सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Friday, 2 March 2012

An article by Gurudev

घड़ी साज ----सारथी 
कुछ दिवस पूर्व मुझे एक महात्मा दिखने वाले आदमी से मिलना पड़ा । मेरे विश्वास के अनुसार मेरे देश का दुखांत यह है कि आदमी साधना, तप, त्याग से नहीं वरन वस्त्रों से साधु, महात्मा और संसारी मान लिया जाता है । उस पर विडंबना यह कि चाहे कोई व्यक्ति चोरी अथवा मार पीट के दोष में दंड भुगत कर कारागार से बाहिर आ कर गेरुवे वस्त्र पहन ले तो मेरे नगर और देश के वासी अंधे हो जाते हैं और कपड़ों को सत्य और तर्क और विवेक को असत्य समझ लेते हैं । इसी सन्दर्भ में मैंने उस आदमी को यह शब्द लिख कर दिए - प्रिय भाई, तुम मौन की स्तिथि को समझ नहीं पाए । इसीलिए स्वयं को और लोगों को भ्रम में डाले हुए हो । 

उस आदमी के क्रोध में आ जाने पर मैंने प्रार्थना की कि क्रोध के स्थान पर स्वयं को खाली करने का प्रयत्न करो और मुर्खानंद की बात गौर से सुनो । तुम मल-मूत्र त्याग के लिए अपने शरीर से बातें करते हो । भोजन, अन्न, फलाहार आदि भक्षण के लिए जिब्हा, पेट और आंत से बातें करते हो । प्रभु के चिंतन के समय भी तुम उन का नाम लेते हो । तुम मौनधारी कैसे हुए ? तुम्हारा तो केवल मुंह और ज़ुबान बंद दिखाई दे रहे है । और दिखने वाले साधु भाई तुम्हारे नेत्र मुझे क्रोध के व्याकरण के पन्ने पढ़ा रहे हैं । तुम्हारा हाथ और तुम्हारा अभिनय मुझ पर आक्रमण करने की चाह का सन्देश संप्रेषित कर रहा है । तुम मौन कभी न थे, न हो और न ही कभी हो सकते हो । 
मैं एक अध्याय लिखने बैठ गया । यह भी तुम्हारी लिए परमावश्यक है । इसे स्मरण रखने से तुम थकोगे नहीं और तुम्हारे सन्मुख सफलता और असफलता का कोई भेद ठहर नहीं पायेगा । तो मौन का सही अर्थ है संयम, नियंत्रण । हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ दो दिशायों में कार्य करती हैं । भीतर को भी और बाहिर को भी । हम भीतर भी देखतें हैं और बाहिर भी, हम बाहिर भी बोलते हैं और भीतर भी । एक क्रिया अव्यक्त है दूसरी व्यक्त । परन्तु संकल्प दोनों का एक ही जैसा है । इन में विचार, मनन, चिंतन, दया, प्रेम, चिंता, इर्ष्या, द्वेषादि यह सब भीतर के अंतस के अदृश्य भाव हैं । अव्यक्त हैं इसी कारण नियंत्रण इन्ही पर अनिवार्य है । इन्ही अंतर्मुखी और अदृश्य क्रियाओं पर एक आदमी के जीवन का दृष्टिकोण निर्भर करता है । यह अंतर्भाव परिपेक्ष्य की ओर इंगित करते हैं , परिपेक्ष्य को स्पष्ट भी करते हैं । परन्तु कठिनाई यह है की साधना के अंतर्गत यह भाव किस अवस्था में हैं और कितना शोधन इन का हुआ है, यह दिखाई नहीं देता । इन्हें हाँ या न में जानना कठिन है । 

परन्तु फिर भी मौन और नियंत्रण की अंतर्क्रिया की सूक्षम परन्तु प्रभावित परिभाषा है और साधना की विविध यात्राओं में इन की अनुभूति अलग अलग तरीके से हो सकती है । 

अनुभूत, ज्ञान और समय यह तीनों कभी नए पुराने नहीं होते । इन के द्वारा हम नए-पुराने, आगे- पीछे,ऊपर-नीचे होते हैं । मौन की मेरी निजी अनुभूति जो अब ज्ञान का आकर ले चुकी है, मैं लिख रहा हूँ ----

मुंह से बात करना और चुप रहना दोनोंका अपना अपना महत्व रहता है । परन्तु यदि कोई व्यक्ति चिल्ला कर बातें कर रहा हो, परन्तु क्रोध में न हो तो मैं उसे मौनधारी संत कहूँगा । यदि उस के चारों ओरे ओर भोग की वस्तुएं पड़ी हैं और वह लोभ में नहीं है तो वह मौन है चुप है । यदि वह अभिनय कर रहा है भाव भंगिमा से वह अभिमानी दिखाई दे रहा है परन्तु अभिमान और अहंकार उसे छू नहीं सकें हैं तो वह संसार का सब से बड़ा मौन साधक होगा । 

मौन एक खालीपन की हालत है । एक नहीं की, एक शून्य की स्तिथि है । जिस में सब तत्वों पदार्थों और दिशाओं का बोध तो है परन्तु रूचि और सम्बन्ध शून्य है । दूसरे शब्दों में देखते हुए नहीं देखना मौन है । सुनते हुए नहीं सुनना चुप है । बोलते हुए नहीं बोलना चुप है । स्पर्श करते हुए स्पर्श में न होना चुप है और यह सब साधना के द्वारा नहीं विश्लेषण और अनुसंधान के द्वारा पकड़ में आएगा । विश्लेषण यूं करना होगा कि क्या कुछ है और किस की आवश्यकता है ? सब कुछ है अथवा कुछ भी नहीं है ? मुझ से क्या क्या सम्बंधित है ? मैं किस किस से सम्बंधित हूँ ? श्रवण, दृष्टि, वाक्, स्पर्शादी पर मेरे मन का नियंत्रण है अथवा मेरी चेतना का ? क्या मैं सचेत हूँ ? क्या मुझे अपने सत्ता का पता है ? अपनी सामर्थ्य तथा क्षमता का मुझे आभास है ? मैं जो कुछ कहता, सुनता, बोलता और स्पर्श करता हूँ उस में भाव लौकिक हैं अथवा अलौकिक, सीम हैं अथवा असीम, नित्य हैं अथवा अनित्य और जो कुछ बोल रहा हूँ उस में आशा है अथवा निराशा राग है अथवा वैराग्य । 

यह सब क्या है ? ज्यों ज्यों इन के समाधान होते जायेंगे तुम मौन होते जाओगे । तब तुम बहुत बातें करोगे परन्तु तुम्हे स्वयं हैरानी होगी कि तुम चुप क्यों हो ? कुछ बोलते क्यों नहीं ?

( this article of Gurudev was published in Dianik kashmir times under the title "Gari Saaj" along with the pen sketch posted here )

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