सारथी कला निकेतन (सकलानि)

घड़ी साज ----सारथी
प्रिय बंधू ! गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक चौपाई बिलकुल सरल और सहज कही है-
जा पर कृपा राम की होई
ता पर कृपा करे सब कोई
गोस्वामी जी अनेकानेक स्थानों पर बहुत ही जटिल बात बिलकुल सीधे, स्पष्ट, साफ़ और सार्थक शब्दों में कहते हैं। जटिल यह बात इसलिए है कि इस में शर्त है । शर्त यह है कि उस मनुष्य पर सभी कृपालू हो जाते हैं, वह मनुष्य दया का पात्र हो जाता है, जिस पर राम कृपा हो, वरना नहीं । तो यदि तुम यह चाहते हो कि सारा संसार तुम पर कृपा बरसाता रहे, दया की वर्षा करता रहे तो तुम्हारे लिए आवश्यक यह है कि राम को रिझाओ । महारानी मीरा की भांति राम को मनाओ और प्रेम में झकड़ो। वे कहती हैं -
श्री गिरिधर आगे नाचूंगी ।
नाच नाच पिया रसिक रिझाऊँ ।
प्रेमीजन को जान्चूगी।
प्रेम प्रीती के बाँध घुंघरूं
सूरत की कछनी काछुंगी
नाच और मुजरा तो नर्तकी करती है । अपने स्वार्थ के लिए । उस के लिए जिसे नाच अच्छा लगता है और बदले में दौलत प्राप्त होने वाली है । दौलत दौलत में अंतर है । मीरा रानी (सूरत समाधी, तुरीयावस्था ) के लिए ही नाच का आयोजन कर रही है । जब यह जीवात्मा उस परब्रह्म में विलय हो जाती है और फिर कुछ भी भिन्न नहीं रह जाता । फिर समय कि भी कोई कल्पना नहीं रहती है । मात्र प्रकाश होता है । रौशनी का ही एक अंतहीन सागर होता है और जीव के सारे संस्कार और कर्म उस प्रकाश ही से धुल जाते हैं । परम ज्योति से, जो स्थित है तो ब्रह्माण्ड स्थित है और जिस के प्रकाश से सभी कुछ प्रकाशमान है । जो 'ऋतम्बरा' है । जो सृष्टि का मूल और कारण है और महारानी मीरा ने उन्हें ही पति (लाज बचाने वाला ) चुना है । मीरा के उस परब्रह्म का संकेत उपनिषद ने यूं दिया है -
'सदा दीप्ति अपारं अमृत वृत्त स्नानम'
जो सदैव दीपायमान, प्रकाशमान है, सदा प्रदीप्त है, जो अपार है । जिस का कोई छोर, कोई किनारा नहीं है । जो मृत्यु से परे है, जो जन्म और मृत्यु के बीच में नहीं है, जो अमृत है और जो वृताकार है और जो अपने ही प्रकाश में हर क्षण स्नान करते रहते हैं । मीरा उसी रसिक को रिझाती है और उसी के ध्यान में विलीन हो जाने को व्याकुल है । संत कबीर भी उसी प्रकाश की बात करते हैं । वे कहते हैं -
साधो। हरी बिन जग अँधियारा
कोई जाने न जानन हारा .....
यह जग, यह ब्रह्माण्ड उसी के प्रकाश से प्रकाशमान है और प्रकाश ही जीवन है, प्रकाश ही प्राण है, प्रकाश ही गति है, प्रकाश ही प्रकृति है और प्रकाश ही सृष्टि है । दृष्टि और श्रवण प्रकाश ही के पुत्र हैं । प्रकाश ही कोटि कोटि श्वास और श्वास के द्वारा जीव का जीवन है और यह जीवन उसी का साक्षी है, उसी का निमित्त है ।
प्रिय बन्धू! जब भगवन किसी पर अधिकाधिक प्रसन्न होते हैं तो वे उस पर तो कृपा की, दया की, प्रेम की और सम्पन्नता की वर्षा करते ही हैं । उस को संसार का सर्वश्रेष्ट धन संतोष दे देते हैं -
गो धन गज धन रत्न धन ।
सब ही धन की खान ।।
जब आवे संतोष धन ।
सब धन धूली समान ।।
उस के साथ परम पिता, प्रभु परमेश्वर तुम्हारे मित्रों और सम्बन्धियों पर भी कृपा और प्रसन्नता और धैर्य की वर्षा करते हैं । तुम अपने जिस किसी परिचित से मिलते हो वही तुम्हारा स्वागत करता है, तुम्हे प्रेम करता है, तुम से आदर और स्नेह और सम्मान से व्यवहार करता है । वह तुम्हे ही सुख का साधन मान लेता है । तुम्हे ही परम की अनुकम्पा मान लेता है ।
दूसरी और यदि प्रभु रूठे हैं, नाराज़ हैं, तुम पर क्रुद्ध हैं तो तुम्हारे सज्जनों और संगियों और सम्बन्धियों पर अधिक प्रकुपित हैं । तुम जब भी किसी से मिलते हो, बात करते हो तो मिलते ही तुम्हारा अपमान करता है, बुरा भला कहता है । वह तुम्हे ही अपने दुःख और आपत्ति का कारण स्थापित कर लेता है । वह समस्त संसार को दुखी ही देखता है और संसार के दुःख को भोगता है और साथ साथ तुम्हारा अपयश करता जाता है ।
यह भी प्रभु का प्रकोप है की ऐसे व्यक्ति के मुख से प्रभु का नाम भी नहीं निकलता । वह अपशब्द, अपमानजनक भाषा बोल सकता है परन्तु अपनी व्यथा कथा गोपाल को राम को सुनाने की शक्ति नहीं रखता । न ही सुना सकता है । तभी तो प्रभु कहते हैं की जब मैं दया करता हूँ तो तुम्हारे मुंह से मेरा नाम निकलता है और यदि अधिक कृपा करूँ तो नाम का ज्ञान तुम्हे देता हूँ और नाम के प्रकाश से तुम्हे रास्ता दिखाई देने लगता है और जब मैं सब से अधिक प्रसन्न होता हूँ तो तुम्हारे मन में वास करता हूँ और मैं तुम्हारे जीवन में अमरत्व भर देता हूँ । फिर तुम प्रेम का स्रोत बन जाते हो । तुम दयालु हो जाते हो । फिर तुम हिंसा को त्याग देते हो । तुम रक्षक बन जाते हो । फिर तुम में और जीवों में अंतर नहीं रहता है और सृष्टि के कण कण में तुम स्वयं ही का दर्शन करते हो । स्वयं ही को निहारते हो । महारानी ने शायद इसी पद के प्राप्ति के बाद कहा था -
लाली मेरे लाल की
जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं चली
मैं भी हो गयी लाल
( this article of Gurudev was published in Dianik kashmir times under the title "Gari Saaj" on 21st of November-1990)
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