सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (34)
अपने लेखन में प्रतीकों के प्रयोग के बारे में वे कहते हैं -मेरे लेखन में प्रतीकों का प्रभाव चित्रकला तथा कुछ सीमा तक संगीतकला के कारण है। वे लिखते हैं मैं चित्रकार तथा मूर्तिकार रहा हूँ। चित्र और मूर्ति की भाषा बहुत गहन प्रभावशाली तथा सम्प्रेष्यात्मक है। उस का कारण यह है कि सभी रंग रूपक हैं। सभी रंग स्वयं में कुछ न हो कर अन्य भाव-विचार, स्थिति, रस को दर्शाते हैं। चित्र में प्रयोग किए गए सभी रंग मानों बहुत सारी स्थितियाँ, रसों और रूपकों को जोड़ कर एक स्थिति में बाँध दिये गए होते हैं। अब उन का संदेश सामूहिक रूपाकात्मक होता है। सभी कुछ समझने पर निर्भर करता है। रंग पढ़ लेने पर ही कथ्य तक पहुँचना संभव होता है। हर रंग रूपक होने के साथ बहुआयामी होता है। लेखन में जिन शब्दों और अक्षरों की लेखक को आवश्यकता पड़ती है वह सभी शब्द रूपक हैं। एक ही शब्द में कितने ही आयाम गुप्त पड़े रहते हैं। आम भाषा में घर, बाहर, सड़क, पिता, बादल, आकाश, प्रकाश, अंधकार, सूर्य, अध्ययन यह सभी शब्द रूपक होने के कारण अपने पूरे अर्थों में उचित स्थानों पर बिराजमान होते हैं। पीले रंग के कितने ही अर्थ हमारे सम्मुख आ जाते हैं जैसे पतझड़, रक्तअल्पता, पाण्डु रोग, मृत्यु, भयातुरता, विरागदि। इस प्रकार हर शब्द व्यापक है। घर में क्या नहीं होता। गिनने लगें तो सदी लग जाए। फिर मैं एक ईंटों के घर में रहता हूँ। आत्मा शरीर रूपी घर में रहती है। सारा संसार प्रभु का घर आदि।
मुझे लगता है लेखन दो प्रकार से यात्रा करता है। एक यात्रा सार से विस्तार की ओर की है और दूसरी यात्रा विस्तार से सार की ओर मुख किए हुए है। परन्तु यदि लेखक, सर्जक, जनक के पास सार है तो विस्तार करने में कोई कठिनाई नहीं हेाती है। सार का अर्थ ऐसा कथ्य है जो किसी बहुत बड़े मानवीय विचार, समस्या पहेली, विज्ञटन तथा संत्रास के लिए होता है। मुझे लेखन से पहले हर बार यह संतुष्टि स्वयं को करबानी पड़ती है कि विषय वस्तु अथवा कथ्य काफी समय तक जीवित रहने की क्षमता रखता है। सार को सम्भाले रखने में व्यंजना भाषा मुझे लगा है कि सूक्ष्म है और सार के संदर्भों और अध्यायों की सार्थक अभिव्यक्ति तथा लगभग पूर्ण अभिव्यक्ति प्रतीको तथा चिन्हों के द्वारा संभव है।
श्री सारथी जी द्वारा प्रतीकों के प्रयोग पर पंजाबी के प्रख्यात साहित्यकार डा. करतार सिंह सूरी उन के पंजाबी उपन्यास बिन पैरां दे धरती की भूमिका में लिखते है - सारथी के ड़ोगरी और हिन्दी उपन्यासों के बारे में एक बात अक्सर कही जाती है कि वह संकेतों और प्रतीकों की भाषा का बहुत प्रयोग करता है, जिस के कारण उस की लेखनी में अस्पष्टता ओर धुंधलापन आ जाता है। पहली बात मैं स्वीकार करता हूँ कि वह प्रतीकों का अत्याधिक प्रयोग करता है और यह बात प्रस्तुत उपन्यास में भी खरी उतरती है। पर दूसरी बात से मैं सहमत नहीं कि वह अस्पष्ट और धुंधला है। मेरे अनुभव के अनुसार पाठक का उस के साथ जब तारतम्य स्थापित हो जाता है, जब पाठक उस की रचना के साथ एक सुर हो जाता है तो उस के बिम्ब और प्रतीक सहज ही ग्रहण होने लगते हैं। बिम्बों, प्रतीकों एवं संकेतों का प्रयोग वह क्यों करता है। इस बात को समझने के लिए मैं उस के समूचे व्यक्तित्व की थाह लेता हूँ।
सारथी एक चित्रकार है, संगीतकार है और लेखक है। सारथी मेरे विचार में किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं। वह चित्रकला, संगीतकला और लेखनकला के मिले झुले रूप की संज्ञा का आकार है। सारथी की लेखनी की यात्रा सुरों, धुनों ओर शब्दों-अर्थों से पहले रंगों के रास्ते अभिव्यक्ति का माध्यम ले कर चलती है। और फिर समय बीतने के साथ अभिव्यक्ति ने अर्थों, शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, संकेतों ओर चिन्हों का माध्यम अपनाया। असल में रंगों और लकीरों की कला, संकेतों और चिन्हों-बिम्बों की भाषा है। इसीलिए सारथी की गद्य रचना में संकेतों, प्रतीकों और बिम्बों की बहुलता है।
दूसारी तरफ सारथी को संगीत बिरासत में मिला है। सुर-लय और ताल का गहन अनुभव उस के अन्दर रचा-बसा है। वह सुर का जानकार होने के नाते आदमी के अन्दर और बाहर के रूप को पहचान सकता है। इसलिए वह अपनी लेखनी में अदृष्य, अरूप और सूक्ष्म अनुभवों को अस्तित्व देता है।
.......क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (34)
अपने लेखन में प्रतीकों के प्रयोग के बारे में वे कहते हैं -मेरे लेखन में प्रतीकों का प्रभाव चित्रकला तथा कुछ सीमा तक संगीतकला के कारण है। वे लिखते हैं मैं चित्रकार तथा मूर्तिकार रहा हूँ। चित्र और मूर्ति की भाषा बहुत गहन प्रभावशाली तथा सम्प्रेष्यात्मक है। उस का कारण यह है कि सभी रंग रूपक हैं। सभी रंग स्वयं में कुछ न हो कर अन्य भाव-विचार, स्थिति, रस को दर्शाते हैं। चित्र में प्रयोग किए गए सभी रंग मानों बहुत सारी स्थितियाँ, रसों और रूपकों को जोड़ कर एक स्थिति में बाँध दिये गए होते हैं। अब उन का संदेश सामूहिक रूपाकात्मक होता है। सभी कुछ समझने पर निर्भर करता है। रंग पढ़ लेने पर ही कथ्य तक पहुँचना संभव होता है। हर रंग रूपक होने के साथ बहुआयामी होता है। लेखन में जिन शब्दों और अक्षरों की लेखक को आवश्यकता पड़ती है वह सभी शब्द रूपक हैं। एक ही शब्द में कितने ही आयाम गुप्त पड़े रहते हैं। आम भाषा में घर, बाहर, सड़क, पिता, बादल, आकाश, प्रकाश, अंधकार, सूर्य, अध्ययन यह सभी शब्द रूपक होने के कारण अपने पूरे अर्थों में उचित स्थानों पर बिराजमान होते हैं। पीले रंग के कितने ही अर्थ हमारे सम्मुख आ जाते हैं जैसे पतझड़, रक्तअल्पता, पाण्डु रोग, मृत्यु, भयातुरता, विरागदि। इस प्रकार हर शब्द व्यापक है। घर में क्या नहीं होता। गिनने लगें तो सदी लग जाए। फिर मैं एक ईंटों के घर में रहता हूँ। आत्मा शरीर रूपी घर में रहती है। सारा संसार प्रभु का घर आदि।
मुझे लगता है लेखन दो प्रकार से यात्रा करता है। एक यात्रा सार से विस्तार की ओर की है और दूसरी यात्रा विस्तार से सार की ओर मुख किए हुए है। परन्तु यदि लेखक, सर्जक, जनक के पास सार है तो विस्तार करने में कोई कठिनाई नहीं हेाती है। सार का अर्थ ऐसा कथ्य है जो किसी बहुत बड़े मानवीय विचार, समस्या पहेली, विज्ञटन तथा संत्रास के लिए होता है। मुझे लेखन से पहले हर बार यह संतुष्टि स्वयं को करबानी पड़ती है कि विषय वस्तु अथवा कथ्य काफी समय तक जीवित रहने की क्षमता रखता है। सार को सम्भाले रखने में व्यंजना भाषा मुझे लगा है कि सूक्ष्म है और सार के संदर्भों और अध्यायों की सार्थक अभिव्यक्ति तथा लगभग पूर्ण अभिव्यक्ति प्रतीको तथा चिन्हों के द्वारा संभव है।
श्री सारथी जी द्वारा प्रतीकों के प्रयोग पर पंजाबी के प्रख्यात साहित्यकार डा. करतार सिंह सूरी उन के पंजाबी उपन्यास बिन पैरां दे धरती की भूमिका में लिखते है - सारथी के ड़ोगरी और हिन्दी उपन्यासों के बारे में एक बात अक्सर कही जाती है कि वह संकेतों और प्रतीकों की भाषा का बहुत प्रयोग करता है, जिस के कारण उस की लेखनी में अस्पष्टता ओर धुंधलापन आ जाता है। पहली बात मैं स्वीकार करता हूँ कि वह प्रतीकों का अत्याधिक प्रयोग करता है और यह बात प्रस्तुत उपन्यास में भी खरी उतरती है। पर दूसरी बात से मैं सहमत नहीं कि वह अस्पष्ट और धुंधला है। मेरे अनुभव के अनुसार पाठक का उस के साथ जब तारतम्य स्थापित हो जाता है, जब पाठक उस की रचना के साथ एक सुर हो जाता है तो उस के बिम्ब और प्रतीक सहज ही ग्रहण होने लगते हैं। बिम्बों, प्रतीकों एवं संकेतों का प्रयोग वह क्यों करता है। इस बात को समझने के लिए मैं उस के समूचे व्यक्तित्व की थाह लेता हूँ।
सारथी एक चित्रकार है, संगीतकार है और लेखक है। सारथी मेरे विचार में किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं। वह चित्रकला, संगीतकला और लेखनकला के मिले झुले रूप की संज्ञा का आकार है। सारथी की लेखनी की यात्रा सुरों, धुनों ओर शब्दों-अर्थों से पहले रंगों के रास्ते अभिव्यक्ति का माध्यम ले कर चलती है। और फिर समय बीतने के साथ अभिव्यक्ति ने अर्थों, शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, संकेतों ओर चिन्हों का माध्यम अपनाया। असल में रंगों और लकीरों की कला, संकेतों और चिन्हों-बिम्बों की भाषा है। इसीलिए सारथी की गद्य रचना में संकेतों, प्रतीकों और बिम्बों की बहुलता है।
दूसारी तरफ सारथी को संगीत बिरासत में मिला है। सुर-लय और ताल का गहन अनुभव उस के अन्दर रचा-बसा है। वह सुर का जानकार होने के नाते आदमी के अन्दर और बाहर के रूप को पहचान सकता है। इसलिए वह अपनी लेखनी में अदृष्य, अरूप और सूक्ष्म अनुभवों को अस्तित्व देता है।
.......क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध