गुरुदेव 'सारथी' जी के कथनानुसार ---
" दुःख का सब से प्रबल लाभ है वैराग्य । दुःख विराग की अदृष्य खेती अंतस चेतन में बोता चला जाता है । मानव को बार बार उदास कर के उसे पदार्थ और शरीर, दोनों के नश्वर होने का बोध करवाता जाता है । बार बार निराशा में डाल कर निराशा का एक स्थाई भाव आदमी के विचारों में उत्त्पन्न करता जाता है. स्थाई भावों का निरंतर बने रहना बड़ी तीव्रता से मानव को पिंड, माया और ब्रह्माण्ड के रहस्य को जानने के लिए प्रेरित करता है और जब एक बार एक आदमी पिंड (शरीर, प्राण और चित्तादि) के अन्वेषण तथा प्रयोग आदि में पड़ कर खोज की ओर उस की वृति प्रवाहित हो जाती है तो वह उसी अन्वेषण तथा विश्लेषण में ही परम के सुख का अनुभव करने लगता है । ऐसा सुख जो स्थाई है । जिस के साथ उस को कोई पक्ष यात्रा नहीं करता । इसी को आनंद कहा जाता है । आनंद स्वयं में एक ही एकत्व, एकाग्र इकाई के बोध और उर्जा के निरंतर विकास की स्थिति ही का पर्यायवाची है" ।
" दुःख का सब से प्रबल लाभ है वैराग्य । दुःख विराग की अदृष्य खेती अंतस चेतन में बोता चला जाता है । मानव को बार बार उदास कर के उसे पदार्थ और शरीर, दोनों के नश्वर होने का बोध करवाता जाता है । बार बार निराशा में डाल कर निराशा का एक स्थाई भाव आदमी के विचारों में उत्त्पन्न करता जाता है. स्थाई भावों का निरंतर बने रहना बड़ी तीव्रता से मानव को पिंड, माया और ब्रह्माण्ड के रहस्य को जानने के लिए प्रेरित करता है और जब एक बार एक आदमी पिंड (शरीर, प्राण और चित्तादि) के अन्वेषण तथा प्रयोग आदि में पड़ कर खोज की ओर उस की वृति प्रवाहित हो जाती है तो वह उसी अन्वेषण तथा विश्लेषण में ही परम के सुख का अनुभव करने लगता है । ऐसा सुख जो स्थाई है । जिस के साथ उस को कोई पक्ष यात्रा नहीं करता । इसी को आनंद कहा जाता है । आनंद स्वयं में एक ही एकत्व, एकाग्र इकाई के बोध और उर्जा के निरंतर विकास की स्थिति ही का पर्यायवाची है" ।
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