सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Saturday, 31 March 2012

गुरुदेव 'सारथी' जी के कथनानुसार ---
( गुरुदेव का यह कथन 'घड़ी साज' के नाम से प्रकशित होने वाले उन के एक निबंध से लिया गया है ।)

......................"प्रिय बन्धु! मुझे ठीक से विदित नहीं कि तुम किस स्थिति में हो, परन्तु यह तो निश्चित है कि पूरे आनंद और शांति कि स्थिति के लिए तुम्हे थोडा सा संघर्ष करना पड़ेगा और तुम्हे मेरी सहायता की आवश्यकता पड़ेगी वह यह कि तुम क्यों न ऐसी स्थिति के लिए साधना करो, जो न दुख कि स्थिति है और न सुख की ही स्थिति है । बल्कि दोनों के मध्य की स्थिति । एक ऐसा बिंदु, एक ऐसा मुकाम जिस पर पहुँच कर यह अहसास हो कि दुःख यहाँ पर समाप्त हो गया है और यहीं से सुख प्रारंभ होने को है । तुम ऐसी स्थिति पर पहुँच सकते हो जहाँ न सुख हो, और न ही दुःख हो । जहाँ दोनों समाप्त हों । जहाँ खड़े हो कर तुम दोनों सन्दर्भों को देख सको । और फिर तुम्हे एक नए जीवन का, एक नए विश्व का और एक नए मानव का साक्षात्कार हो और यह स्थित काफी सहज है" .................

Landscape in water colours depicting ' Trikuta Parvat" by Gurudev Sarathi ji


a landscape in water colours by the great artist


Sunday, 25 March 2012


घड़ी साज ----सारथी 

प्रिय बंधू ! गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक चौपाई बिलकुल सरल और सहज कही है-

जा पर कृपा राम की होई
ता पर कृपा करे सब कोई

गोस्वामी जी अनेकानेक स्थानों पर बहुत ही जटिल बात बिलकुल सीधे, स्पष्ट, साफ़ और सार्थक शब्दों में कहते हैं। जटिल यह बात इसलिए है कि इस में शर्त है । शर्त यह है कि उस मनुष्य पर सभी कृपालू हो जाते हैं, वह मनुष्य दया का पात्र हो जाता है, जिस पर राम कृपा हो, वरना नहीं । तो यदि तुम यह चाहते हो कि सारा संसार तुम पर कृपा बरसाता रहे, दया की वर्षा करता रहे तो तुम्हारे लिए आवश्यक यह है कि राम को रिझाओ । महारानी मीरा की भांति राम को मनाओ और प्रेम में झकड़ो। वे कहती हैं -

श्री गिरिधर आगे नाचूंगी ।
नाच नाच पिया रसिक रिझाऊँ ।
प्रेमीजन को जान्चूगी।
प्रेम प्रीती के बाँध घुंघरूं
सूरत की कछनी काछुंगी

नाच और मुजरा तो नर्तकी करती है । अपने स्वार्थ के लिए । उस के लिए जिसे नाच अच्छा लगता है और बदले में दौलत प्राप्त होने वाली है । दौलत दौलत में अंतर है । मीरा रानी (सूरत समाधी, तुरीयावस्था ) के लिए ही नाच का आयोजन कर रही है । जब यह जीवात्मा उस परब्रह्म में विलय हो जाती है और फिर कुछ भी भिन्न नहीं रह जाता । फिर समय कि भी कोई कल्पना नहीं रहती है । मात्र प्रकाश होता है । रौशनी का ही एक अंतहीन सागर होता है और जीव के सारे संस्कार और कर्म उस प्रकाश ही से धुल जाते हैं । परम ज्योति से, जो स्थित है तो ब्रह्माण्ड स्थित है और जिस के प्रकाश से सभी कुछ प्रकाशमान है । जो 'ऋतम्बरा' है । जो सृष्टि का मूल और कारण है और महारानी मीरा ने उन्हें ही पति (लाज बचाने वाला ) चुना है । मीरा के उस परब्रह्म का संकेत उपनिषद ने यूं दिया है -

'सदा दीप्ति अपारं अमृत वृत्त स्नानम'

जो सदैव दीपायमान, प्रकाशमान है, सदा प्रदीप्त है, जो अपार है । जिस का कोई छोर, कोई किनारा नहीं है । जो मृत्यु से परे है, जो जन्म और मृत्यु के बीच में नहीं है, जो अमृत है और जो वृताकार है और जो अपने ही प्रकाश में हर क्षण स्नान करते रहते हैं । मीरा उसी रसिक को रिझाती है और उसी के ध्यान में विलीन हो जाने को व्याकुल है । संत कबीर भी उसी प्रकाश की बात करते हैं । वे कहते हैं -

साधो। हरी बिन जग अँधियारा
कोई जाने न जानन हारा .....

यह जग, यह ब्रह्माण्ड उसी के प्रकाश से प्रकाशमान है और प्रकाश ही जीवन है, प्रकाश ही प्राण है, प्रकाश ही गति है, प्रकाश ही प्रकृति है और प्रकाश ही सृष्टि है । दृष्टि और श्रवण प्रकाश ही के पुत्र हैं । प्रकाश ही कोटि कोटि श्वास और श्वास के द्वारा जीव का जीवन है और यह जीवन उसी का साक्षी है, उसी का निमित्त है ।

प्रिय बन्धू! जब भगवन किसी पर अधिकाधिक प्रसन्न होते हैं तो वे उस पर तो कृपा की, दया की, प्रेम की और सम्पन्नता की वर्षा करते ही हैं । उस को संसार का सर्वश्रेष्ट धन संतोष दे देते हैं -

गो धन गज धन रत्न धन ।
सब ही धन की खान ।।
जब आवे संतोष धन ।
सब धन धूली समान ।।

उस के साथ परम पिता, प्रभु परमेश्वर तुम्हारे मित्रों और सम्बन्धियों पर भी कृपा और प्रसन्नता और धैर्य की वर्षा करते हैं । तुम अपने जिस किसी परिचित से मिलते हो वही तुम्हारा स्वागत करता है, तुम्हे प्रेम करता है, तुम से आदर और स्नेह और सम्मान से व्यवहार करता है । वह तुम्हे ही सुख का साधन मान लेता है । तुम्हे ही परम की अनुकम्पा मान लेता है ।

दूसरी और यदि प्रभु रूठे हैं, नाराज़ हैं, तुम पर क्रुद्ध हैं तो तुम्हारे सज्जनों और संगियों और सम्बन्धियों पर अधिक प्रकुपित हैं । तुम जब भी किसी से मिलते हो, बात करते हो तो मिलते ही तुम्हारा अपमान करता है, बुरा भला कहता है । वह तुम्हे ही अपने दुःख और आपत्ति का कारण स्थापित कर लेता है । वह समस्त संसार को दुखी ही देखता है और संसार के दुःख को भोगता है और साथ साथ तुम्हारा अपयश करता जाता है ।

यह भी प्रभु का प्रकोप है की ऐसे व्यक्ति के मुख से प्रभु का नाम भी नहीं निकलता । वह अपशब्द, अपमानजनक भाषा बोल सकता है परन्तु अपनी व्यथा कथा गोपाल को राम को सुनाने की शक्ति नहीं रखता । न ही सुना सकता है । तभी तो प्रभु कहते हैं की जब मैं दया करता हूँ तो तुम्हारे मुंह से मेरा नाम निकलता है और यदि अधिक कृपा करूँ तो नाम का ज्ञान तुम्हे देता हूँ और नाम के प्रकाश से तुम्हे रास्ता दिखाई देने लगता है और जब मैं सब से अधिक प्रसन्न होता हूँ तो तुम्हारे मन में वास करता हूँ और मैं तुम्हारे जीवन में अमरत्व भर देता हूँ । फिर तुम प्रेम का स्रोत बन जाते हो । तुम दयालु हो जाते हो । फिर तुम हिंसा को त्याग देते हो । तुम रक्षक बन जाते हो । फिर तुम में और जीवों में अंतर नहीं रहता है और सृष्टि के कण कण में तुम स्वयं ही का दर्शन करते हो । स्वयं ही को निहारते हो । महारानी ने शायद इसी पद के प्राप्ति के बाद कहा था -

लाली मेरे लाल की
जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं चली
मैं भी हो गयी लाल

( this article of Gurudev was published in Dianik kashmir times under the title "Gari Saaj" on 21st of November-1990)
 ·  ·  · March 20 at 8:20pm near Jammu
  • Shivdev Manhas likes this.
    • Joginder Singh भए कृपाल गोपाल प्रभ मेरे साध-संगत निध मानिया ...श्री गुरु अर्जन देव जी कहते हैं कि जिन पर प्रभु गोपाल की कृपा होती है उनको साधू-संगत एक निधि (खजाने) जैसा दिखता है...यहाँ पर गोपाल नाम से संबोधित करने का विशेष महत्व है...पालयते गो, सा गोपाल...इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाला जीवन का मूल स्रोत गोपाल ...
      March 20 at 8:53pm ·  ·  2
    • Kapil Anirudh बहुत खूब, बंधू ! गो का एक अर्थ ब्रह्माण्ड भी होता है, तो गोपाल का एक अर्थ ब्रह्माण्ड का पालन करने वाला भी हुआ, उसी प्रकार गोविन्द का एक अर्थ ब्रह्माण्ड का केंद्र (Center of the Universe) भी है ..........
      March 21 at 4:33am ·  ·  1
    • Joginder Singh अति सुन्दर, धन्यवाद मित्र!

Sunday, 18 March 2012

Oil Painting by Gurudev


Speech By Shri. O.P.Sharma "Sarathi"
( Sahitya Akademi Award Winner in Dogri for his Dogri novel" Nanga Rukh" in the year 1979)

It is the sun which moves life. Inspiration moves the writer. First of all, I express my gratitude to the Sahitya Akademi. I have received immeasurable inspiration from this honour and award. I would now be able to move forward on the path of writing with a new determination and energy.

I also feel gratified, almost to the point of pride, that I am a citizen of a great country which shows the way in literature and culture. The Sahitya Akademi has strengthened the belief that an author is an asset to the nation. It has bestowed glory on me and several other authors with me by this Award.

I am a humble toiler of the pen from the region of Duggar, belonging to the Dogri literature - one who tries to be as honest as possible. Today I am reminded of something that happened long ago. At that time it was only words but now it has significance for me. My father is an ardent devotee of Pandit Vishnu Narayan Bhatkhande. While teaching me music, once he exclaimed in surprise: Why are artists of my generation so naive that they keep discussing others, thinking of others and grow senile in sitting on judgment over them? When would they think about themselves?

I took the hint that it was I who had to take a decision. Thus began notes, rhythm and percussion at home and painting in the Office. Then there was the interest in writing - to the point of obsession. I was caught in the net of dilemma as the fish is caught in the web of water. Ramkrishna Parmhansa has said: Only he can reach the shore who is caught in a dilemma. Doubt is the first condition of Sadhna.

Subjecting myself to the one law- karmanyevadhikaraste:' the only right is karma'- by writing constantly and making to the shore I was confronted with the truth that we are creating each other, knowingly or unwittingly. Everything in the environment and in society, everyone rooted in the earth is creating himself and others. This truth appeared to me to be imperative and indivisible in the filed of fine arts. Living in his environment, even though an artist becomes introspective, he breathes assimilating the evolving truths of his society in his mind. And even as he becomes extrovert he is a medium linking and linking with others.

Of the many media of linking and delinking, I have chosen the path of expressing myself through words. The sounds belong to the Dogri language.

It is the token of the beauty, genius and light of my country that no single language is the sole medium of its unity and harmony. Language is more a medium than a goal. The goal is to reach out, to link, to connect - to raise each other, everyone, the entire creation.

I express my thanks again and again that the Sahitya Akademi has protected my rights to my feelings, experiences and goals along with my medium. if I would wish to live with my truth alone I would distort myself. May my experience, my truth and my writings belong to all - this is the blessing I crave from you. Give me the capacity for this decision, this choice.

I shall close with a couplet from one of my Dogri Ghazals:

It was the test of the pen, so this is how I began:
The burden of words is too heavy to be borne by a single man.

Thank you, jai Hind. 

Wednesday, 14 March 2012



-घड़ी साज ---सारथी 

तुम्हे ज्ञात नहीं है की सम्बन्ध क्या होता है? और जो कुछ तुम्हारे साथ है अथवा हो रहा है वह बहुत व्यवसायिक और व्यापारिक है । तुम्हारे संबंधों में तुमने प्राय: देखा होगा कि तुम्हारे सम्बन्ध शब्दों पर आधारित हैं, अर्थों पर नहीं । सम्बन्ध बाद में बनता है नाम पहले पड़ जाता है और संबंधों को जितने नाम दिए गए हैं वह स्वार्थ के परिवेश में स्मरण रखने और पहचान स्थापित करने के लिए ही हैं । ये सारे नामों के सम्बन्ध अपने पारम्परिक अर्थों से आगे नहीं जा सकते । वह सीमा को तोड़ नहीं सकते । उल्लंघन नहीं कर सकते । परन्तु तुम्हारा दुखांत यह है कि धीरे धीरे नाम तो स्थापित रहता है और सम्बन्ध को दिए शब्द तो अपने स्थान पर जमे रहते हैं परन्तु मध्य में से सम्बन्ध ही हट जाते हैं, कट जाते हैं और बट जाते हैं और फिर तुम जीवन भर एक शब्द के भीतर, उस की क़ैद में फंसे रह जाते हो ।

प्रिय बन्धु ! इस में एक रहस्य है । तुम्हे वह जानना चाहिए । वह है कि तुम जान बूझ कर नाम में, संज्ञा में और पहचान में फंसे रहना चाहते हो । तुम कभी नहीं चाहते कि तुम पिता न रहो । माता श्री और भ्राता श्री न रहो । तुम्हारी आकांक्षा यही रहती है कि तुम कुछ न कुछ अवश्य रहो । चाहे वह सम्बन्ध निभे अथवा न निभे । आओ! एक दृष्टिकोण अपनाएँ और दो में से एक ही बात पर केन्द्रित होने का प्रयास करें । पहले बात यह कि तुम सम्बन्ध तो रखो, परन्तु उसे कोई संज्ञा न दो, नाम न दो । उस सम्बन्ध को किसी भी वृत्त में, घेरे में बंधने और नाम की आवश्यकता नहीं होगी। यदि पहचान ही न होगी तो नाम क्या दोगे? और यदि नाम न दे सको तो वही सम्बन्ध सार्वभौमिक, शाश्वत और असीम हो पायेगा और ऐसे संबध तुम बांधते नहीं हो । यहाँ तक की वह सम्बन्ध तुम्हारे चेतन मन में और मस्तिष्क में कहीं नहीं होता और कहीं दूर अंतस चेतन अथवा अचेतन मन की तहों में वह अपनी जड़ें जमाये रहता है । और बन्धु! मैंने तुम्हे अनेक बार समझाने का प्रयास किया है कि हमारा चेतन मन तात्कालिक और तत्क्षण की ही पहचान मुश्किल से कर पाता है । उस का कारण यह है कि मानव का वातावरण एवं परिस्थिति हर क्षण बदलते हैं और उन के साथ मनोस्थिति भी परिवर्तित होती जाती है और हर क्षण बदले हुए मानव, तत्व, पदार्थ, दृश्य और जगत को साथ ही साथ संप्रेषित करने में तुम्हारा चेतन मन इतना अधिक व्यस्त रहता है कि सुरक्षित करने और स्मरण करने और उसे छायाबद्ध करने का अवसर ही उसे प्राप्त नहीं होता और वह यह न करता हुआ अपने ही दूसरे भाग अंतस चेतन को यह दायित्व सोंपता जाता है कि वह सब कुछ सुरक्षित करता चला जाए और फिर जब अंतस चेतन सुरक्षा का कार्य संभालता है तो सभी कुछ को एकत्रित कर कर के अपने में डालता जाता है और इस प्रकार तुम अपने ही स्थापित किये संबंधों को अलग अलग हजारों खिडकियों से देखते चले जाते हो और इन्ही संबंधों के कई कई रूप और प्रभाग बनते चले जाते हैं और कई बार ऐसा भी होता है कि अंतस चेतन में जो कुछ बनता चला जाता है वास्तव में वह कहीं नहीं होता ।

संबंधों के बारे में अस्वीकरात्मक रवैया ही एक शुरुआत है । ऐसे सम्बन्ध की जो कहीं न हो कर सब जगह हैं । तुलसीदास जी कहते हैं -

ब्रह्म तू है जीव हौं
तू ठाकुर हौं चेरो
तात मात गुरु सखा
तू सब विधि हितु मेरो

यहाँ गोस्वामी जी का मानना है कि हे राम एक तू ही मेरा हितकर भी है और मेरा अहित तुझी में है और यदि तू ही मेरा पिता माता सखा भ्राता और गुरु है तो मेरा अहित हो ही नहीं सकता । परन्तु एक शर्त और रखते हैं गोस्वामी जी । मैं जीव हूँ और तुम ब्रह्म हो । तुम स्रष्टा हो मैं सृष्टि हूँ। तुम रचनाकार और मैं साधारण रचना मात्र । फिर तुम ठाकुर हो, स्वामी हो और मैं तुम्हारा शिष्य हूँ । तो प्रिय बन्धु! कोई ऐसा सम्बन्ध नहीं है जो तुलसीदास जी भगवन श्री राम से नहीं जोड़ते हैं और हर सम्बन्ध स्थापित करते हुए वह रक्षा की और क्षमा की और भक्ति की भिक्षा मांगते हैं । इस पद की स्थाई इस प्रकार है

तू दयालु दीन हौं
तू दानी हौं भिखारी
हौं प्रसिद्ध पातकी
तू पाप पुंज हारी

एक नहीं अनेकों साधकों, भक्तों और योगियों ने भगवान् से जब भी सम्बन्ध स्थापित किया है तो स्वयं को पतित और दीन- हीन, दरिद्र और कुटिल कहा है और उसे पतित पावन, उदार, दया का सागर, प्रेम और क्षमा का सागर ही कहा है ।

मेरे कहने का अभिप्राय स्पष्ट है पुत्र ! क्या कभी तुमने यहाँ पर समाज में (संसार ) के साथ भी ऐसा सम्बन्ध स्थापित किया है ? क्या तुम ने जितने भी सम्बन्ध बनाये हैं चाहे वह किसी भी प्रकार और व्यवहार में भिन्न ही हों तुम ने उन्हें बड़ा आदरनीय और कृपालु माना है ? और उस से रक्षा और भक्ति की भिक्षा मांगी है ? शायद ऐसा कभी नहीं हुआ । तुम शायद ऐसा सोच भी नहीं सके कभी और अब जब मैं तुम से यह बात कर रहा हूँ तो तुम्हे आश्चर्य हो रहा है, हो रहा होगा । तुम अवश्य सोच रहे होगे कि कितना मूर्खतापूर्ण कार्य होगा कि तुम अपने पुत्र से अपनी पत्नी से अपने से छोटे और अधीन कर्मचारी से भक्ति दया और रक्षा कि भीख मांगोगे ? ऐसा असंभव है न ।

परन्तु भगवन को यही पसंद है कि तुम सारे ही जगत से सारी ही सृष्टि से दया, भक्ति और प्रेम की भिक्षा मांगो । तुम संसार का सब से बड़ा भिखारी बन जाओ और प्रेम और भक्ति की भिक्षा मांगते फिरो और फिर तुम शीघ्र ही देखोगे कि तुम स्वयं ही प्रेम की, दया की, भक्ति की भिक्षा मांगते मांगते दया और प्रेम की प्रतिमूर्ति में परिवर्तित होने जा रहे हो । तुम भीख मांग नहीं रहे हो वरन भीख ही का रूप होने जा रहे हो ।

यही सम्बन्ध सर्वोच्च है । चाहे जगत से स्थापित कर लो । चाहे राम से । फिर यही होगा कि जगत राम हो जाएगा और राम जगत हो जाएगा और तुम्हे होगे प्राप्ति राम के रूप में उस के रहस्य (जगत ) की और जगत (रहस्य) के रूप में राम की प्राप्ति और जो सम्बन्ध स्थापित होगा वह परित्राण हेतु ही होगा ।

(this article of Gurudev was published in Dainik kashmir times( hindi daily of Jammu) under the title "Ghari Saaj on 26th Aug 1990)
 ·  ·  · January 29 at 5:46pm near Jammu
  • You, Jai Deep Bakshi and Varun Joshi like this.
    • Parth Shradhanand सत्य वचन !

      गोस्वामी तुलसीदास लिखतें हैं -
      जा पर कृपा राम की होई
      ता पर कृपा करे सब कोई
      अर्थात जिस पर प्रभु की कृपा होती है उस पर सब कृपा करने लगते हैं । ऐसे व्यक्ति के लिए संसार भी मार्गदर्शक बन जाता है, प्रेरणास्रोत बन जाता है, राममय हो जाता है ।
      January 30 at 10:08pm ·  ·  1
    • Kapil Anirudh अति सुंदर,
      इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास 'रामचरितमानस ' में एक अन्य स्थान पर लिखते हैं -
      सिया राममय सब जग जानी
      करहूँ प्रणाम जोरी जुग पाणी

      अर्थात मैं सारे संसार को सिया राममय जान कर, दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करता हूँ ।
      January 30 at 10:15pm ·  ·  1
    • Joginder Singh उमा कहूँ मैं अनुभव अपना, सच हरि नाम जगत सब सपना |...यह वचन शिव जी के हैं...अर्थात शिव योगीराज का अनुभव?
      January 31 at 4:02am ·  ·  1

Tuesday, 13 March 2012

an article by Gurudev

..................घड़ी साज..................                                                                                                        सारथी 

पुत्र! मान लिया कि तुम एक शव हो। निर्जीव देह। तो अब क्या हो रहा है यह देखना बड़ा आनंददायक होगा। पहली बात यह है कि शव पर यम-नियम का आक्रमण नहीं हो सकता । भूत, गुण और तत्व तो छू भी नहीं सकते। एक स्त्री आ कर, वासनामय हो कर तुम्हारे शव से लाख बार सिर भिडाये परन्तु तुम पर कुछ भी प्रभाव होने बाला नहीं है। क्योंकि तुम तो मुर्दा हो। तो वासना तुम पर कोई जादू नहीं जगा सकी? तो यह देखो कि दृष्य क्या करते हैं । क्योंकि तुम्हारे जीते जी तुम्हारी जीवन शक्ति का एक बड़ा भाग दृष्टि और दृष्य खा लिया करते थे । और तुम्हे दृष्टि आनंद उठाने के लिए क्या क्या आहार लेने पड़ते थे । और कईं बार किसी 'हीर' या 'सोहनी' या 'लैला' को देख लेने पर उर्जा के खजाने पेशगी में ही गायब हो जाया करते थे। अब तुम एक शव जैसे हो और तुम्हे विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता में ले जाया गया है । या फिर फ्रांस के किसी ब्लू केबिन में । तो तुम्हे कोई हिला जुला तक नहीं सका। न ही तुम पर कोई अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ा है । तो प्रिय! यह तो एक प्रतक्ष्य सा योग हो गया । जिस में तुम्हे दोनों बातें प्रतक्ष्य तथ्य के रूप में साक्षात हो गयीं । एक वैराग्य दूसरा ज्ञान । तुम पर अब खाने पीने सूंघने देखने सुनने का कोई असर हो ही नहीं रहा । कारण है उर्जा कि समाप्ति । प्राणों का आभाव । तो एक बात और तुम्हारी समझ में आ गयी कि गुणों और क्रियायों और विषयों का प्रभाव और उन कि प्रतिक्रिया तुम्हारी उर्जा पर ही होती है । जब तक देह में प्राण हैं देह भागती है तभी तक अहंकार क्रोध मोह लोभ और वासनायों का युद्ध जारी रहता है और यह एक के बाद दूसरी शरीर को फतेह करती चली जाते है । तुम्हे पराजित करती चली जाती है । या यूँ कहें कि तुम्हारी शक्ति तुम्हारी गरिमा और तुम्हारी उर्जा पराजित होते चले जाते हैं । और जब यह स्रोत सूख जाते हैं बंद हो जाते हैं तो किसी विजय पराजय का प्रश्न ही नहीं उठता ।

अब एक स्तिथि अपने लिए तुम पैदा कर सको तो करो। पूरे दिन में एक क्षण, दो क्षण, पांच सात क्षण यदि स्वयं को शव जैसा बना डालो और देखो कि क्या अंतर पड़ता है जब तुम शव नहीं होते और क्या घटित होता है जब तुम शव होते हो। यह एक अनुभव है जो प्रारंभ में तनिक हास्यास्पद लगेगा । परन्तु यही प्रयोग आगे चल कर बहुत सारी संभावनायों को जन्म दे सकता है । यदि तुम्हारे वातावरण में ऐसी बस्तुएं, पदार्थ और तत्व विद्यमान हैं जो तुम्हें संतुष्टि प्रदान करते हैं तो शव स्थिति में संतुष्टि लुप्त हो जायेगी परन्तु साथ साथ उठने वाली असंतोष कि भावना सिर नहीं उठा सकेगी । क्योंकि निष्प्राण देह संतोष असंतोष से समन्वित हो ही नहीं सकती । और फिर तुम्हे ऐसी अनुभूति होगी कि जिन बस्तुयों को तुम सुख का कारण समझते हो उन का सुख मर जाएगा और जिन पदार्थों को दुःख का कारण समझते हो उन का दुःख मर जाएगा । अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम कितने समय तक यह स्थिति निरंतर बनाये रख सकते हो । और तुम्हे वह उपलब्ध हो रहा है जिस कि तुम्हे तालाश है । यह पृथक बात है कि तुम्हे कोई तलाश है कि नहीं । यदि किसी भी तलाश कि जिज्ञासा तुम्हारे भीतर नहीं है तो तुम्हारी स्थिति बहुत स्थिर है । अटूट है। अडिग है । जैसे किसी पशु कि होती है । गाय और भैंस की और घोड़े और बैल कि स्थिति की भांति । जानवरों को तलाश कि जिज्ञासा नहीं होती । और जीवन के प्रति अधिकाधिक मोह भी होता है । पशु न ही खोज करते हैं न ही विकास । और न ही वो वैज्ञानिक ही हो सकते हैं । उन के गले में रस्सी होती है तो वे प्रकृति को क्यों जानें और क्यों देखें ।

प्रिय पुत्र! मेरा मत है कि तुम चाहे कोई भी संस्कार ले कर पैदा हुए हो तुम्हारे भीतर पिपासा और जिज्ञासा अवश्य होते हैं। यह तुम्हारी अपनी जीवन की प्रणाली और परिपाटी है की तुम उस पिपासा को और जिज्ञासा को कितना बड़ा सकते हो और कितना जीवित रख सकते हो। यदि जीवन ही को समझने की, परखने की और कभी कभी इस के पार जाने की आकांक्षा तुम्हारे अन्तकरण में उठती है तो एक छोटे से प्रयोग के तौर पर तुम यह सब करना प्रारंभ कर सकते हो जो मैं कह रहा हूँ । और यदि तुम पांच मिन्टों के लिए स्वयं को एक शव बना डालने में सफल हो जाते हो वो बहुत कुछ अक्षण हो जाता है जो कभी भी संभव नज़र नहीं आता था। पांच मिन्टों में तुम्हारे संजोये हुए और प्रेम और आसक्ति से लिखे सारे इतिहास कोरे पन्नों में बदल सकते हैं । सब कुछ जो कुछ भी तुम सीधा देखते हो वह उल्टा हो सकता है और जो कुछ भी उल्टा देखते हो वह सब सीधा सीधा दृष्टिगोचर होने लगता है ।

यह एक वैराग्य है कठिनतम वैराग्य का सरलतम रूप । एक छोटी से अवधि के लिए मर जाना। और फिर उस अवधि को साधना से बढ़ाते जाना । और जब यह अवधि अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच जाए तो एक उपलब्धि की प्रतीक्षा करना । और यदि तुम्हे परामर्श कहीं पहुंचता हुआ लगता है तो अभी से इसी क्षण से वह क्रिया प्रारंभ कर दो जो मैं तुम्हे कहता हूँ । तुम आँखें बंद कर के तो यह दावा कर सकते हो की तुम देख नहीं रहे हो । परन्तु अब तुम्हे आँखें खुली रखनी है और दावा करना है की तुम देख नहीं रहे हो । यह संभव तब होगा जब उस वस्तु अथवा पदार्थ में तुम्हारे रूचि शून्य रह जायेगी जो कि दृष्टि में है । जब तक एक वस्तु एक पदार्थ में तुम्हारी दृष्टि कि सृष्टि बनी रहेगी तुम अपने अन्त:करण में प्रवेश करती हुई छायाओं को सर मारते चले जायोगे । और दृष्टि कोई सहायता नहीं कर पायेगी । श्रवण का भी यही परिवेश बना रहेगा । श्रवण भी जब तक किसी सृष्टि का सृजन करता रहेगा तब तक वह दावा नहीं कर पायेगा कि किसी स्वर कि सृष्टि को उस ने महत्वहीन कर दिया है । सभी वह स्थान चाहे वह ज्ञानिन्द्रियों से सम्बन्धित हैं या कि मर्म स्थलों से सम्बंधित जब तक तुम्हारी उर्जा ही तुम्हारी उर्जा का वाहक मन अनदेखा नहीं करेगा । अनसुना नहीं करेगा और स्वर को अर्थहीन नहीं कर देगा तुमहरा यह सरलतम कहे जाने वाले विकटतम मन न सुने तो श्रवण नहीं सुनता और मन न बोले तो तुम नहीं बोलते हो । अभी से इसी क्षण से एक शुरुआत करोगे तो कहीं पंहुच जाओगे ।

(This Article By Gurudev Sarathi ji was published in 'Dainik Kashmir Times' under the title "Gari Saaj" on 10th of August 1990)  ·  ·  · January 7 at 10:25pm near Jammu