सारथी कला निकेतन (सकलानि)
-घड़ी साज ---सारथी
तुम्हे ज्ञात नहीं है की सम्बन्ध क्या होता है? और जो कुछ तुम्हारे साथ है अथवा हो रहा है वह बहुत व्यवसायिक और व्यापारिक है । तुम्हारे संबंधों में तुमने प्राय: देखा होगा कि तुम्हारे सम्बन्ध शब्दों पर आधारित हैं, अर्थों पर नहीं । सम्बन्ध बाद में बनता है नाम पहले पड़ जाता है और संबंधों को जितने नाम दिए गए हैं वह स्वार्थ के परिवेश में स्मरण रखने और पहचान स्थापित करने के लिए ही हैं । ये सारे नामों के सम्बन्ध अपने पारम्परिक अर्थों से आगे नहीं जा सकते । वह सीमा को तोड़ नहीं सकते । उल्लंघन नहीं कर सकते । परन्तु तुम्हारा दुखांत यह है कि धीरे धीरे नाम तो स्थापित रहता है और सम्बन्ध को दिए शब्द तो अपने स्थान पर जमे रहते हैं परन्तु मध्य में से सम्बन्ध ही हट जाते हैं, कट जाते हैं और बट जाते हैं और फिर तुम जीवन भर एक शब्द के भीतर, उस की क़ैद में फंसे रह जाते हो ।
प्रिय बन्धु ! इस में एक रहस्य है । तुम्हे वह जानना चाहिए । वह है कि तुम जान बूझ कर नाम में, संज्ञा में और पहचान में फंसे रहना चाहते हो । तुम कभी नहीं चाहते कि तुम पिता न रहो । माता श्री और भ्राता श्री न रहो । तुम्हारी आकांक्षा यही रहती है कि तुम कुछ न कुछ अवश्य रहो । चाहे वह सम्बन्ध निभे अथवा न निभे । आओ! एक दृष्टिकोण अपनाएँ और दो में से एक ही बात पर केन्द्रित होने का प्रयास करें । पहले बात यह कि तुम सम्बन्ध तो रखो, परन्तु उसे कोई संज्ञा न दो, नाम न दो । उस सम्बन्ध को किसी भी वृत्त में, घेरे में बंधने और नाम की आवश्यकता नहीं होगी। यदि पहचान ही न होगी तो नाम क्या दोगे? और यदि नाम न दे सको तो वही सम्बन्ध सार्वभौमिक, शाश्वत और असीम हो पायेगा और ऐसे संबध तुम बांधते नहीं हो । यहाँ तक की वह सम्बन्ध तुम्हारे चेतन मन में और मस्तिष्क में कहीं नहीं होता और कहीं दूर अंतस चेतन अथवा अचेतन मन की तहों में वह अपनी जड़ें जमाये रहता है । और बन्धु! मैंने तुम्हे अनेक बार समझाने का प्रयास किया है कि हमारा चेतन मन तात्कालिक और तत्क्षण की ही पहचान मुश्किल से कर पाता है । उस का कारण यह है कि मानव का वातावरण एवं परिस्थिति हर क्षण बदलते हैं और उन के साथ मनोस्थिति भी परिवर्तित होती जाती है और हर क्षण बदले हुए मानव, तत्व, पदार्थ, दृश्य और जगत को साथ ही साथ संप्रेषित करने में तुम्हारा चेतन मन इतना अधिक व्यस्त रहता है कि सुरक्षित करने और स्मरण करने और उसे छायाबद्ध करने का अवसर ही उसे प्राप्त नहीं होता और वह यह न करता हुआ अपने ही दूसरे भाग अंतस चेतन को यह दायित्व सोंपता जाता है कि वह सब कुछ सुरक्षित करता चला जाए और फिर जब अंतस चेतन सुरक्षा का कार्य संभालता है तो सभी कुछ को एकत्रित कर कर के अपने में डालता जाता है और इस प्रकार तुम अपने ही स्थापित किये संबंधों को अलग अलग हजारों खिडकियों से देखते चले जाते हो और इन्ही संबंधों के कई कई रूप और प्रभाग बनते चले जाते हैं और कई बार ऐसा भी होता है कि अंतस चेतन में जो कुछ बनता चला जाता है वास्तव में वह कहीं नहीं होता ।
संबंधों के बारे में अस्वीकरात्मक रवैया ही एक शुरुआत है । ऐसे सम्बन्ध की जो कहीं न हो कर सब जगह हैं । तुलसीदास जी कहते हैं -
ब्रह्म तू है जीव हौं
तू ठाकुर हौं चेरो
तात मात गुरु सखा
तू सब विधि हितु मेरो
यहाँ गोस्वामी जी का मानना है कि हे राम एक तू ही मेरा हितकर भी है और मेरा अहित तुझी में है और यदि तू ही मेरा पिता माता सखा भ्राता और गुरु है तो मेरा अहित हो ही नहीं सकता । परन्तु एक शर्त और रखते हैं गोस्वामी जी । मैं जीव हूँ और तुम ब्रह्म हो । तुम स्रष्टा हो मैं सृष्टि हूँ। तुम रचनाकार और मैं साधारण रचना मात्र । फिर तुम ठाकुर हो, स्वामी हो और मैं तुम्हारा शिष्य हूँ । तो प्रिय बन्धु! कोई ऐसा सम्बन्ध नहीं है जो तुलसीदास जी भगवन श्री राम से नहीं जोड़ते हैं और हर सम्बन्ध स्थापित करते हुए वह रक्षा की और क्षमा की और भक्ति की भिक्षा मांगते हैं । इस पद की स्थाई इस प्रकार है
तू दयालु दीन हौं
तू दानी हौं भिखारी
हौं प्रसिद्ध पातकी
तू पाप पुंज हारी
एक नहीं अनेकों साधकों, भक्तों और योगियों ने भगवान् से जब भी सम्बन्ध स्थापित किया है तो स्वयं को पतित और दीन- हीन, दरिद्र और कुटिल कहा है और उसे पतित पावन, उदार, दया का सागर, प्रेम और क्षमा का सागर ही कहा है ।
मेरे कहने का अभिप्राय स्पष्ट है पुत्र ! क्या कभी तुमने यहाँ पर समाज में (संसार ) के साथ भी ऐसा सम्बन्ध स्थापित किया है ? क्या तुम ने जितने भी सम्बन्ध बनाये हैं चाहे वह किसी भी प्रकार और व्यवहार में भिन्न ही हों तुम ने उन्हें बड़ा आदरनीय और कृपालु माना है ? और उस से रक्षा और भक्ति की भिक्षा मांगी है ? शायद ऐसा कभी नहीं हुआ । तुम शायद ऐसा सोच भी नहीं सके कभी और अब जब मैं तुम से यह बात कर रहा हूँ तो तुम्हे आश्चर्य हो रहा है, हो रहा होगा । तुम अवश्य सोच रहे होगे कि कितना मूर्खतापूर्ण कार्य होगा कि तुम अपने पुत्र से अपनी पत्नी से अपने से छोटे और अधीन कर्मचारी से भक्ति दया और रक्षा कि भीख मांगोगे ? ऐसा असंभव है न ।
परन्तु भगवन को यही पसंद है कि तुम सारे ही जगत से सारी ही सृष्टि से दया, भक्ति और प्रेम की भिक्षा मांगो । तुम संसार का सब से बड़ा भिखारी बन जाओ और प्रेम और भक्ति की भिक्षा मांगते फिरो और फिर तुम शीघ्र ही देखोगे कि तुम स्वयं ही प्रेम की, दया की, भक्ति की भिक्षा मांगते मांगते दया और प्रेम की प्रतिमूर्ति में परिवर्तित होने जा रहे हो । तुम भीख मांग नहीं रहे हो वरन भीख ही का रूप होने जा रहे हो ।
यही सम्बन्ध सर्वोच्च है । चाहे जगत से स्थापित कर लो । चाहे राम से । फिर यही होगा कि जगत राम हो जाएगा और राम जगत हो जाएगा और तुम्हे होगे प्राप्ति राम के रूप में उस के रहस्य (जगत ) की और जगत (रहस्य) के रूप में राम की प्राप्ति और जो सम्बन्ध स्थापित होगा वह परित्राण हेतु ही होगा ।
(this article of Gurudev was published in Dainik kashmir times( hindi daily of Jammu) under the title "Ghari Saaj on 26th Aug 1990)
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