सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Tuesday, 24 October 2017

सागर की कहानी (31)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (31)
अपनी लेखन यात्रा उन्होंने ऊर्दू भाषा से आरम्भ की। आर्मी के कार्य काल के दौरान वे शरतचन्द एवं प्रेमचन्द से बेहद प्रभावित थे तथा तभी उन्होने ऊर्दू में रचना कर्म का श्रीगणेश किया। इस के बाद उन्होने हिन्दी तथा पंजाबी में कहानी लेखन द्वारा अपने रचना धरम को निभाया तथा अन्ततः वे डोगरी के प्रतिष्ठित कहानीकार के रूप में स्थापित हुए। श्री सारथी जी का प्रथम उर्दू कहानी संग्रह उमरें 1965 में प्रकाशित हुआ। यह कहानियाँ उन्होंने अपने सेना के कार्यकाल के दौरान लिखीं जिन्हें बाद में प्रकाशित करबाया गया। 
वास्तव में यह वो समय था जब देश नवीणीकरण के पथ पर आगे बढ़ रहा था। देश भर में नए नए उद्योग लगाए जा रहे थे। सड़के रूप आकार ग्रहण कर रही थीं, इमारते बनाई जा रही थीं। सारथी जी इस तथाकथित विकास में मानव के कद को घटता हुआ देख रहे थे। इस दर्द की अभिव्यक्ति उनके प्रथम डोगरी उपन्यास त्रेह समुन्दर दी में हुई है। वे लिखते हैं-‘प्रचीन गलियाँ घड़े हुए पत्थरों की बनी हुई थीं। नगर को घेरने व मिलाने वाली सड़कें प्रायः कच्ची थी। नगर के मन्दिरों के रंग प्राचीन थे परन्तु थे टिकाऊ। नगर के बासी कच्चे मकानों में रहते थे परन्तु थे दृढ़ व समर्थ। धीरे धीरे नगर अपने स्थान से सरकने लगा। उन्नति करने लगा, अग्रगमन करने लगा। गलियाँ पक्का होना प्रारम्भ हुई। मकानों में गारे के स्थान पर सीमेंट व सरिया प्रयोग होने लगा। परन्तु मनुष्य कच्चे होते गए। भुरभुरे होते गए। मनुष्य जर्जर व खोखले होते गए’।
इसी क्रम में उपन्यास में वे आगे लिखते हैं – ‘मुहल्ले में सीमेंट, सरिया व ईंटे आ जाने के कारण पड़ोसियों के स्वभाव में अन्तर आ गया। पहले मूँग की दाल एक हाँडी में बन कर कटोरी द्वारा घर घर घूमती थी परन्तु धीरे धीरे कटोरी व पतीले का घेरा कम होता गया। अब गली से गुजरते हुए सुगन्ध द्वारा अनुमान लगने लगे कि किस घर में सब्जी बनी है और किस घर में दाल उबली है’।
शहर के तथाकथित विकास के समब्न्ध में वे लिखते हैं –‘पुराना चित्र नए रंगों से नवीन हो रहा था। शहर विकास कर रहा था। परन्तु इस बीच किसी भी भले मानस को विचार नहीं आया कि नगर मनुष्यों को ले कर बसते हैं। मनुष्यों से बनते हैं। नगर की शोभा मनुष्य हाते हैं मनुष्यों की शोभा नगर नहीं होते’।
शिक्षा के क्षेत्र में जिस विकास के नारे लगाए जा रहे थे, उस पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं – ‘इस के साथ साथ एक और अपरिचित दौड़, शिक्षा के क्षेत्र में लगी। नगर में जहाँ गिने चुने पाँच सात विद्यालय थे वहाँ अब विद्यालयों की संख्या में बढौतरी होने लगी। मानों शहर की बढ़ती जनसंख्या के साथ ही विद्यालयों की दौड़ लग गई हो। नए विद्यालय खुले अनगिनत - असंख्य। प्रत्येक पाँचवे छत पर विद्यालय का बोर्ड दिखाई देने लगा। विद्यालयों के भवन इतने सुन्दर व लुभावने थे कि लोगों को विश्वास हो गया कि उनके बच्चे चोटी के ज्ञानवान हो जाँएगे। यह सोचे बिना कि भवन बच्चों को नहीं पढ़ाते उन में निवास करने वाले सोमदत्त ही बच्चों को पढ़ाते हैं’।
त्रेह समुन्दर दी उपन्यास 1965 में प्रकाशित हुआ जबकि बिन पैरां दे धरती नामक पंजाबी उपन्यास का प्रकाशन वर्ष 1990 है। इस अंतराल में बेढंगी प्रगति की वेदना और अधिक सशक्तता एवं मार्मिकता से सारथी जी की रचनाओं में प्रकट होती है। उनके दर्द एवं पीड़ा का यह विकास क्रम उन की अन्य रचनाओं में भी स्पष्ट देखा जा सकता है। बिन पैरां दे धरती में वे लिखते हैं – ‘चार दिवारी ने ढकने और छुपाने का गुण छोड़ दिया था। बरामदे ने स्वागतम के स्थान पर पैर धरने वाले को घूरना आरम्भ कर दिया था’। 
एक ओर स्थान पर वे लिखते हैं- बसती का जो नया रूप उभर कर सामने आया था, उस के हिस्से दो अलग आकारों में दिखने लग गए थे। एक हिस्सा ऐसा था जहां रोशनी, प्रकाश, काम-काज, धन्धे कभी भी समाप्त नहीं होते थे।....... सब कुछ आठो पहर चलता रहता था। .............. दूसरे हिस्से में दूर तक न रोशनी थी, ना ही धन्धों, कार्यों के चिन्ह थे। वे लोग पैर और सड़क किसी भी चीज़ को प्रयोग में नहीं ला सकते थे।
तरक्की एवं उन्नती के नाम पर वृक्षों को काटा जा रहा था, मशीनीकरण के कारण आम व्यक्ति का अपने काम धन्धों से हाथ धोते जारहा था। इसी संदर्भ में बिन पैरां दे धरती में वे लिखते हैं- ‘बसती तेजी से बढ़ कर वीराने को निगल रही थी। बीराना अपने अस्तित्व को संभालने हेतु आगे बढ़ रहा था। बसती का विस्तार उस का पीछा कर रहा था’।
तमाशे में उलझा व्यक्ति तमाशा क्या है नहीं जान सकता। परन्तु बसती को दूर से देखने वाला ही बसती के बारे में निर्णायक हो कर कुछ कह सकता है। वीराना एक ऐसा स्थान है जहां से शहर को, बसती को साक्षी भाव से देखा जा सकता है। सन्त कबीर कहते हैं- राम झरोखे बैठ कर जग का मुजरा देख। श्री सारथी जी अपनी विवके दृष्टि से बसती को देखते है तथा उस का विवरण अपनी रचनाओं में करते चले जाते हैं।एक लेख में वे लिखते हैं- ‘हमारे नगर में एक नई बीमारी तीव्रता से फैल रही है। जिस के पास कमरे में ढलान में, डयोढी में, वाथरूम में अर्थात कहीं भी छः आठ फुट का स्थान है, वह वहीं पर करियाना का सामान और डबल रोटी और मिट्टी का तेल रखने जा रहा है’।
अपने समृद्ध अतीत को स्मरण कर एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं – ‘मुझे अपना बचपन याद आ गया है। शहर में तीन चार पंसारी हुआ करते थे।ऊपर के शहर में नानक पंसारी और भगता पंसारी। दक्षिण शहर में दौलत पंसारी और सुन्दर पंसारी। इनके पास जोशीन्दा, पंचरका सभी कुछ था। यह सारे डाक्टर, हकीम, वैद्य, तबीव सभी कुछ थे।..............अब गली गली में पंसारी बैठा है। न जोशांदे का पता है, न ईसबगोल का और न ही पंचरके का। अब तो बस डबल रोटी, एक्लेयर की टाफियां, टू मिन्ट न्यूडल्स और टोमैटो कैचअप की बातले हैं।
पंजाबी उपन्यास रणखेत्तर का मुख्य पात्र भी वीराने का निबासी बताया गया है । वे लिखते हैं- ‘जहां वीराना खत्म होता था वहां से बसती शुरू होती थी और जहां बसती खत्म होती थी वहां वीराना आरम्भ होता था। उस का अंधेरा जैसा तिकोना कमरा उसी सीमा पर था’। श्री सारथी जी की अन्य रचनाओं में भी रचनाकार पूरी बसती अथवा नगर का सर्वेक्षण करता चला जाता है। वह नगर की विकृतियों, अभावों एवं अवमूल्यनों को कलमबद्ध करता हुआ पूरे नगर का विषलेषण हमारे सामने प्रस्तुत करता है। प्रतीत होता है सामूहिक विवके ही बड़े मंच पर खड़ा हो कर सारा विवरण दे रहा हो। सारथी जी स्वयं लिखते हैं- ‘जितनी जल्दी हो सके किसी टीले पर चढ़ जाओ। यह तो तुम्हारी अपनी वीरता होगी कि चढ़ने के लिए कितना ऊंचा टीला तुम ढूंढ सकते हो।........... टीले पर चढ़ने का सीधा मतलब पदार्थ मे से निकल आने का है। ऊपर उठने का और आध्यात्मिक प्रवृति का होना और अंतमुर्खी हो जाना है। ऊपर हो जाने का अर्थ बड़े और विशाल हो जाना है। सहनशील हो जाना और सब से बड़ी बात संतुष्ट हो जाना है। ऊपर हो जाने का अर्थ सब को सम्पन्न देखना और दूसरों की सम्पन्नता में आनंद का अनुभव है .........यदि तुम एक क्षण के लिए तुलना में से निकल कर समाने आ सकते हो तो आ जाओ। फिर तुम देखोगे कि तुम सच ही संसार के महान व्यक्तियों में से एक हो। तुम देखेगे कि तमु उन सब में हो जो भक्त हैं, ज्ञानी है, विवेकशील हैं, बुद्धिमान हैं, कर्मठ हैं, जो संतुष्ट हैं। 
सबसे बड़ी बात एक परिवर्तन की अनुभूति होगी। तुम देखेागे कि सभी लोग क्रोध से घृणा करेंगे। सभी लोग शांति चाहेंगे। सभी सुख समृद्धि ओर निरोग की कामना करेंगे। सभी ऊपर उठ जाएंगे। सारा समाज श्रेष्ठ हो जाऐगा। समस्त मानव समाज ही स्वर्ग की अनुभूति करने लगेगा। 
..............क्रमशः..............कपिल अनिरुद्ध

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