सारथी कला निकेतन (सकलानि)
An article by Gurudev

घड़ी साज ----सारथी
दो ही तरह का इश्क़ यहाँ करते हैं। एक इश्क है अपना ही अस्तित्व बनाये रखना और अपने अस्तित्व ही के प्रति पूरे सचेत हो कर इश्क करना । यह तो इश्क न हुआ नाटक हो कर रह जाएगा । यह तो ऐसा ही होगा जैसे तुम्हे कहा गया कि पानी से इश्क करो। तुम ने एकदम पानी में छलांग लगाई और उस में बैठ गए । अब तुम तो शोर मचा ही रहे हो कि मैंने पानी के लिए सब कुछ किया। परन्तु हुआ यह कि तुम पत्थर थे । पत्थर ही रहे और पत्थर हो कर और बनकर ही पानी में जा बैठे । तुम बैठते तो हो पानी में परन्तु एक तो साफ़ नज़र आ रहे हो । तुम्हारे अलग अस्तित्व का कारण जल को ग्रहण करने, अपनाने और अपना बना लेने में नितांत असमर्थ रहना है । तुम जल के तभी तक माने जा सकते हो, जब तक जल में हो । जब बाहर निकलोगे तो सूखे । पहले कि तरह खुश्क, पत्थर, पाषाण, जल से भिन्न, पृथक ।
अब दूसरी दशा है कि तुम ने फिर छलांग लगाई जल में । इस बार तुम भीग गए। जल का एक छोटा सा भाग तुम ने अपने अस्तित्व में समेट लिया । परन्तु विडंबना तथा दुखांत तो बना ही रहा । तुम फिर भी जल से पृथक नज़र आते रहे । कारण यह था कि तुम ने अपनी गुंजाईश फिर रखी। अब के तुम जल में कपडा बन कर उतरे । तुम ने पानी की कुछ मात्रा स्वयं में सोख ली । भीग गए, कुछ हद तक पानी का हिस्सा भी बने, परन्तु अपना अस्तित्व (मैं- अहम् ) नहीं छोड़ सके और पानी में उतर कर दिखाई देते रहे । यह दशा बहुत लोकप्रिय है और इसका प्रतिनिधित्व अनगिनत लोग करते हैं। हजारों और लाखों की संख्या में लोग होंगे जो राम, कृष्ण, गोविन्द, क्राइस्ट, बुध,महावीर इन सब महापुरुषों के प्यार को अपनी हिम्मत बना कर पानी में उतरे । बहुत कुछ प्राप्त भी किया परन्तु सब से घिनौनी और भयंकर बात तुम ने यह की कि दोनों अभिनय एक ही समय में करने कि चेष्टा तुम ने की। यह भी कहा की मैं भक्त हूँ महान का, विराट का, परम का परन्तु अपना मैं, अपना अह्नाकार बरकरार रखा । अर्थ बहुत स्पष्ट हो गया कि न तो यह प्रमाणित कर सके कि तुम अपने ही स्वार्थ और कामनाओं के सगे सम्बन्धी हो और यह भी प्रमाणित नहीं हुआ कि तुम भगवान् के सिजदे में थे । भगवान् को अपने अस्तित्व में बुलाने और बसाने के प्रति तुम ईमानदार थे या फिर प्रभु में लीन हो जाने के लिए तुम ने उसकी अनंत सागर रुपी भक्ति में छलांग लगाई थी । यदि ऐसा होता तो तुम दिखाई न देते ।
इन दोनों दशाओं के अतिरिक्त एक और दशा है। जिसे तुम भक्ति में आशिकी में प्रयोग में ला सकते हो । वह यूं है कि तुम ने जब छलांग लगाई और कुछ देर तो उथल पुथल और तुम्हारे होने का भ्रम सभी को, तुम्हे विचलित करने जैसा लगा । परन्तु अंत में तुम और वह दोनों का क्या हुआ, पता ही नहीं चला। भक्ति को पता नहीं चला भक्त कौन था। भक्त को कदाचित पहचान नहीं हुई कि भक्ति थी तो गई कहाँ ? मुझे पूरी आशा है कि यह विधि तुम्हारे और सब के जीवन में एक शुरुआत एक शुभारम्भ कर सकती है और यह विधि है जल में स्वयं को ऐसा तत्व बना का उतारना जो जल ही का रूप हो जाए अथवा जल ही तुम्हारे और सब के स्वरुप हो जाए । जल में मधु बन कर गिरने की विधि, जल में गिरने से पूर्व स्वयं को मधु बना लेना, मीठा बना लेना ।
और फिर होगा पूर्ण विलय, पूर्ण समर्पण, पूर्ण मिलन । तुम स्वयं के अस्तित्व को जल के अस्तित्व में विलीन कर दोगे और जल भी परिवर्तित हो कर तुम्हारे अस्तित्व की भांति मीठा हो जाएगा ।
स्वयं को मीठा करना ही सब विधि विधानों और साधनों, पूजा-पाठ, जप-तप, सांख्य, भक्ति, कर्म, योग आदि का लक्ष्य है । स्वयं को मीठा करना ही होगा, मधु और मृदुल करना ही होगा । क्योंकि जिस के इश्क में तुम ग्रिफ्तार होना चाहते हो वह मृदुल है, सहज है, मीठा है, बहुत ही सरल । इतना मीठा और नर्म कि उसे पाते ही सौन्दर्य बोध, सौन्दर्य ज्ञान और सौन्दर्य दृष्टि लुप्त हो जाते हैं ।
एक प्रारंभ होना चाहिए। एक शुरुआत कहीं से भी हो जानी चाहिए । शुरू होगा तो समाप्त होगा और समाप्ति ही आसक्ति, फिर विराग और फिर विमुक्ति का कारण बनती है ।
(This article has been taken from Gurudev's Book 'Agyaat' )
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