सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (29)
श्री सारथी जी की कहानियों एवं उपन्यासों में भी चित्रात्मकता अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती है । नंगा रुक्ख की समीक्षा करते हुए प्रख्यात साहित्यकार एवं समीक्षक भोलानाथ भ्रमर लिखते हैं - जैसे चित्रकार एक के बाद एक चित्र बना कर उन की प्रदर्शनी करता है और समझदार पाठक उन का केन्द्रीय भाव पकड़ता है। वैसे ही चित्रकार सारथी की कलम ने शब्दों से कुछ चित्र बनाये हैं और इस उपन्यास के रूप में उन की प्रदर्शनी प्रस्तुत की है। चित्रों के पास बाणी नहीं होती, वाणी के पास आँखों के दृष्य-विषय नहीं होते, किन्तु चित्रकार की आत्मा बाले लेखक के पास शब्दों की भाषा बोलने वाली तस्वीरें होती हैं। सारथी के नंगा रुक्ख की यह सब से बड़ी विशेषता है कि नंगा रुक्ख के चित्र मार्मिक, विचारोत्तेजक एवं व्यंग्य और प्रतीक की बाणी बोलते हैं।
श्री सारथी जी कहते – “यदि जीवन के द्वार कला-साधना के लिए खुल जायें तो प्रकृति में मानव शरीर के भीतर असंख्य प्रकार के साधना के आयाम देखे जा सकते हैं और उन के परस्पर सम्बंध अनुभूत किए जा सकते हैं। जैसे भतृरिहरि ने कहा है-
साहित्य संगीत कला बिहीनः
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः
तो वेदो ने कहा है - सा कला या विमुक्तये- जहां कला साधना, पशु की योनि से निकाल आदमी को सौंदर्य और दर्शन में प्रवेश करबाती हैं वहीं पर कला मुक्ति के द्वार भी खोलती है। मुक्ति के लिए एक सेतु का कार्य भी करती है”।
वे कहते- “मैं बहुत सामान्य बुद्धि का बालक था। फिर सब से पहले मेरे कला गुरू ने मिट्टी के खिलौने बनवाये। फिर रेखा चित्र । फिर सुसभ्य व्यक्तियों की संगति में पहले अच्छा, फिर श्रेष्ठ, फिर उच्चतम् साहित्य पढ़ने को मिला। इसलिए मेरा विचार है कि विकास की संभावना व्याप्त है, पर्याप्त है और किसी भी समय किसी का भी विकास आरम्भ हो सकता है। और वह विकास किसी भी चर्म-सीमा को छू सकता है। एक छोटे से उदाहरण के तौर पर वह अपने दो-चार शिष्यों का वर्णन करते। वे कहते- मैं बहुत छोटा हूँगा कि पिताश्री के पास बैठ गायन सुना करता था। उन की आकांक्षा थी कि मैं शास्त्रीय संगीत सीखूँ। जब उम्र हुई कि हारमोनियम का अभ्यास और तबले का ज्ञान प्राप्त कर सकूँ तो सीखने और शिक्षा दोनों का क्रम बनता गया। परन्तु पिता श्री का बार-बार कहना कि लय-ताल को गहनता से समझों क्योंकि बेसुरा चल जाता है पर बेताला नहीं चल सकता। मैंने ताल की ओर अधिक ध्यान देना आरम्भ किया। पठन में हिन्दी-संस्कृत मेरे प्रिय विषय रहे। यह प्यार संगीत के अध्ययन में क्रियान्वित हुआ। भरतमुनि, दामोदर पंडित, अमीर खुसरो और भातखन्डे आदि द्वारा रचित पुस्तकों का अध्ययन साथ चला। परन्तु लेखन के प्रति जिस प्रवृति ने अधिकाधिक आकृष्ट किया वह थी भक्तपदावली तथा भजन संग्रहों का सदैव दृष्टि में रहना। मीरा, तुलसी, सूर कबीर, नानक, रामदास, सहजो, ब्रह्मानंद आदि की आध्यात्मिक रचनाओं ने एक मेरा संगीत तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण दर्शाने का वृहत कार्य किया। दूसरे हर रचना शास्त्रोक्त विधि से सीखने के साथ मुझे रचनाओं ने तरंगित किया जिस के फलस्वरूप मेरे अन्तस में संवेदना का अतिसूक्ष्म बीजारोपण हुआ। पिताश्री निरन्तर अभ्यास करते। वे ताल के ज्ञाता थे। परन्तु अत्यन्त सूक्ष्मभावी तथा स्नेहमय। साथ-साथ कहते जाते कला तो प्रेम की छलछलाती सरिता है। अच्छी शिक्षा विषय का ज्ञान ही नहीं विषय से प्रेम भी सिखाती है। विषय से प्रेम जीवन ही से प्रेम है और जीवन से प्रेम समग्रता से, सर्व से प्रेम है। सर्व से प्रेम ही प्रभु के होने से प्रेम है। एक कलाकार कला के द्वारा प्रभु तक पहुँच जाता है”।
सारथी जी बताते- “नवीं-दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते कलागुरू श्री संसारचन्द शर्मा जी से शिष्यता प्राप्त हो चुकी थी। उनके निर्देश आदेश में मिट्टी की मूर्तिकला तथा चित्रांकन का अभ्यास बहुत ही रूचिकर लगने लगा था, मुझे याद है सोचा करता था कि रात ही न हो। मात्र अभ्यास और पठन-पाठन जारी रहे। साथ- साथ हमारे समय के अध्यापक अध्यापन पाठन को ही समर्पित थे। उनका लक्ष्य ही हर बालक को विधा-कला सम्पन्न करना था। मेरे अन्तस चेतन में अब भी कुछेक गुरू आकृतियां हर क्षण विद्यमान रहती हैं। पंडित शुक देव शास्त्री जी, वामदेव जी, श्री श्याम लाल शर्मा, श्री तपस्वी राम जी ऐसे ही महान अध्यापक रहे।
आज का और तब का समय तुलनीय कदापि नहीं है। सागर की बिन्दु से भला क्या तुलना”।
.........क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध
श्री सारथी जी कहते – “यदि जीवन के द्वार कला-साधना के लिए खुल जायें तो प्रकृति में मानव शरीर के भीतर असंख्य प्रकार के साधना के आयाम देखे जा सकते हैं और उन के परस्पर सम्बंध अनुभूत किए जा सकते हैं। जैसे भतृरिहरि ने कहा है-
साहित्य संगीत कला बिहीनः
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः
तो वेदो ने कहा है - सा कला या विमुक्तये- जहां कला साधना, पशु की योनि से निकाल आदमी को सौंदर्य और दर्शन में प्रवेश करबाती हैं वहीं पर कला मुक्ति के द्वार भी खोलती है। मुक्ति के लिए एक सेतु का कार्य भी करती है”।
वे कहते- “मैं बहुत सामान्य बुद्धि का बालक था। फिर सब से पहले मेरे कला गुरू ने मिट्टी के खिलौने बनवाये। फिर रेखा चित्र । फिर सुसभ्य व्यक्तियों की संगति में पहले अच्छा, फिर श्रेष्ठ, फिर उच्चतम् साहित्य पढ़ने को मिला। इसलिए मेरा विचार है कि विकास की संभावना व्याप्त है, पर्याप्त है और किसी भी समय किसी का भी विकास आरम्भ हो सकता है। और वह विकास किसी भी चर्म-सीमा को छू सकता है। एक छोटे से उदाहरण के तौर पर वह अपने दो-चार शिष्यों का वर्णन करते। वे कहते- मैं बहुत छोटा हूँगा कि पिताश्री के पास बैठ गायन सुना करता था। उन की आकांक्षा थी कि मैं शास्त्रीय संगीत सीखूँ। जब उम्र हुई कि हारमोनियम का अभ्यास और तबले का ज्ञान प्राप्त कर सकूँ तो सीखने और शिक्षा दोनों का क्रम बनता गया। परन्तु पिता श्री का बार-बार कहना कि लय-ताल को गहनता से समझों क्योंकि बेसुरा चल जाता है पर बेताला नहीं चल सकता। मैंने ताल की ओर अधिक ध्यान देना आरम्भ किया। पठन में हिन्दी-संस्कृत मेरे प्रिय विषय रहे। यह प्यार संगीत के अध्ययन में क्रियान्वित हुआ। भरतमुनि, दामोदर पंडित, अमीर खुसरो और भातखन्डे आदि द्वारा रचित पुस्तकों का अध्ययन साथ चला। परन्तु लेखन के प्रति जिस प्रवृति ने अधिकाधिक आकृष्ट किया वह थी भक्तपदावली तथा भजन संग्रहों का सदैव दृष्टि में रहना। मीरा, तुलसी, सूर कबीर, नानक, रामदास, सहजो, ब्रह्मानंद आदि की आध्यात्मिक रचनाओं ने एक मेरा संगीत तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण दर्शाने का वृहत कार्य किया। दूसरे हर रचना शास्त्रोक्त विधि से सीखने के साथ मुझे रचनाओं ने तरंगित किया जिस के फलस्वरूप मेरे अन्तस में संवेदना का अतिसूक्ष्म बीजारोपण हुआ। पिताश्री निरन्तर अभ्यास करते। वे ताल के ज्ञाता थे। परन्तु अत्यन्त सूक्ष्मभावी तथा स्नेहमय। साथ-साथ कहते जाते कला तो प्रेम की छलछलाती सरिता है। अच्छी शिक्षा विषय का ज्ञान ही नहीं विषय से प्रेम भी सिखाती है। विषय से प्रेम जीवन ही से प्रेम है और जीवन से प्रेम समग्रता से, सर्व से प्रेम है। सर्व से प्रेम ही प्रभु के होने से प्रेम है। एक कलाकार कला के द्वारा प्रभु तक पहुँच जाता है”।
सारथी जी बताते- “नवीं-दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते कलागुरू श्री संसारचन्द शर्मा जी से शिष्यता प्राप्त हो चुकी थी। उनके निर्देश आदेश में मिट्टी की मूर्तिकला तथा चित्रांकन का अभ्यास बहुत ही रूचिकर लगने लगा था, मुझे याद है सोचा करता था कि रात ही न हो। मात्र अभ्यास और पठन-पाठन जारी रहे। साथ- साथ हमारे समय के अध्यापक अध्यापन पाठन को ही समर्पित थे। उनका लक्ष्य ही हर बालक को विधा-कला सम्पन्न करना था। मेरे अन्तस चेतन में अब भी कुछेक गुरू आकृतियां हर क्षण विद्यमान रहती हैं। पंडित शुक देव शास्त्री जी, वामदेव जी, श्री श्याम लाल शर्मा, श्री तपस्वी राम जी ऐसे ही महान अध्यापक रहे।
आज का और तब का समय तुलनीय कदापि नहीं है। सागर की बिन्दु से भला क्या तुलना”।
.........क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध
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