सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Friday, 27 October 2017

सागर की कहानी (33)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (33) 
सारथी जी को नवीन शिल्प, नवीन कथ्य एवं प्रतीकों तथा संकेतों के अधिकाधिक प्रयोग हेतु एक प्रयोगधर्मी रचनाकार की संज्ञा दी जाती है। उन की कहानियों, नाटकों एवं उपन्यासों में न तो परम्परागत पात्र ही दिखाई देते हैं तथा न ही उन का परम्परागत चित्रण ही देखने को मिलता है। वे कहा करते- हम जिसे सोचना कहते हैं वह घिसी पिटी लीक को बार बार पीटना है। पहनना क्या है, खाना क्या है, सोना कहाँ है। आम लोक परिपाटी को, लीक को पीटते हैं। परन्तु आध्यात्म तर्क से आरम्भ होता है। सृजन भी तर्क की ही देन है। यदि संशय में गिरोगे तो सृजन कर सकोगे। उनके शब्दों में संदेह विचार को जन्म देता है। विचार तर्क का जनक है। तर्क निर्णय में ले जाता है तथा निर्णय ही निर्माण का आधार है। हाँ सुविधा में जीने वाला तर्क को सहन नहीं करता परन्तु यदि वास्तव में कोई जीवन को सरल, सुखमय बनाना चाहता है तो उसे तर्क में से गुज़रना ही पड़ेगा।
वास्तव में सारथी जी बने बनाये रास्ते पर न चल कर अपनी राह स्वयं बनाते चले गए। जिस प्रकार एक गोताखोर अपनी शक्ति और साहस के बल पर सागर की गहराई में उतर कर अनदेखे संसार को देखता है वैसे ही प्रयोगधर्मी सारथी जी साहित्य एवं कला के सागर की अतल गहराई में जाने का जोखिम भी उठाते रहे और उस गहराई से प्राप्त मोती माणिक्य इत्यादि से जगत को लाभान्वित भी करते रहे। प्रयोगधर्मिता को स्थापित करता उनका यह शेअर इसी भाव को स्थापित करता है।
मैं राह ढ़ूँढता हूँ नई मुझ को सजा दो।
ईसा हूँ मैं सलीब उठाने के लिए हूँ।
शंकर शर्मा पिपासु - व्यक्तित्व और कृतित्व नामक पुस्तक में श्री सुभाष भारद्वाज लिखते हैं -पिपासु के साथ इस लेखक का संपर्क 10 - 12 वर्ष तक रहा है। इनमें अधिकांश मुलाकातें किसी साहित्यिक आयोजन विशेषतः किसी कवि गोष्ठी अथवा कवि सम्मेलन में ही हुआ करती थी। इसलिए उनके व्यक्ति के भीतर झांकने के बहुत ही कम अवसर मिलते थे। हां उन कुछ महीनों की यादें शायद कभी नहीं भूलेंगी जब अपने एक साहित्यकार बंधु ‘सारथी’ के निवास पर हम चार पांच साहित्यकार नित्य मिलते थे उस कमरे को जहां हम बैठक करते थे हमने प्रयोगशाला का नाम दिया था वहां लगभग रोज बैठने वालों में पिपासु भी थे
सारथी जी न तो तथाकथित नवीनता के पक्षधर थे तथा न ही नयेपन के नाम पर स्वछन्दता एवं वैयक्तिक स्वतन्त्रता की दुहाई देने वालों के हिमायती ही थे। वे लिखते हैं- नये की परिभाषा तो यह होनी चाहिए कि जो लिखा गया, चित्रित किया गया अथवा तराशा गया है वह कलाकार मंगल ग्रह, वृहस्पति ग्रह या शुक्र ग्रह से ले कर आया है। वह सब इस धरती पर कहीं भी नहीं था। और यदि वह सब कुछ यहीं पर था, प्लाट, भाषा, शैली, लय-ताल, गति-यति इत्यादि तो रचना नयी क्या और कैसे हुई। यह कहा जा सकता है कि पहले वह अदृष्य थी अब दृष्य हुई है। Discover अब हुई है। वैसे भी यह सृष्टि बहुत बड़ी है। जीवन बहुत लम्बी यात्रा है। उस के मुकाबले में रचनाकार एक कण भी नहीं। 
पत्थर ते रंग उपन्यास में वे लिखते हैं- आकाश कभी नया पुराना नहीं होता। सागर कभी नया पुराना नहीं होता, धरती कभी नयी पुरानी नहीं होती। सूरज, चाँद, तारे, हवा, पानी, अग्नि, ठण्ड़क भी नये पुराने नहीं होते। एक कलाकार इन्हीं सभी तत्वों का जाया होता है। वह भी नया पुराना नहीं होता।
वास्तव में नये पन का सम्बन्ध व्यक्ति के चिंतन मनन एवं अनुसंधान से है। नये पन का सम्बन्ध कलाकार अथवा साहित्यकार के अनुभवों और अनुभूतियों से है। जिस समय कलाकार अपने किसी दृष्टिकोण का निर्माण कर लेता है उस के लिए हर तत्व, पदार्थ नया हो जाता है। इसी भाव को अभिव्यक्त करते हुए पत्थर ते रंग में वे लिखते हैं- सूरज, सागर, चित्र, गीत, कथा, नृत्य, दर्शन, अक्षर और ज्ञान, संगीत और मूर्तियां यह सब कुछ कभी भी नया पुराना नहीं होता परन्तु व्यक्ति की यह धारणा है कि वह रात के बाद आने बाले सूरज को नये तरीके से अनुभव करे। चित्र को ओर नया देख सके। संगीत को ओर नये सुरों में महसूस कर सके। मूर्ति से नित नया संदेश उसे मिले। अक्षर, ज्ञान-विज्ञान और अथे के साथ वह फिर से साक्षात्कार करे।
फिर नयेपन को समय की माँग, समय की आवश्यकतायों से जोड़ते हुए तथा नयेपन को परिभाषित करते हुए इस उपन्यास में वे लिखते हैं- समय अपने आप में स्वयं नया होता है। जो कुछ उसे चाहिए होता है वह करबाता जाता है। समय से अलग रह कर रचनेवाला, शऊर वाला कुछ भी नहीं कर सकता। एक ही नियम सब का सांझा होना चाहिए कि जो कुछ आज माँग रहा हे वह उसे दिया जाये।
जो नवीनता एवं प्रयोगधर्मिता को, वैयतिकता को सामाजिक दायित्वों से अधिक महत्व देते उन का सारथी जी सदैव खण्ड़न करते। वास्तव में प्रयोवाद के दौरान प्रयोगों के नाम पर जिस प्रकार साहित्य में अश्लीलता एवं कामुकता परोसी जाने लगी उस पर अपनी खिन्नता प्रकट करते हुए सारथी जी पत्थर ते रंग उपन्यास में लिखते हैं- सृजन की कल्पना अपने पन की कल्पना है। अपने पन की विशालता की कल्पना है। अपने पन की कामना, सुन्दरता एवं सुकून की कल्पना है। सृजन की कल्पना एक दूसरे के लिए खड़े होने तथा एक दूसरे को स्वयं में भर लेने की कल्पना है। कुछ कलाकारों का नयापन अकेलापन है। इस शहर को , वातावरण को, लोगों को, लोगों पर छाए अम्बर को और शहर की धरती को साथ रख कर जो कल्पना की जायेगी वह नयी होगी। और कल्पना का रचनाकार शहर में नहीं रहेगा, वातावाण में नहीं रहेगा, सारा शहर, लोग और वातावरण उस में रहेंगे। 
.......क्रमशः .............कपिल अनिरुद्ध

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