..................घड़ी साज.................. सारथी
पुत्र! मान लिया कि तुम एक शव हो। निर्जीव देह। तो अब क्या हो रहा है यह देखना बड़ा आनंददायक होगा। पहली बात यह है कि शव पर यम-नियम का आक्रमण नहीं हो सकता । भूत, गुण और तत्व तो छू भी नहीं सकते। एक स्त्री आ कर, वासनामय हो कर तुम्हारे शव से लाख बार सिर भिडाये परन्तु तुम पर कुछ भी प्रभाव होने बाला नहीं है। क्योंकि तुम तो मुर्दा हो। तो वासना तुम पर कोई जादू नहीं जगा सकी? तो यह देखो कि दृष्य क्या करते हैं । क्योंकि तुम्हारे जीते जी तुम्हारी जीवन शक्ति का एक बड़ा भाग दृष्टि और दृष्य खा लिया करते थे । और तुम्हे दृष्टि आनंद उठाने के लिए क्या क्या आहार लेने पड़ते थे । और कईं बार किसी 'हीर' या 'सोहनी' या 'लैला' को देख लेने पर उर्जा के खजाने पेशगी में ही गायब हो जाया करते थे। अब तुम एक शव जैसे हो और तुम्हे विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता में ले जाया गया है । या फिर फ्रांस के किसी ब्लू केबिन में । तो तुम्हे कोई हिला जुला तक नहीं सका। न ही तुम पर कोई अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ा है । तो प्रिय! यह तो एक प्रतक्ष्य सा योग हो गया । जिस में तुम्हे दोनों बातें प्रतक्ष्य तथ्य के रूप में साक्षात हो गयीं । एक वैराग्य दूसरा ज्ञान । तुम पर अब खाने पीने सूंघने देखने सुनने का कोई असर हो ही नहीं रहा । कारण है उर्जा कि समाप्ति । प्राणों का आभाव । तो एक बात और तुम्हारी समझ में आ गयी कि गुणों और क्रियायों और विषयों का प्रभाव और उन कि प्रतिक्रिया तुम्हारी उर्जा पर ही होती है । जब तक देह में प्राण हैं देह भागती है तभी तक अहंकार क्रोध मोह लोभ और वासनायों का युद्ध जारी रहता है और यह एक के बाद दूसरी शरीर को फतेह करती चली जाते है । तुम्हे पराजित करती चली जाती है । या यूँ कहें कि तुम्हारी शक्ति तुम्हारी गरिमा और तुम्हारी उर्जा पराजित होते चले जाते हैं । और जब यह स्रोत सूख जाते हैं बंद हो जाते हैं तो किसी विजय पराजय का प्रश्न ही नहीं उठता ।
अब एक स्तिथि अपने लिए तुम पैदा कर सको तो करो। पूरे दिन में एक क्षण, दो क्षण, पांच सात क्षण यदि स्वयं को शव जैसा बना डालो और देखो कि क्या अंतर पड़ता है जब तुम शव नहीं होते और क्या घटित होता है जब तुम शव होते हो। यह एक अनुभव है जो प्रारंभ में तनिक हास्यास्पद लगेगा । परन्तु यही प्रयोग आगे चल कर बहुत सारी संभावनायों को जन्म दे सकता है । यदि तुम्हारे वातावरण में ऐसी बस्तुएं, पदार्थ और तत्व विद्यमान हैं जो तुम्हें संतुष्टि प्रदान करते हैं तो शव स्थिति में संतुष्टि लुप्त हो जायेगी परन्तु साथ साथ उठने वाली असंतोष कि भावना सिर नहीं उठा सकेगी । क्योंकि निष्प्राण देह संतोष असंतोष से समन्वित हो ही नहीं सकती । और फिर तुम्हे ऐसी अनुभूति होगी कि जिन बस्तुयों को तुम सुख का कारण समझते हो उन का सुख मर जाएगा और जिन पदार्थों को दुःख का कारण समझते हो उन का दुःख मर जाएगा । अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम कितने समय तक यह स्थिति निरंतर बनाये रख सकते हो । और तुम्हे वह उपलब्ध हो रहा है जिस कि तुम्हे तालाश है । यह पृथक बात है कि तुम्हे कोई तलाश है कि नहीं । यदि किसी भी तलाश कि जिज्ञासा तुम्हारे भीतर नहीं है तो तुम्हारी स्थिति बहुत स्थिर है । अटूट है। अडिग है । जैसे किसी पशु कि होती है । गाय और भैंस की और घोड़े और बैल कि स्थिति की भांति । जानवरों को तलाश कि जिज्ञासा नहीं होती । और जीवन के प्रति अधिकाधिक मोह भी होता है । पशु न ही खोज करते हैं न ही विकास । और न ही वो वैज्ञानिक ही हो सकते हैं । उन के गले में रस्सी होती है तो वे प्रकृति को क्यों जानें और क्यों देखें ।
प्रिय पुत्र! मेरा मत है कि तुम चाहे कोई भी संस्कार ले कर पैदा हुए हो तुम्हारे भीतर पिपासा और जिज्ञासा अवश्य होते हैं। यह तुम्हारी अपनी जीवन की प्रणाली और परिपाटी है की तुम उस पिपासा को और जिज्ञासा को कितना बड़ा सकते हो और कितना जीवित रख सकते हो। यदि जीवन ही को समझने की, परखने की और कभी कभी इस के पार जाने की आकांक्षा तुम्हारे अन्तकरण में उठती है तो एक छोटे से प्रयोग के तौर पर तुम यह सब करना प्रारंभ कर सकते हो जो मैं कह रहा हूँ । और यदि तुम पांच मिन्टों के लिए स्वयं को एक शव बना डालने में सफल हो जाते हो वो बहुत कुछ अक्षण हो जाता है जो कभी भी संभव नज़र नहीं आता था। पांच मिन्टों में तुम्हारे संजोये हुए और प्रेम और आसक्ति से लिखे सारे इतिहास कोरे पन्नों में बदल सकते हैं । सब कुछ जो कुछ भी तुम सीधा देखते हो वह उल्टा हो सकता है और जो कुछ भी उल्टा देखते हो वह सब सीधा सीधा दृष्टिगोचर होने लगता है ।
यह एक वैराग्य है कठिनतम वैराग्य का सरलतम रूप । एक छोटी से अवधि के लिए मर जाना। और फिर उस अवधि को साधना से बढ़ाते जाना । और जब यह अवधि अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच जाए तो एक उपलब्धि की प्रतीक्षा करना । और यदि तुम्हे परामर्श कहीं पहुंचता हुआ लगता है तो अभी से इसी क्षण से वह क्रिया प्रारंभ कर दो जो मैं तुम्हे कहता हूँ । तुम आँखें बंद कर के तो यह दावा कर सकते हो की तुम देख नहीं रहे हो । परन्तु अब तुम्हे आँखें खुली रखनी है और दावा करना है की तुम देख नहीं रहे हो । यह संभव तब होगा जब उस वस्तु अथवा पदार्थ में तुम्हारे रूचि शून्य रह जायेगी जो कि दृष्टि में है । जब तक एक वस्तु एक पदार्थ में तुम्हारी दृष्टि कि सृष्टि बनी रहेगी तुम अपने अन्त:करण में प्रवेश करती हुई छायाओं को सर मारते चले जायोगे । और दृष्टि कोई सहायता नहीं कर पायेगी । श्रवण का भी यही परिवेश बना रहेगा । श्रवण भी जब तक किसी सृष्टि का सृजन करता रहेगा तब तक वह दावा नहीं कर पायेगा कि किसी स्वर कि सृष्टि को उस ने महत्वहीन कर दिया है । सभी वह स्थान चाहे वह ज्ञानिन्द्रियों से सम्बन्धित हैं या कि मर्म स्थलों से सम्बंधित जब तक तुम्हारी उर्जा ही तुम्हारी उर्जा का वाहक मन अनदेखा नहीं करेगा । अनसुना नहीं करेगा और स्वर को अर्थहीन नहीं कर देगा तुमहरा यह सरलतम कहे जाने वाले विकटतम मन न सुने तो श्रवण नहीं सुनता और मन न बोले तो तुम नहीं बोलते हो । अभी से इसी क्षण से एक शुरुआत करोगे तो कहीं पंहुच जाओगे ।
(This Article By Gurudev Sarathi ji was published in 'Dainik Kashmir Times' under the title "Gari Saaj" on 10th of August 1990) · · · January 7 at 10:25pm near Jammu
पुत्र! मान लिया कि तुम एक शव हो। निर्जीव देह। तो अब क्या हो रहा है यह देखना बड़ा आनंददायक होगा। पहली बात यह है कि शव पर यम-नियम का आक्रमण नहीं हो सकता । भूत, गुण और तत्व तो छू भी नहीं सकते। एक स्त्री आ कर, वासनामय हो कर तुम्हारे शव से लाख बार सिर भिडाये परन्तु तुम पर कुछ भी प्रभाव होने बाला नहीं है। क्योंकि तुम तो मुर्दा हो। तो वासना तुम पर कोई जादू नहीं जगा सकी? तो यह देखो कि दृष्य क्या करते हैं । क्योंकि तुम्हारे जीते जी तुम्हारी जीवन शक्ति का एक बड़ा भाग दृष्टि और दृष्य खा लिया करते थे । और तुम्हे दृष्टि आनंद उठाने के लिए क्या क्या आहार लेने पड़ते थे । और कईं बार किसी 'हीर' या 'सोहनी' या 'लैला' को देख लेने पर उर्जा के खजाने पेशगी में ही गायब हो जाया करते थे। अब तुम एक शव जैसे हो और तुम्हे विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता में ले जाया गया है । या फिर फ्रांस के किसी ब्लू केबिन में । तो तुम्हे कोई हिला जुला तक नहीं सका। न ही तुम पर कोई अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ा है । तो प्रिय! यह तो एक प्रतक्ष्य सा योग हो गया । जिस में तुम्हे दोनों बातें प्रतक्ष्य तथ्य के रूप में साक्षात हो गयीं । एक वैराग्य दूसरा ज्ञान । तुम पर अब खाने पीने सूंघने देखने सुनने का कोई असर हो ही नहीं रहा । कारण है उर्जा कि समाप्ति । प्राणों का आभाव । तो एक बात और तुम्हारी समझ में आ गयी कि गुणों और क्रियायों और विषयों का प्रभाव और उन कि प्रतिक्रिया तुम्हारी उर्जा पर ही होती है । जब तक देह में प्राण हैं देह भागती है तभी तक अहंकार क्रोध मोह लोभ और वासनायों का युद्ध जारी रहता है और यह एक के बाद दूसरी शरीर को फतेह करती चली जाते है । तुम्हे पराजित करती चली जाती है । या यूँ कहें कि तुम्हारी शक्ति तुम्हारी गरिमा और तुम्हारी उर्जा पराजित होते चले जाते हैं । और जब यह स्रोत सूख जाते हैं बंद हो जाते हैं तो किसी विजय पराजय का प्रश्न ही नहीं उठता ।
अब एक स्तिथि अपने लिए तुम पैदा कर सको तो करो। पूरे दिन में एक क्षण, दो क्षण, पांच सात क्षण यदि स्वयं को शव जैसा बना डालो और देखो कि क्या अंतर पड़ता है जब तुम शव नहीं होते और क्या घटित होता है जब तुम शव होते हो। यह एक अनुभव है जो प्रारंभ में तनिक हास्यास्पद लगेगा । परन्तु यही प्रयोग आगे चल कर बहुत सारी संभावनायों को जन्म दे सकता है । यदि तुम्हारे वातावरण में ऐसी बस्तुएं, पदार्थ और तत्व विद्यमान हैं जो तुम्हें संतुष्टि प्रदान करते हैं तो शव स्थिति में संतुष्टि लुप्त हो जायेगी परन्तु साथ साथ उठने वाली असंतोष कि भावना सिर नहीं उठा सकेगी । क्योंकि निष्प्राण देह संतोष असंतोष से समन्वित हो ही नहीं सकती । और फिर तुम्हे ऐसी अनुभूति होगी कि जिन बस्तुयों को तुम सुख का कारण समझते हो उन का सुख मर जाएगा और जिन पदार्थों को दुःख का कारण समझते हो उन का दुःख मर जाएगा । अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम कितने समय तक यह स्थिति निरंतर बनाये रख सकते हो । और तुम्हे वह उपलब्ध हो रहा है जिस कि तुम्हे तालाश है । यह पृथक बात है कि तुम्हे कोई तलाश है कि नहीं । यदि किसी भी तलाश कि जिज्ञासा तुम्हारे भीतर नहीं है तो तुम्हारी स्थिति बहुत स्थिर है । अटूट है। अडिग है । जैसे किसी पशु कि होती है । गाय और भैंस की और घोड़े और बैल कि स्थिति की भांति । जानवरों को तलाश कि जिज्ञासा नहीं होती । और जीवन के प्रति अधिकाधिक मोह भी होता है । पशु न ही खोज करते हैं न ही विकास । और न ही वो वैज्ञानिक ही हो सकते हैं । उन के गले में रस्सी होती है तो वे प्रकृति को क्यों जानें और क्यों देखें ।
प्रिय पुत्र! मेरा मत है कि तुम चाहे कोई भी संस्कार ले कर पैदा हुए हो तुम्हारे भीतर पिपासा और जिज्ञासा अवश्य होते हैं। यह तुम्हारी अपनी जीवन की प्रणाली और परिपाटी है की तुम उस पिपासा को और जिज्ञासा को कितना बड़ा सकते हो और कितना जीवित रख सकते हो। यदि जीवन ही को समझने की, परखने की और कभी कभी इस के पार जाने की आकांक्षा तुम्हारे अन्तकरण में उठती है तो एक छोटे से प्रयोग के तौर पर तुम यह सब करना प्रारंभ कर सकते हो जो मैं कह रहा हूँ । और यदि तुम पांच मिन्टों के लिए स्वयं को एक शव बना डालने में सफल हो जाते हो वो बहुत कुछ अक्षण हो जाता है जो कभी भी संभव नज़र नहीं आता था। पांच मिन्टों में तुम्हारे संजोये हुए और प्रेम और आसक्ति से लिखे सारे इतिहास कोरे पन्नों में बदल सकते हैं । सब कुछ जो कुछ भी तुम सीधा देखते हो वह उल्टा हो सकता है और जो कुछ भी उल्टा देखते हो वह सब सीधा सीधा दृष्टिगोचर होने लगता है ।
यह एक वैराग्य है कठिनतम वैराग्य का सरलतम रूप । एक छोटी से अवधि के लिए मर जाना। और फिर उस अवधि को साधना से बढ़ाते जाना । और जब यह अवधि अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच जाए तो एक उपलब्धि की प्रतीक्षा करना । और यदि तुम्हे परामर्श कहीं पहुंचता हुआ लगता है तो अभी से इसी क्षण से वह क्रिया प्रारंभ कर दो जो मैं तुम्हे कहता हूँ । तुम आँखें बंद कर के तो यह दावा कर सकते हो की तुम देख नहीं रहे हो । परन्तु अब तुम्हे आँखें खुली रखनी है और दावा करना है की तुम देख नहीं रहे हो । यह संभव तब होगा जब उस वस्तु अथवा पदार्थ में तुम्हारे रूचि शून्य रह जायेगी जो कि दृष्टि में है । जब तक एक वस्तु एक पदार्थ में तुम्हारी दृष्टि कि सृष्टि बनी रहेगी तुम अपने अन्त:करण में प्रवेश करती हुई छायाओं को सर मारते चले जायोगे । और दृष्टि कोई सहायता नहीं कर पायेगी । श्रवण का भी यही परिवेश बना रहेगा । श्रवण भी जब तक किसी सृष्टि का सृजन करता रहेगा तब तक वह दावा नहीं कर पायेगा कि किसी स्वर कि सृष्टि को उस ने महत्वहीन कर दिया है । सभी वह स्थान चाहे वह ज्ञानिन्द्रियों से सम्बन्धित हैं या कि मर्म स्थलों से सम्बंधित जब तक तुम्हारी उर्जा ही तुम्हारी उर्जा का वाहक मन अनदेखा नहीं करेगा । अनसुना नहीं करेगा और स्वर को अर्थहीन नहीं कर देगा तुमहरा यह सरलतम कहे जाने वाले विकटतम मन न सुने तो श्रवण नहीं सुनता और मन न बोले तो तुम नहीं बोलते हो । अभी से इसी क्षण से एक शुरुआत करोगे तो कहीं पंहुच जाओगे ।
(This Article By Gurudev Sarathi ji was published in 'Dainik Kashmir Times' under the title "Gari Saaj" on 10th of August 1990) · · · January 7 at 10:25pm near Jammu
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Varun Joshi kitni sundarta se sehaj smadhi ka varnan aur os me jane ka marg sujhaya hai,,,,kamal hai .....totally speechless
Varun Joshi Tan thir man thir vachn thir, surat nirat thir hoe, kahe kabir ta palk ko kalp na pave koe.
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