सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (3२)
सारथी जी के कथानुसार-‘शास्त्रानुसार भाषा शैली तीन प्रकार अथवा तीन विधा की है। व्यंजना शैली सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। लक्षणा द्वितीय तथा अभिधा की हल्की विधाओं में गणना होती है। निजि तौर पर मैं व्यंजना शैली को ही अपनाने का आदि हूँ। मैंने जो कुछ भी ईश्वर कृपा से और ईश्वर प्रदत शक्ति, साम्थर्य से अभिव्यक्त किया है वह व्यंजना शैली में ही साकार हुआ है। उस का मूल कारण लगभग यह है कि मैं बुनियादी तौर पर बात को, विचार तथा भाव को प्रतीक के रूप में ही अनुभव करने का आकांक्षी होता हूँ। मुझे अनेकों बार ऐसा लगा है कि मैं अपने चिन्तन को बहुआयामी विधियों से मूर्तिमान होते देखते आया हूँ। और अभिवयक्ति के समय कथ्य का बहुआयामी पक्ष गुम न हो, हाथ से न टूटे और सभी कुछ कह दिया जाये तो बात पूरी होती है और यह तभी संभव है जब मैं प्रतीकों में और संकेतों तथा चिन्हों में स्वयं को व्यक्त करने का प्रयास करूँ।‘
उन के अनुसार- ‘कथ्य ही सतोगुणी, कथ्य ही रजोगुणी और कथ्य ही तमोगुणी होता है। इन के आधार पर अभिव्यक्ति भी उच्चतम, सामान्य और निकृष्ट होती है।‘
वे कहते –‘उत्कृष्ट अभिव्यक्ति सारगर्भित और मानव हेतु आरोहण का मार्ग प्रशस्त करने वाली ऊर्ध्वगमनीय होती है। कई बार मानव में क्रान्ति के बीज भी बो देती है और निकृष्ट अभिव्यक्ति का सत्य और संवेदना से कोई सरोकार नहीं होता। वह पदार्थ से ही जन्म लेती है, पदार्थ ही का प्रमाण होती है और पदार्थ के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है।
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए वे कहते- लेखन भगवान की परम कृपा से होना संभव है। यह लेखक नहीं जो लिखता है, उस के उच्च कर्म, उच्च संस्कार तथा संस्कारों के अनुसार प्राप्त संवेदना ही अक्षरों के रूप में ढ़लती जाती है। मैं दर्शन को साहित्य की आत्मा मानता हूँ और सौन्दर्य को साहित्य का परमलक्ष्य। एक साहित्य का साधक अपनी साधना द्वारा अज्ञात की ही निरन्तर खोज में रहता है। सत्य ओर सौन्दर्य का वह चरम बिन्दु कहाँ है जो कि उसे शान्त करे, सन्तुष्ट करे, यही लक्ष्य मेरा सदैव रहा है।
संवेदना लेखन की रीढ़ की हड्डी है। संवेदना का प्रादुर्भाव होने पर ही मैं अभिव्यक्ति हेतु बाध्य होता हूँ । कथ्य, मूल भूमि, बस्तु तो पहले ही से हर दिशा में विद्यमान है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। समस्त साहित्य जो कि मानव मात्र की करुण दशा के प्रति अनुभूति करबाता है अथवा किसी संघर्ष की ओर इंगित करता है, उच्चतम साहित्य की कोटी में ही गिना जा सकता है। मैं जो लिखता हूँ, जिस प्रकार के कथ्य का, भूमि का, बस्तु सत्य का चुनाव करता हूँ, उस के लिए मार्ग मैं स्वयं ही निर्धारित करता हुआ हूँ।
मेरी आकांक्षा होती है कि मैं मानव के अन्तस में छिपे उन विचारों, भावों, कर्मों का चित्रण करूँ जो मानव को दोहरी भूमिका प्रस्तुत करने में बाध्य करते हैं। और बनते-बनते एक आदमी जो स्थानानुसार, अवसरानुसार स्थिति को परखते हुए स्वयं को निरन्तर बदलता जाता है। वह स्वयं के भीतर दोष भरता जाता है, वह Guilty होता जाता है। मानव समाज में रहने और अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए ही वह यह सब करता है, परन्तु वह इतना कृत्रिम, इतना बनावटी होता जाता है कि उसे एक दिन ढ़ू़ँढ़ना कठिन हो जाता है कि उस के भीतर का वास्तबिक आदमी कहाँ है।
दूसरा संदर्भ चेहरों और मुखोटों का संदर्भ है, जो अवसरवादी होने का ही दूसरा रूप है। आज का मानव अपने पास इतने मासूम और आकर्षक चेहरे रखे हुए है जो वह अपने भयावह मुँह पर चढ़ा लेता है, यह एक चिन्ता का विषय है और यह मुझे अत्याधिक रुचिकर लगता है।
तीसरा विषय है- मानव का निर्माण, शिक्षा के मूल्य। सभ्यता और व्यवहारिक्ता का अभाव। आज दशा है-बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए। शिशु ही मानव बन कर समाज निर्माण करता है। जैसा शिशु तथा उस के संस्कार होंगे बैसा ही वह समाज निर्माण करेगा।
आज के वैज्ञानिक और तकनीकी काल ने सभी को पर्दाथवादी और पर्दाथभोगी बना दिया है। आदमी के अशांत और असंतुष्ट रहने का शायद यही कारण है कि वह पदार्थ और उस की प्राप्ति में सुख और अप्राप्ति में दुख का अनुभव कर रहा है। पदार्थ के पीछे अन्धी दौड़ का परिणाम है- मूल्यों का हनन एवं हृास। मैंने उपन्यासों और निबन्धों में इस हनन पर चिन्ता के साथ-साथ मानवीय वृति पर भरपूर कटाक्ष किए हैं। बालक को इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफैसर, एडमिनिस्टर, वैज्ञानिक बनाने हेतु समाज में विश्वविध्यालय तथा संस्थान स्थापित किए हैं, परन्तु कहीं कोई ऐसा संस्थान दृष्टिगोचर नहीं होता जहाँ शिक्षार्थी को मानव, एक नीतिवान, शालीन तथा विचारक मानव बनाया जाना अनिवार्य हो। शिक्षार्थी चाहे कुछ भी बन जाये, परन्तु उस का स्वयं की शक्तियों - क्षमताओं को जानना समाज के लिए अनिवार्य है। मेरे विश्वास के अनुसार साहित्य मनोरंजन नहीं है, बड़ा भारी दायित्व है। इसी कारण मुझे कथावस्तु के चयन में कभी कोई विलम्ब अथवा वाधा नहीं आई। इस के विपरीत मेरे आसपास इतने कथ्य फैले हैं कि चयन ही कठिन हो जाता है।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (3२)
सारथी जी के कथानुसार-‘शास्त्रानुसार भाषा शैली तीन प्रकार अथवा तीन विधा की है। व्यंजना शैली सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। लक्षणा द्वितीय तथा अभिधा की हल्की विधाओं में गणना होती है। निजि तौर पर मैं व्यंजना शैली को ही अपनाने का आदि हूँ। मैंने जो कुछ भी ईश्वर कृपा से और ईश्वर प्रदत शक्ति, साम्थर्य से अभिव्यक्त किया है वह व्यंजना शैली में ही साकार हुआ है। उस का मूल कारण लगभग यह है कि मैं बुनियादी तौर पर बात को, विचार तथा भाव को प्रतीक के रूप में ही अनुभव करने का आकांक्षी होता हूँ। मुझे अनेकों बार ऐसा लगा है कि मैं अपने चिन्तन को बहुआयामी विधियों से मूर्तिमान होते देखते आया हूँ। और अभिवयक्ति के समय कथ्य का बहुआयामी पक्ष गुम न हो, हाथ से न टूटे और सभी कुछ कह दिया जाये तो बात पूरी होती है और यह तभी संभव है जब मैं प्रतीकों में और संकेतों तथा चिन्हों में स्वयं को व्यक्त करने का प्रयास करूँ।‘
उन के अनुसार- ‘कथ्य ही सतोगुणी, कथ्य ही रजोगुणी और कथ्य ही तमोगुणी होता है। इन के आधार पर अभिव्यक्ति भी उच्चतम, सामान्य और निकृष्ट होती है।‘
वे कहते –‘उत्कृष्ट अभिव्यक्ति सारगर्भित और मानव हेतु आरोहण का मार्ग प्रशस्त करने वाली ऊर्ध्वगमनीय होती है। कई बार मानव में क्रान्ति के बीज भी बो देती है और निकृष्ट अभिव्यक्ति का सत्य और संवेदना से कोई सरोकार नहीं होता। वह पदार्थ से ही जन्म लेती है, पदार्थ ही का प्रमाण होती है और पदार्थ के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है।
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए वे कहते- लेखन भगवान की परम कृपा से होना संभव है। यह लेखक नहीं जो लिखता है, उस के उच्च कर्म, उच्च संस्कार तथा संस्कारों के अनुसार प्राप्त संवेदना ही अक्षरों के रूप में ढ़लती जाती है। मैं दर्शन को साहित्य की आत्मा मानता हूँ और सौन्दर्य को साहित्य का परमलक्ष्य। एक साहित्य का साधक अपनी साधना द्वारा अज्ञात की ही निरन्तर खोज में रहता है। सत्य ओर सौन्दर्य का वह चरम बिन्दु कहाँ है जो कि उसे शान्त करे, सन्तुष्ट करे, यही लक्ष्य मेरा सदैव रहा है।
संवेदना लेखन की रीढ़ की हड्डी है। संवेदना का प्रादुर्भाव होने पर ही मैं अभिव्यक्ति हेतु बाध्य होता हूँ । कथ्य, मूल भूमि, बस्तु तो पहले ही से हर दिशा में विद्यमान है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। समस्त साहित्य जो कि मानव मात्र की करुण दशा के प्रति अनुभूति करबाता है अथवा किसी संघर्ष की ओर इंगित करता है, उच्चतम साहित्य की कोटी में ही गिना जा सकता है। मैं जो लिखता हूँ, जिस प्रकार के कथ्य का, भूमि का, बस्तु सत्य का चुनाव करता हूँ, उस के लिए मार्ग मैं स्वयं ही निर्धारित करता हुआ हूँ।
मेरी आकांक्षा होती है कि मैं मानव के अन्तस में छिपे उन विचारों, भावों, कर्मों का चित्रण करूँ जो मानव को दोहरी भूमिका प्रस्तुत करने में बाध्य करते हैं। और बनते-बनते एक आदमी जो स्थानानुसार, अवसरानुसार स्थिति को परखते हुए स्वयं को निरन्तर बदलता जाता है। वह स्वयं के भीतर दोष भरता जाता है, वह Guilty होता जाता है। मानव समाज में रहने और अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए ही वह यह सब करता है, परन्तु वह इतना कृत्रिम, इतना बनावटी होता जाता है कि उसे एक दिन ढ़ू़ँढ़ना कठिन हो जाता है कि उस के भीतर का वास्तबिक आदमी कहाँ है।
दूसरा संदर्भ चेहरों और मुखोटों का संदर्भ है, जो अवसरवादी होने का ही दूसरा रूप है। आज का मानव अपने पास इतने मासूम और आकर्षक चेहरे रखे हुए है जो वह अपने भयावह मुँह पर चढ़ा लेता है, यह एक चिन्ता का विषय है और यह मुझे अत्याधिक रुचिकर लगता है।
तीसरा विषय है- मानव का निर्माण, शिक्षा के मूल्य। सभ्यता और व्यवहारिक्ता का अभाव। आज दशा है-बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए। शिशु ही मानव बन कर समाज निर्माण करता है। जैसा शिशु तथा उस के संस्कार होंगे बैसा ही वह समाज निर्माण करेगा।
आज के वैज्ञानिक और तकनीकी काल ने सभी को पर्दाथवादी और पर्दाथभोगी बना दिया है। आदमी के अशांत और असंतुष्ट रहने का शायद यही कारण है कि वह पदार्थ और उस की प्राप्ति में सुख और अप्राप्ति में दुख का अनुभव कर रहा है। पदार्थ के पीछे अन्धी दौड़ का परिणाम है- मूल्यों का हनन एवं हृास। मैंने उपन्यासों और निबन्धों में इस हनन पर चिन्ता के साथ-साथ मानवीय वृति पर भरपूर कटाक्ष किए हैं। बालक को इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफैसर, एडमिनिस्टर, वैज्ञानिक बनाने हेतु समाज में विश्वविध्यालय तथा संस्थान स्थापित किए हैं, परन्तु कहीं कोई ऐसा संस्थान दृष्टिगोचर नहीं होता जहाँ शिक्षार्थी को मानव, एक नीतिवान, शालीन तथा विचारक मानव बनाया जाना अनिवार्य हो। शिक्षार्थी चाहे कुछ भी बन जाये, परन्तु उस का स्वयं की शक्तियों - क्षमताओं को जानना समाज के लिए अनिवार्य है। मेरे विश्वास के अनुसार साहित्य मनोरंजन नहीं है, बड़ा भारी दायित्व है। इसी कारण मुझे कथावस्तु के चयन में कभी कोई विलम्ब अथवा वाधा नहीं आई। इस के विपरीत मेरे आसपास इतने कथ्य फैले हैं कि चयन ही कठिन हो जाता है।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध
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