सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (30)
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते है - मास्टर संसारचन्द जी के एक वैज्ञानिक मित्र कश्मीरी लाल हांडा ड्रग रिसर्च प्रयोगशाला में कार्यरत्त थे। वहाँ दो-चार दिन मेरी परीक्षा चलती रही। मुझ से चोपड़ा साहब ने ब्रैंकड़ धतूरा के रेखाचित्र बनवाए और मुझे प्रयोगशाला में म्यूज़िम सहायक की नौकरी मिल गई। इस के साथ ईश्वर ने नौकरी की चिन्ता समाप्त कर दी।
वे लिखते है- अब मेरा विकास तीन दिशाओं में होने लगा। बाटनी में एक बोटैनिकल चित्रकार के नाते, समाज में ऊर्दू और डोगरी के लेखक के नाते और संगीत के क्षेत्र में गायक-वादक के नाते। रेडियो जम्मू से कहानी कविता के अनुबन्ध मिलने लगे। पहली फीस पच्चीस रूपये मिली। फिर श्री विष्णु भारद्वाज जी से मुलाकात हुई। उन्होंने नाटक लिखने की प्रेरणा दी। मैने हिन्दी, ऊर्दू और डोगरी में नाटक लिखे हैं जिन की संख्या पचास से अधिक है।
सत्तर-पचहतर तक हिन्दी, ऊर्दू, डोगरी पंजाबी की कोई बात न थी। मैं कईं गोष्ठियों में चारो भाषाओं की ग़ज़ले पढ़ता था। यदि न पढ़ता तो इसरार किया जाता।
सारथी जी भाषा को मात्र अभिवयक्ति का ही माध्यम मानते। उन के अनुसार भाषा साध्य नहीं साधन है। वे कहते भाषा तक ही सीमित रहना ठीक नहीं। वास्तविक बात तो उस अनुभूति की है जो कुछ अभिव्यक्त करेगी। एक अच्छी रचना चाहे किसी भी भाषा में लिखी जाए पढ़ने बाले को प्रभावित अवश्य करेगी। वे अक्सर कहा करते जो बात कही जानी है वह अपनी भाषा स्वयं ले कर आती है। उन्होंने संकेतों और प्रतीको की भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त किया है तथा सब को भाषा की गुटबंदियों से उपर उठ कर स्वयं को अभिव्यकत करने की प्रेरणा दी है। उन से प्रेरणा एवं मार्गदर्शन लेने वाले हर भाषा के लोग हुआ करते थे। डोगरी भाषा को आठवें छडयूल में शामिल किए जाने वाले आन्दोलन के बारे में वे लिखते हैं -दरबारी, सरकारी मान्यता तो उस बात को चाहिए होती है जिस का साधारण लोगों में कोई आधार न हो। जिस बोली या भाषा को लाखों-करोड़ों लोग बोलते हों, उस की मान्यता के लिए जनमत पैदा करना हास्यास्पद सा लगता है। इस में ज़रूर कहीं लेखक की कमज़ोरी है, कोताही है, अज्ञानता है या उस की लाचारी है। लेखक ने ही दर्द के वो मुकाम खोजने है जिन के निरनतर प्रकाश में आने से क्रान्ति के स्वर उभरते हैं।
यदि किसी भाषा को मान्यता मिलती भी है तो लाभ चापलूसों और खिलाड़ियों को ही होता है। कवि, कथाकार, उपन्यासकार, निबन्ध्कार, जीवनीकार, नाटककार को रत्तीभर भी फायदा नहीं होता। वे कहते भाषा के भाग्य का निर्माण न तो रैजीमैंटेशन पर आधारित है और न ही आप ही अच्छा और बहुत अच्छा कह कर। भाषा के भाग्य का दारोमदार न तो वेतन है ना किसी का निजि प्रभाव। यह सब कुछ समय के लिये किसी के नाम का डुबा या उछाल सकता है पर वास्तव में भाग्य का निर्माण लेखक और पाठक के हाथों में है, यह बात आज भी सत्य है और कल भी यही सत्य होगा।
.......क्रमशः....कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (30)
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते है - मास्टर संसारचन्द जी के एक वैज्ञानिक मित्र कश्मीरी लाल हांडा ड्रग रिसर्च प्रयोगशाला में कार्यरत्त थे। वहाँ दो-चार दिन मेरी परीक्षा चलती रही। मुझ से चोपड़ा साहब ने ब्रैंकड़ धतूरा के रेखाचित्र बनवाए और मुझे प्रयोगशाला में म्यूज़िम सहायक की नौकरी मिल गई। इस के साथ ईश्वर ने नौकरी की चिन्ता समाप्त कर दी।
वे लिखते है- अब मेरा विकास तीन दिशाओं में होने लगा। बाटनी में एक बोटैनिकल चित्रकार के नाते, समाज में ऊर्दू और डोगरी के लेखक के नाते और संगीत के क्षेत्र में गायक-वादक के नाते। रेडियो जम्मू से कहानी कविता के अनुबन्ध मिलने लगे। पहली फीस पच्चीस रूपये मिली। फिर श्री विष्णु भारद्वाज जी से मुलाकात हुई। उन्होंने नाटक लिखने की प्रेरणा दी। मैने हिन्दी, ऊर्दू और डोगरी में नाटक लिखे हैं जिन की संख्या पचास से अधिक है।
सत्तर-पचहतर तक हिन्दी, ऊर्दू, डोगरी पंजाबी की कोई बात न थी। मैं कईं गोष्ठियों में चारो भाषाओं की ग़ज़ले पढ़ता था। यदि न पढ़ता तो इसरार किया जाता।
सारथी जी भाषा को मात्र अभिवयक्ति का ही माध्यम मानते। उन के अनुसार भाषा साध्य नहीं साधन है। वे कहते भाषा तक ही सीमित रहना ठीक नहीं। वास्तविक बात तो उस अनुभूति की है जो कुछ अभिव्यक्त करेगी। एक अच्छी रचना चाहे किसी भी भाषा में लिखी जाए पढ़ने बाले को प्रभावित अवश्य करेगी। वे अक्सर कहा करते जो बात कही जानी है वह अपनी भाषा स्वयं ले कर आती है। उन्होंने संकेतों और प्रतीको की भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त किया है तथा सब को भाषा की गुटबंदियों से उपर उठ कर स्वयं को अभिव्यकत करने की प्रेरणा दी है। उन से प्रेरणा एवं मार्गदर्शन लेने वाले हर भाषा के लोग हुआ करते थे। डोगरी भाषा को आठवें छडयूल में शामिल किए जाने वाले आन्दोलन के बारे में वे लिखते हैं -दरबारी, सरकारी मान्यता तो उस बात को चाहिए होती है जिस का साधारण लोगों में कोई आधार न हो। जिस बोली या भाषा को लाखों-करोड़ों लोग बोलते हों, उस की मान्यता के लिए जनमत पैदा करना हास्यास्पद सा लगता है। इस में ज़रूर कहीं लेखक की कमज़ोरी है, कोताही है, अज्ञानता है या उस की लाचारी है। लेखक ने ही दर्द के वो मुकाम खोजने है जिन के निरनतर प्रकाश में आने से क्रान्ति के स्वर उभरते हैं।
यदि किसी भाषा को मान्यता मिलती भी है तो लाभ चापलूसों और खिलाड़ियों को ही होता है। कवि, कथाकार, उपन्यासकार, निबन्ध्कार, जीवनीकार, नाटककार को रत्तीभर भी फायदा नहीं होता। वे कहते भाषा के भाग्य का निर्माण न तो रैजीमैंटेशन पर आधारित है और न ही आप ही अच्छा और बहुत अच्छा कह कर। भाषा के भाग्य का दारोमदार न तो वेतन है ना किसी का निजि प्रभाव। यह सब कुछ समय के लिये किसी के नाम का डुबा या उछाल सकता है पर वास्तव में भाग्य का निर्माण लेखक और पाठक के हाथों में है, यह बात आज भी सत्य है और कल भी यही सत्य होगा।
.......क्रमशः....कपिल अनिरुद्ध
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