सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (28)
श्री सारथी जी की किसी भी बात के बारे में पूर्वानुमान लगाना लगभग असम्भव सा था। उन की हर बात, हर क्रिया जो देखने में कितनी ही अर्थहीन दिखे भीतर किसी बड़े अर्थ को समेटे हुए होती। संस्कार भारती का चित्रकला शिविर गीता भवन में चल रहा था। उस शिविर में कई दिनों तक सारथी जी गीता भवन के प्रथम तल पर बने एक हालनुमा कमरे में भारतीय महापुरुषों के चित्र बनाते रहे। उन से कला के गुर सीखने वालों में उनके शिष्यों के साथ-साथ संस्कार भारती के अन्य सदस्य भी शिविर में मौजूद रहते। ......उन के द्वारा बनाए एक खूबसूरत भूदृश्य की पृष्ठ भूमि में त्रिकुटा की पहाड़ियां नजर आ रही हैं। उनके आगे किसी चट्टान पर कोई गारड़ी (लोक गायक) डोगरा परिधान पहने, सिर पर पगड़ी, लंबा कुर्ता और चूड़ीदार पायजामा पहने दिखाई दे रहा है जिस ने हाथ में एक लाठी पकड़ रखी है और उसके साथ ही एक गठरी पड़ी है। गारड़ी एक चट्टान पर बैठा है। गारड़ी (लोक गायक) लोकगायकी का तो प्रचार प्रसार करते ही वे डुग्गर संस्कृति के संवाहक के रूप में भी कार्य करते। एक गांव से दूसरे गांव चलते जोगी एक का संदेश दूसरे तक तथा दूसरे का तीसरे तक पहुंचाते जाते और कारकों, विशनपतों तथा बारों के द्वारा लोगों के मन में अपना स्थान बनाते चले जाते। पूरा भूदृश्य डुग्गर आँचल की एक प्रतिनिधि तस्वीर के रूप में उभरा है। गारड़ी के चेहरे पर संतोष का भाव है साथ ही अध्यात्मिक आनंद भी प्रकट हो रहा है ।
सागर की कहानी (28)
श्री सारथी जी की किसी भी बात के बारे में पूर्वानुमान लगाना लगभग असम्भव सा था। उन की हर बात, हर क्रिया जो देखने में कितनी ही अर्थहीन दिखे भीतर किसी बड़े अर्थ को समेटे हुए होती। संस्कार भारती का चित्रकला शिविर गीता भवन में चल रहा था। उस शिविर में कई दिनों तक सारथी जी गीता भवन के प्रथम तल पर बने एक हालनुमा कमरे में भारतीय महापुरुषों के चित्र बनाते रहे। उन से कला के गुर सीखने वालों में उनके शिष्यों के साथ-साथ संस्कार भारती के अन्य सदस्य भी शिविर में मौजूद रहते। ......उन के द्वारा बनाए एक खूबसूरत भूदृश्य की पृष्ठ भूमि में त्रिकुटा की पहाड़ियां नजर आ रही हैं। उनके आगे किसी चट्टान पर कोई गारड़ी (लोक गायक) डोगरा परिधान पहने, सिर पर पगड़ी, लंबा कुर्ता और चूड़ीदार पायजामा पहने दिखाई दे रहा है जिस ने हाथ में एक लाठी पकड़ रखी है और उसके साथ ही एक गठरी पड़ी है। गारड़ी एक चट्टान पर बैठा है। गारड़ी (लोक गायक) लोकगायकी का तो प्रचार प्रसार करते ही वे डुग्गर संस्कृति के संवाहक के रूप में भी कार्य करते। एक गांव से दूसरे गांव चलते जोगी एक का संदेश दूसरे तक तथा दूसरे का तीसरे तक पहुंचाते जाते और कारकों, विशनपतों तथा बारों के द्वारा लोगों के मन में अपना स्थान बनाते चले जाते। पूरा भूदृश्य डुग्गर आँचल की एक प्रतिनिधि तस्वीर के रूप में उभरा है। गारड़ी के चेहरे पर संतोष का भाव है साथ ही अध्यात्मिक आनंद भी प्रकट हो रहा है ।
.......एक दिन भगवान श्री कृष्ण के बड़े से चित्र पर उन की तूलिका रंग बिखेर रही थी। मालूम हो रहा था मानों उन की तूलिका अपने आप ही बड़े कन्वास पर घूम रही हो । गोलाकार में उन्हें घेर कर बैठे जिज्ञासु उन की तूलिका की अद्धभुत कार्य कुशलता को सांस रोके, अपलक देख रहे थे। अचानक तूलिका थम गई। पैलेट के रंग पूरी व्यग्रता से सारथी जी को देखते रह गए। जैसे किसी ने अचानक बटन घुमा कर सारा कार्यकलाप रोक दिया हो। सब इस अवरोध का कारण जानना चाहते थे परन्तु कोई साहस न कर पा रहा था। सब आँखों ही आँखों एक दूसरे को इशारे से इस स्थगन का कारण पूछ रही थी। तभी ज्योति साहस बटौर पूछती है- गुरूदेव क्या हुआ। आप ने काम क्यों रोक दिया। कुछ देर निस्तब्धता छाई रही। फिर चुप्पी तोड़ते हुए सारथी जी कहते हैं- यदि तुम श्री कृष्ण के बनते चित्र को देख कृष्णमय नहीं हो जाते, तो कोई अर्थ नहीं है मेरे चित्र बनाने का.............. मेरे लिए तो यह कार्य उपासना है, आराधना है।..... सब के चेहरों के मनोभाव बदल जाते हैं। मानों सब आत्मग्लानि का अनुभव कर रहे हों। किसी के सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मनोभाव सारथी जी से छुपे कहां रहते। फिर सारथी जी अपनी दिव्य सी मुस्कान का तीर सब की ओर फेंकते हैं और उन की तूलिका पुणः कन्वास पर घूमने लगती है। सब कला के शिल्प को भूल कृष्णमय होने लगते हैं। फिर सारा वातावरण ही कृष्णमय हो जाता है।
सागर रंगों की आत्मा को जानता है। रंगों का वाहक सूर्य हर सुबह रत्नाकर के गर्भ से निकलता है और शाम को उसी में समा भी जाता है। हर नई सुबह नया सूर्य सागर के आँचल से मुँह बाहर निकालता है और शाम को उसी के आँचल में मुँह छुपा लेता है। विस्तृत आकाश भी स्वयं को संबारने हेतु अपना मुख मण्डल सागर ही में देखता है और अपनी नीलिमा के साथ-साथ अपने सारे रंग सागर को दे जाता है। नई सुबह का नया सूर्य जब सागर के वक्ष पर अपने रंगों का जादू बिखेरता है तो रंग भी अपने आप पर इतराने लगते हैं। उदय और अस्त होते सूर्य ने अनेकों बार सागर के साथ रंगों की होली खेली है। आसमान भी यदा-कदा सागर पर रंग बरसाना नहीं भूलता क्योंकि नभ जानता है रंग उसी को दिये जाते हैं जो रंगों के मर्म को जानता हो।
कला मर्मज्ञ श्री सारथी जी निरन्ता तजुर्बे करते रहते और इस दौरान जो तथ्य व्यक्त हो सकते वे हमें बताते रहते। वे कहते- सात अलंकार होते हैं षडज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। सात रंग होते हैं। सात का महत्व बताते हुए वे कहते- जैसे दिनों के नाम दे दिये गए हैं। रविबार को रवि के साथ जोड़ा गया, सोम का अर्थ चन्द्र होता है, मंगल का कल्याण, बुद्ध - बुद्धि का अत्याधिक उपयोग, वृहस्पति शास्त्र के अनुसार गुरू तथा विद्या का दिन, शुक्र मनोरंजन तथा आराम का दिन, शनिश्चर जैसे कि नाम से ही प्रकट है- शनै चर अर्थात धीरे चलने वाला सुस्त दिन। बिल्कुल वैसे ही सफेद रंग शांति का परिचायक है। पीत मृत्यु का, झर जाने का, पतझड़ का रंग। फिर गेरूआ जो लाल-पीले अर्थात जीवन मृत्यु का मिश्रण है, जीवन और मृत्यु दोनों के समन्वय को दर्शाता है, जिसे अध्यात्मिक रंग भी कहा जाता है।
रंगों के दार्शनिक स्वरूप से परिचित करबाते हुए श्री सारथी जी आगे कहते कि गेरूये वस्त्र वाला मानव, महामानव, आत्मा से महात्मा हो सकता है क्योंकि वह अपने वस्त्रों से प्रकट करता है कि वह मर कर जी उठा है। अर्थात क्षण-क्षण मरने को तैयार है और उस मृत्यु से जो जीवन प्राप्त होता है वह शाश्वत जीवन है। इसी प्रकार जामुनी रंग- शक्ति का, माया का, विद्या का, रस का रंग है। यह दो रंगों का मिश्रण है- लाल तथा नीले का। विशुद्ध नीला तो गहराई का रंग है। गगन, समुद्र, ईश्वरत्व, ब्रह्माण्ड़, विचार सागर की गहराई। हरा बनस्पति का, उपज का, पुर्नजन्म का, प्रफुल्लित होने का। परन्तु श्री सारथी जी सफेद और काले को रंग न मानते हुए कहते - सफेद मात्र प्रकाश परदर्शित करने के लिए अथवा प्रकाश का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। श्याम अर्थात काला रंग, रंग न हो कर अंधकार का रंग, अज्ञान का रंग और निष्क्रियता का रंग है।
क्रमशः...........कपिल अनिरुद्ध
कला मर्मज्ञ श्री सारथी जी निरन्ता तजुर्बे करते रहते और इस दौरान जो तथ्य व्यक्त हो सकते वे हमें बताते रहते। वे कहते- सात अलंकार होते हैं षडज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। सात रंग होते हैं। सात का महत्व बताते हुए वे कहते- जैसे दिनों के नाम दे दिये गए हैं। रविबार को रवि के साथ जोड़ा गया, सोम का अर्थ चन्द्र होता है, मंगल का कल्याण, बुद्ध - बुद्धि का अत्याधिक उपयोग, वृहस्पति शास्त्र के अनुसार गुरू तथा विद्या का दिन, शुक्र मनोरंजन तथा आराम का दिन, शनिश्चर जैसे कि नाम से ही प्रकट है- शनै चर अर्थात धीरे चलने वाला सुस्त दिन। बिल्कुल वैसे ही सफेद रंग शांति का परिचायक है। पीत मृत्यु का, झर जाने का, पतझड़ का रंग। फिर गेरूआ जो लाल-पीले अर्थात जीवन मृत्यु का मिश्रण है, जीवन और मृत्यु दोनों के समन्वय को दर्शाता है, जिसे अध्यात्मिक रंग भी कहा जाता है।
रंगों के दार्शनिक स्वरूप से परिचित करबाते हुए श्री सारथी जी आगे कहते कि गेरूये वस्त्र वाला मानव, महामानव, आत्मा से महात्मा हो सकता है क्योंकि वह अपने वस्त्रों से प्रकट करता है कि वह मर कर जी उठा है। अर्थात क्षण-क्षण मरने को तैयार है और उस मृत्यु से जो जीवन प्राप्त होता है वह शाश्वत जीवन है। इसी प्रकार जामुनी रंग- शक्ति का, माया का, विद्या का, रस का रंग है। यह दो रंगों का मिश्रण है- लाल तथा नीले का। विशुद्ध नीला तो गहराई का रंग है। गगन, समुद्र, ईश्वरत्व, ब्रह्माण्ड़, विचार सागर की गहराई। हरा बनस्पति का, उपज का, पुर्नजन्म का, प्रफुल्लित होने का। परन्तु श्री सारथी जी सफेद और काले को रंग न मानते हुए कहते - सफेद मात्र प्रकाश परदर्शित करने के लिए अथवा प्रकाश का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। श्याम अर्थात काला रंग, रंग न हो कर अंधकार का रंग, अज्ञान का रंग और निष्क्रियता का रंग है।
क्रमशः...........कपिल अनिरुद्ध
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