षम नहीं हो सकता था कि रंग कौन सा किस में मिला कर लगा दिया गया है परन्तु परिणाम गज़ब का होता। मास्टर जी का figure पर पूर्ण अधिकार था। वे अक्सर ड्राईंग करते, figure design करते, परन्तु स्वभाव के उताबलेपन को छुपा न सकते और शीघ्र अति शीघ्र ड्राईंग को मुकम्मल कर देते।
श्री सारथी जी का Figure design करने में अनोखा अंदाज़ था। वे कागज़ को यूँ देखते जैसे उस पर कुछ बनाने से पहले सब कुछ बन चुका है। फिर एक अदा से पैंसिल की परछाई सी उस पर से घुमाते और बहुत हल्के से रेखाओं को आकार में ला कर गूढ़ा करते। पैंसिल चलाते हुए वो इस प्रकार उस पर दबाव बनाते कि प्रकाश ओर छाया का प्रभाव दिखाई देने लगता। यह उन का कमाल ही था कि कोई भी figure या landscape बनाते हुए उन के द्वारा खींची गई रेखा सार्थक एवं हर रेखा अपने महत्व की कहानी कहती प्रतीत होती।
दो प्रकार के कमाल मुझे श्री सारथी जी के याद आते हैं। पहला कमाल तो यह था कि उन की शैली water colour में direct application of colour की थी। वे mixing भी बहुत कम करते और पैलेट से सीधा रंग काग़ज़ पर चिपका कर उसे वहीं बिछाते। उन्हें figure और landscape पर पूर्ण अधिकार था। विशेषतः जब वे पुराणों और रामायण आदि के पात्रों को, देवी-देवताओं के रुप-स्वरुप को चित्रित करते उन में सौंदर्य अपनी पराकाष्ठा पर दिखाई देता था।
श्री सारथी जी बताते - मैं और देवदास वर्षों तक पैंसिल स्कैचिंग करते रहे। कभी ड्राईंग कुछ ठीक बनती और कभी बहुत ही ग़लत और त्रुटिपूर्ण। अक्षण ही वे त्रुटि ठीक कर के उठ जाते । जब कभी हम दोनों देर से पहुँचते, वे हमें डाँट कर लौटाने लगते । परन्तु शीघ्र ही बैठने और काम करने को कह देते। मास्टर जी ने दो विवाह किए थे। दोनों ही महिलायें वात्सल्य और प्रेम की प्रतिमूर्ति थीं। यह ऐसा देवी चमत्कार था कि एक घर में दो महिलायें इतने प्रेम, सौहार्द और सदव्यवहार से रहती थी कि प्रारम्भ में पता लगाना मुश्किल हो जाता कि इन का कहीं सौत का रिश्ता है।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध