सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Thursday, 31 August 2017

सागर की कहानी (16)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (16) 
सफरनामा में अपने जीवन-वृतांत का व्यौरा जारी रखते हुए वे लिखते हैं - सितम्बर माह में, बाढ़ में तवी का पुल टूट गया। मैं काम के लिए अफरा-तफरी कर रहा था। पुल पार करते ही ware house के स्थान पर M.P Head Quarter (47 lofc provost unit CMP) थी। मैं उस के गेट के पास खड़ा था। एक घनघोर घटा आई और मुझ पर बरस गई। यूनिट में से जीप निकली, जीप में मेरे भाग्य थे। जीप में एक मशहूर पेंटर करतार अबरोल जंज़ीरों में झकड़ा हुआ था। साथ में अफसर तथा दो एनoसीoओ। जीप मेरे पास से निकली तो करतार ने आबाज़ लगाई - ओए ओम, यहाँ क्या कर रहा है, इधर आ।
-जीप के ड्राइवर (कैप्टन रामचन्द्रन) ने जीप एकदम रोक दी और मुझ से पूछा-तुम पेंटर मास्टर को जानते हो।
मैने कहा- हाँ सर जानता हूँ। यह बहुत मशहूर आर्टिस्ट है। यह मार्किट में जहां भी काम करते हैं हम सब रुक कर देखने लगते हैं।
- यह पागल हो गया है। इस को mental hospital में भर्ती करबाने ले जा रहे हैं। इस ने दो जबानों को पीट डाला है।
रामचन्द्रन साहब फिर लहजा बदल कर बोले। - तुम भी पेंटर हो।
-हाँ साहब! मैं भी काम जानता हूँ। मैं ड्राईंग बहुत अच्छी जानता हूँ।
रामचन्द्रन ने एक J.C.O को बुलाया और कहा- यह पेंटर है। इस को डैस्क एनoसीoओ के पास बिठाओ। हम आ कर इस का काम देखेंगे। डूबते को तिनके का सहारा। घर में ताई पिता जी पर ज़ोर भर रही थी कि इस को मैकेनिक के पास रखबा दो बर्ना यह भूखा मर जाएगा। यह निक्कमा अपने आप पर भी भार है और आप पर भी।
रामचन्द्रन साहब ने सौ रुपये की नौकरी, लंगर, रोटी का फौरन आर्डर दिया। साथ में यह भी कहा कि यदि मैं चाहूँ तो सारे civilians के साथ unit में भी रह सकता है। यूनिट में हिन्दी का मास्टर सतपाल, चार धोबी, चार-पाँच लोग वहाँ काम करने वाले रहते थे। मैने साहब को कहा- साहब मैं यूनिट में ही रहूँगा। साहब ने झट ही क्वार्टर मास्टर को बुला कर बिस्तर दिला दिया और कहा- कोई तकलीफ हो तो सीधा आ कर बताओ, मैं रुआंसा हो गया।
हरिचन्द एजूकेशन मास्टर कांगड़े का रहने वाला था। वह साहित्य प्रेमी था। उन दिनों वह चरित्रहीन पढ़ रहा था। मुझे पढ़ने के लिए पहला उपन्यास उस ने चरित्रहीन ही दिया। मेरे लिए एक आसमान खुला। मैने चाची को सुनाया कि नोकरी के लिए मुझे बाहर रहना पड़ेगा। उस ने रोते हुए हामी भरी। उधर यूनिट में रहना गुरूकुल का रहना हो गया। सारा शरत साहित्य, मुंशी प्रेमचन्द, नक्श-ए-फरियादी और ज़न्दा नामा(फैज) और कुछ अनुवाद वहीं पढ़े।
............क्रमशः..........कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 30 August 2017

सागर की कहानी (15)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (15)
सारथी जी कहा करते - आज के साहित्य को आन्दोलनात्मक कहना ठीक होगा। लेखन तहरीक का मोहताज है। वह तहरीक घर-बाहर, दोस्तों, मित्रों अपने पराये सब किसी से किसी न किसी रूप में मिलती रहती है। मुझ में लिखने का जुनून है। इसलिये मुझे तहरीक चाहिए। तहरीक के लिए मैंने स्वयं को हर क्षण तैयार रखा है। हर क्षण, हर चीज़, हर आदमी, हर तथ्य से सम्बन्ध कायम किया है। सम्बन्ध बढ़ाया है। साहित्य तहरीक का मोहताज़ है। तहरीक सम्बन्ध की मोहताज़ है। सम्बन्ध जुनून की मोहताज़ है। जुनून प्रेम का मोहताज़ है। प्रेम फकीरी और त्याग का मोहताज़ है।
जिज्ञासुयों की शंकायों और जिज्ञासायों को मिटाने हेतु जब उन का चिन्तन प्रवाह आरम्भ होता तो सुनने वाला अपने ही गहन अन्तःकरण में उतरता चला जाता तथा सहज ही में निःशंक, निरद्व्न्द्व अवस्था में प्रवेश करता चला जाता। दूसरों को शंका रहित हेतु वे अक्सर भोजन करना भी भूल जाते अथवा स्वयं ही भोजन का त्याग कर देते। उन की बस यही कामना होती कि व्यक्ति एक बार जाग जाये। वे अक्सर गुरू नानकदेव जी का यह दोहा सुनाया करते-
जागो रे जिन जागना अब जागन की बार
तब क्या जागे नानका जब सोया पाँव पसार
वे कहते - समाज की रुप-रेखा और उस में रेंगती अर्न्तधाराये इसी कारण दुष्परिणामों का शिकार हो रहीं हैं तथा चरमराती नज़र आ रही हैं क्योंकि वह आदमी जो मूल्यों को बहाल करने का बीड़ा उठाता है वह पहले ज़िन्दा होना चाहता है फिर वह किसी निर्जीव अथवा घायल मूल्य को जीवित करना चाहता है। श्री सारथी जी दीक्षा दिया करते कि घर से टूटा हुआ व्यक्ति समाज से किसी प्रकार भी जुड़ नहीं सकता। वे कहते यदि स्वयं को राष्ट्र भक्त, राष्ट्र रक्षक और राष्ट्र निर्माता सिद्ध करना है और यदि संत कबीर की यह उक्ति सिद्ध करनी है कि
जने तो जननी भक्त जन या दाता या सूर
नहीं तो जननी बाँझ रहे काहे गवाबे नूर
तो फिर किसी भी व्यक्ति के पास चाहे वह नर हो सा नारी बिना लिंग भेद के कोई चारा नहीं रह जाता कि वह दाता बने, दानवीर बने अथवा भक्त बने। देश भक्ति, प्रभु भक्ति, मातृ भक्ति, गुरू भक्ति में प्रवेश करे अथवा शूरबीर बने। यदि नहीं बन सकता तो उसे जन्म लेने का कोई अधिकार नहीं और न हीं माँ को जन्म देने का कोई अधिकार है।

Tuesday, 29 August 2017

सागर की कहानी (14)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (14)
श्री सारथी जी की चाल में भी एक कमाल की लयात्मक्ता होती जो किसी को भी उन की और आकर्षित हुए बिना न रहने देती। चलते हुए कहीं गम्भीर बातचीत और कहीं हंसी के ठहाके गूँज जाते। उन की हसी में भी उन्मुक्तता और आनन्द का ही मिश्रण होता। वैसे उन की इस चाल, इस गति को विश्राम किसी चाय की दुकान पे ही मिलता। चाय वाली दुकान पे भी मित्रों एवं जिज्ञासुओं का घेरा जैसा बन जाता और चाय की चुसकियों के साथ-साथ रंगों, सुरों और शब्दों की गहन बात भी चल निकलती। बैसे हल्की फुलकी बात भी किसी बड़े रहस्य को ही उजागर कर रही होती। कोई गहन बातचीत करते हुए वे दूसरों की स्वीकृति लेना न भूलते। तथा इस तरह किसी बात का विवरण प्रस्तुत करते जैसे वे अपनी हर बात की पुष्टि दूसरों से चाहते हों। उन का यह स्वभाव उन की विनम्रता का परिचायक तो था ही साथ ही वे सुनने वाले को चैतन्य भी रखते।
सारथी जी के सम्बन्ध में साठ के दशक की यादों को संजोते हुए एक संस्मरण में हेमराज चनैनवी लिखते हैं- आने वाले वर्षों में सारथी से मिलना एक दिनचर्या बन गई। कोई दिन ऐसा न होता जब हम मिलते न थे। कभी सारथी जी के घर पर, कभी प्रेम जी (हज्जाम) की दुकान पर, कभी प्रेम टी स्टाल पर तो कभी श्री धनीराम जी की दुकान पर घंटों बैठे रहते और हर विषय पर चर्चायें होतीं।
......... सारथी जी के साथ उठने बैठने का ही परिणाम था कि जम्मू के कई ऐतिहासिक पुरूषों एवं महान व्यक्तियों के समीप बैठने का सुअवसर मिला। शाम सात आठ बजे श्री धनी राम जी की दुकान पर जो लोग इकट्ठे होना शुरू होते उन में सर्वश्री तालिब ऐमनाबादी, दीनू भाई पन्त, मोहनलाल सपोलिया (श्री सपोलिया जी का शंख धुन नाम से चौगान फत्तू में ही प्रींटिंग प्रैस भी था), पंडित शम्भू नाथ जी (पदम श्री प्रो रामनाथ षास्त्री जी के अनुज), मंगोत्रा साहब (प्रो ललित मंगोत्रा के पिता श्री) प्रमुख थे। इस के अतिरिक्त और भी कई महानुभाव संध्याकालीन बैठकों में सम्मिलित रहते और प्रायः रात 10-11 बजे तक साहित्य से ले कर राजनीतिक चर्चायें चलतीं।.............. बैठने के लिए दूसरा महत्वपूर्ण स्थान श्री प्रेम जी (हज्जाम) की दुकान थी। यहाँ गपशप करने बालों में सर्वश्री आविद मुनावरी, रहबर जदीद, अश्विनी मंगोत्रा, कुलदीप जन्द्राहिया, वीरेन्द्र केसर इत्यादि प्रमुख थे। कभी कभार श्री प्रध्युमन सिंह और डा जितेन्द्र उधमपुरी भी आते। यहाँ अधिक्तर चर्चायें कला और साहित्य सम्बन्धी ही होतीं। सब में सारथी के प्रति एक आदर का भाव ही झलकता। श्री वीरेन्द्र केसर ने तो श्री सारथी जी को गुरू धारण किया था और उन से ग़ज़ल के गुर सीखते थे।
सारथी जी के घर पर भी कईं मित्र इकट्ठे होते और सारथी जी से संगीत, साहित्य, सभ्यता और संस्कृति, समाज और धर्म इत्यादि विषयों पर चर्चायें होती।
.........सारथी जी एक लम्बे समय तक मेरे कार्य स्थान पर भी आते रहे। मित्रों का एक छोटा घेरा यहाँ भी बन चुका था। इन में सर्व श्री प्यासा अंजुम, वेद उप्पल वेद, अमर सिंह कूका, राजपाल सिंह मस्ताना, प्रताप सिंह नागी इत्यादि निरन्तर आने बालों में थे। वीरेन्द्र केसर तो रहते ही। स० परशन सिंह शरफ पहले से ही मेरे पास बैठते थे। श्री रमाकान्त दुबे अपने एक संस्मरण में लिखते हैं-डा ओम प्रकाश शर्मा सारथी जी से मेरे सम्बन्ध लगभग पैंतालीस वर्षों से थे। यह सम्बन्ध एक चाय की दुकान से चाय की प्याली से आरम्भ हुए तथा जैसे जैसे उनके साथ बैठने का अवसर मिलता गया यह सम्बन्ध प्रगाढ होते गए। सारथी जी का व्यक्तितव मेरे लिए खुलता चला गया। अपने नाम के ही अनुरूप वे सब के सारथी थे। विभिन्न विषयों पर उनके विचार, विषय की गम्भीरता तथा अथाह गहराई लिए हुए होते। समुद्र की गहराई लिए उनके विचारों की गहइराई को मापना कठिन ही नहीं असम्भव था। धार्मिक, सामाजिक, राजनितिक एवं आध्यात्मिक विषयों पर उन की जानकारी एवं अनुभूतियां अन्तहीन थीं। 
.......क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 27 August 2017

सागर की कहानी(13)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी(13)
सफरनामा के द्वारा श्री सारथी जी की जीवन यात्रा आगे बढ़ती है- संगीत और रंगों में अधिक रुचि के कारण स्कूली पढाई में मैं कमज़ोर हो गया। दसबीं में असफल रहा। मेरे वारंट निकाले गए। मुझे निकम्मा जान कर घर से निकालने की योजना बनने लगी। भय के कारण मैं और वेदपाल दीप घर से भाग गए। पर झट ही पकड़े भी गए। दो-तीन वर्ष ऐसे अंधेरे में व्यतीत किए कि मैं अंधा सा हो गया। कभी-कभार ड्राइंग या स्कैचिंग कर लेता। घर के कीर्तन समाप्त होने लगे। गाने के लिए केवल विद्यालय (दुर्गा संगीत अकैडमी) के हफ्ताबर कार्यक्रम ही रह गए। घर में ताई को माता तथा माता को चाची कहते थे। चाची दुखी थी, पर मुझे जेब खर्च के लिए कुछ न कुछ निकाल कर दे देती। मुझ से अपना दुखड़ा भी बाँट लिया करती।
महाराज गंज में चार दुकाने थी। कोल्हु था। 1939 में जुलूस निकला। कश्मीर छोड़ों के नारे लगाये जा रहे थे। जानी नुकसान तो न हुआ, परन्तु घर कोल्हु, दुकाने सब भस्म हो गईं। सतपाल बोहरा के घर में रहते थे। पिता जी कर्ज के बोझ तले दब गए। जम्मू का घर-कोठू बेच कर ऋण मुक्त हुए। वे स्वयं लंडे भाषा जानते थे। सरकार को लंडे का जानकार चाहिए था। नौकरी मिल गई। चूल्हा जलने लगा। 
1947 में देश स्वतन्त्र हुआ परन्तु स्वतन्त्रता का हर्ष देश विभाजन की त्रासदी के नीचे दब गया। हिन्दु-मुस्लिम दंगों से धरती लाल हो गई। इतिहास का सब से वीभत्स नरसंहार हुआ। जम्मू-कश्मीर ने विभाजन की त्रासदी को सब से अधिक झेला। पाकीस्तान से आने वाले शरणार्थियों को स्कूलों, कालेजों एवं धर्मशालाओं में ठहराया गया। सारथी जी उस समय दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। उन की पढ़ाई इस खून खराबे की भेंट चढ़ गई। इस उथल-पुथल में वे दसवीं की परीक्षा न दे सके। पढ़ाई का सिलसिला ऐसा टूटा कि इस के उपरान्त वे किसी स्कूल में दाखिला न ले सके।
अतीत के संस्मरणों को स्मरण करते हुए तथा बीते कल की सादगी, सरलता एवं मानवीय मूल्यों को अपनी लेखनी द्वारा सजीवता प्रदान करते हुए ललित निबन्ध समय चक्र में वे लिखते हैं- प्रातः तीन बजे माता श्री उठती थी। लालटेन का शीशा साफ कर, जला कर, तवी नदी की ओर निकल जाती। साथ में बहुत सारी प्रौढ़ और वृद्धायें। सभी की सभी सफेद मलमल की धोतियों में लिपटी । बीच में शायद कोई बाल-विधवा भी होती थी। जाते-जाते एक छोटी सी तांबे की लुटिया और रास्ते में बैठे हनुमान जी के लिए दो रोटियाँ भी। पौ फटने से पहले घर आ जाती थी। और फिर हाँ, याद आया जहां कैक्टस लगे हैं, वहाँ तुलसी (ocitum sanctum) लगी थी। तुलसी को धूप, दीप और पुष्प चढ़ा कर, परिक्रमा ले कर हमें सोते को उठाती थी। उठते ही दूध लाना पड़ता था। दूध चार आने सेर, दही पाँच आने सेर। विशेष ! माँ पुत्र से घूंघट करती थी। यह भी था। मुबारक मन्डी में डयूटी पर खड़े सिपाही नंगे सिर गुज़रने नहीं देते थे। तो हम गरेबान खोल कर, कालर से पकड़ कर कमीज़ ही सिर पर चढ़ा लेते थे। मुबारक मंडी के ठीक बाहर तालाब था। जिस की सीढ़ीयाँ काफी बड़ी थीं। लगभग दो-ढाई फुट ऊँची। बड़े -बड़े पत्थर काट कर लगाये गए थे सीढ़ीयों में। उन पर बैठ कर दो-चार मित्र गप्प करते थे और सहगल, पंकज मलिक, जगमोहन और के सी डे के गाने गाते थे। तालाब और भी थे। सभी हमारे जाने-पहचाने। यहाँ अब रानी पार्क है, वहाँ तालाब था। पानी काफी था। परन्तु याद आता है गन्द और कूडे़ करकट के कारण बदबूदार होता जाता था। एक तालाब गांधी भवन के पश्चिम में, नए सचिवालय के प्रांगण में था। जहां पर आठवीं-नवीं पढते हम ने दारा सिंह, किंग-कांग, रंधावा, टाईगर, जोगिन्द्र सिंह और नकाबपोश की कुश्तियां देखी थीं। वहुत बड़े तालाब की बहुत बड़ी सीढ़ीयाँ थी। हज़ारों लोग बैठ सकते थे और बैठे भी थे। तालाब सूखा हुआ था। भर दिया गया। शायद यह नियति है कि तालाब में पानी न हो तो आदमी मलबा कूड़ा भरने लगता है।
स्कूल से छुट्ठी कर परेड़ में चक्कर चलाने जाते थे। अब किसी बालक को चक्कर चलाते नहीं देखा। वो चक्कर लारी या बस के टायर में से निकालते थे। परेड़ के चारों और ब्रैंकड (Adhatoda Vasica) के पौधे लगे थे। और कभी-कभी जी में आता था तो चक्कर लगाने के लिए रघुनाथ मन्दिर के दक्षिण में स्थित तालाब के किनारों पर चले जाया करते थे। और तालाब के किनारे खड़े हो कर साथ ही बहती, गुमट चैराहे की ओर जाती बीरान सड़क के नीचे, खेतों में लगी, जिन खेतों में लगे गोभी के फूल की लगी क्यारियों को निहारते थे। और अपने मित्रों से उन्हीं खेतों में लगी, जिन खेतों और कयारियों पर अब शहर का बृहत बस अड्डा बन गया है गाजरों और मूलियों को उखाड़ कर खाने के मनसूबे बनाते थे। इसी संदर्भ में याद आया, स्कूल से चोरी निकल कर नंगे पाँव हैड पर (रणबीर नहर का पुल) चले जाते थे, टांगा रघुनाथ मंदिर के आगे से निकलकर नहर पर पहुँचने के चार आने लिया करता था। और जो लड़का टांगे पर जाता था वह वकील का, जज का या फिर अन्दर ढयौढी में (मण्डी के भीतर) काम करने वाले का पुत्र होता था।
मुबारक मण्डी की घड़ी ही सब का बाँधे हुए थी। अब उस घड़ी को तबाह कर के उसे पुराने फर्नीचर का स्टोर रूम बना दिया गया है। हालांकि ऐसे balance की घड़ी को अजूबे के तौर पर सुरक्षित रखना चाहिए था ।
पुणः अपने बचपन को याद करते हुए वे लिखते हैं- छुट्टी के दिन घर ही से निक्कर पहन कर चलते थे जिस की जेबें फटी हुई न हों। तवी रक्ख ( रक्ख जंगल ही का पर्यायवाची है) में जा कर बेर, गरने, फालसे, अनजील और ककबोड़ चख-चख कर खाना और जेबें भरते जाना। और कभी-कभी किताबों वाला बसता साथ हो तो भर ले आना और घर-भर को बेर बाँटना। बेर क्या थे, चाहे गला घुटू थे परन्तु होते थे मिश्री से मीठे और नींबू से बड़े-बड़े। अन्जील को खोलते थे। बीच में से कुछ उड़ जाता था(शायद बुड्डी माई या भुम्मनू) और बाकी खा लेते थे। 
गर्मियों की चिलचिलाती दोपहरी को किसी सिर पर टोकरी उठाई बुढ़िया की आवाज़ सलाखों के अन्दर आ घुसती थी। गरने ले लो गरने। मिट्ठे फालसे। गरनो और फालसो का तो वंश ही नाश हो गया है। शायद उन के झाड़ ही काट-सुखा कर फूँक दिये गए हैं। अब उन की जगह स्थान-स्थान पर parthinium ( congress grass) धतूरा (Dhatura metal & Dhatura stramonium) आक (Calatropis) और जड़ी (Lentana Camara) आदि झाड़ियों के नुकीले पत्ते और खड़े कांटे हर तवी जाने वाले को चेताबनी देते हैं। यदि कुछ वर्ष पहले सरकार और वन-विभाग प्रतिबन्ध न लगाते तो पहाड़ियाँ नग्न हो कर रो रही होती और भू-स्खलन के कारण भुतहा दृष्य हो गए होते।
…… क्रमशः…………….. कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 22 August 2017

सागर की कहानी (12)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (12)
जितने भी शब्द हमें पढ़ने अथवा अनुभव करने को उपलब्ध होते हैं वे सभी किसी बड़ी अथवा छोटी वस्तु, सत्य, तथ्य इत्यादि का संक्षिप्त रुप होते हैं। सागर शब्द अनगिणत चीजो़ं की सामूहिक संज्ञा है। इस शब्द की व्याख्या, इस की खोजबीन, अनुसंधान एवं अन्वेषण लगभग असम्भव सा है परन्तु फिर भी हम सागर में संग्रहित किसी एक वस्तु अथवा किसी एक आयाम को ही सागर की संज्ञा दे कर अपना काम चला लेते हैं।
सागर की ही भान्ति श्री सारथी जी संगीत, चित्रकला, साहित्य, आयुर्वेद, ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म एवं दर्शन इत्यादि माणिक-मोतियों एवं रत्नों की ही सामूहिक संज्ञा थे । श्री सारथी जी सम्पूर्ण विकसित व्यक्तित्व के मालिक हैं यह बात उन की निरन्तर संगति से ही समझ आ सकती थी। उन के लिए मानव के विकास का अर्थ, श्रद्धा का, निष्ठा का, भक्ति का, संगीत का और चित्रकला का विकास है। यह विकास एक छोटे से बिन्दु कला से शुरू हो कर जीवन के भारी समुद्र तक हो सकता है। जीवन जिसे एक भौतिकवादी, पदार्थवादी कुछ ही वर्षों का मानता है उस के लिए श्री सारथी जी कहा करते- मनुष्य दो चार दिनों में ही कई शताब्दियाँ जी सकता है। आदमी को यदि क्षण-क्षण जीना और हर पल जीना है तो उसे पल-पल और क्षण-क्षण जागृत होना पड़ेगा। उन के पास जीवन में कुछ भी प्राप्त करने के लिए एक-एक क्षण को पकड़ना और उस का विश्लेषण अति अनिवार्य है। उस का कारण हर क्षण की सार्थकता है। यदि हर क्षण सार्थक हो तभी मानव उस जीवन के दर्शन कर सकता र्ह जो कि शरीर के भीतर है और जो विशालकाय है।
हम दो-चार लोगों को श्री सारथी जी को निरन्तर सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता। उन के साथ वार्तालाप में सामान्य विषय कभी नहीं होता। ऐसे विषय की चर्चा कभी नहीं होती जो हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य चर्चा है। वे अक्सर कहा करते कि व्यक्ति अपने ही अभ्यास और त्रुट्टियों के कारण अधूरा है। अभावग्रस्त है। उन्हें आश्चर्य होता कि जो ईर्ष्या - द्वेष और क्षमा का भाव अपने प्रति होना चाहिए वह मनुष्य दूसरों के प्रति क्यों रखता है। उन की कामना सदैव यही होती कि आदमी शरीर के प्रति जाग जाये, अन्तःकरण के प्रति जाग जाये, स्थूल और सूक्ष्म का भेद जान सके।
बहुत बार मुझे और मेरे साथियों को लगा है कि श्री सारथी जी एक चलती-फिरती बहुत बड़ी अनुसंधानशाळा हैं जिस में अनेक अनुसंधान होते रहते हैं, विशेष रुप से रंगों, अलंकारों, शब्दों और अभिव्यक्तियों के। जैसे आदमी समुद्र के किनारे बैठा हो और बहुत हल्की-हल्की लहरें उठ रहीं हों तो लगता है सागर बहुत शांत होता है परन्तु जब समुद्र ज्वार भाटा की स्थिति में होता है तो उस की शक्ति बल और भय में परिणित हो जाती है। वैसे ही जब श्री सारथी जी से शब्दों की बात चलती तो उन के अर्थों को ले कर गहरे उतरते हुए, उन के गभार्थ तक पहुँचने में अचम्भित कर देने वाली स्थिति पैदा हो जाती।
वे कहा करते- हमें शरीर अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों से मिला है और यह जानना अत्यावश्यक है कि मैं क्या-क्या कर सकता हूँ। मेरा विश्वास है कि यह जन्म ही विश्लेषण करने, अनुसंधान करने ओर अज्ञात को जानने, अज्ञात को खोलने तथा परम तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। वे निरन्तर कहा करते जो लोग इस बात में विश्वास करते हैं कि सभी कुछ कर्मों ही से होता हे वे पुरुषार्थ और उद्यम और कर्म से पलायनवादी हैं। जब तक स्वयं को देखा-परखा ही न जाये। मैं क्या कर सकता हूँ इस के प्रति निष्ठावान हो कर, दृढ़ निश्चय से अन्वेषण (तहरीक) ही में प्रवेश ही न किया जाये और मात्र भय वश उस पर यकीन कर लिया जाये कि शायद मेरे भाग्य में नहीं, मैं नहीं मानता।
श्री सारथी जी का एक महामंत्र है- चिंतनशील बनो, मनन करो। इस छोटे से शब्द में पूरी की पूरी सफलता निहित है। बहुत बार वे शास्त्रोक्त बात करते- अनाभ्यासे विषम् धर्मम्। अनाभ्यासे विषम शास्त्रम। यह उन की आयु भर की सम्पति है क्योंकि संगीत ज्ञान, कला ज्ञान शास्त्र हैं। जीवन ज्ञान, आत्म ज्ञान शास्त्र है। और जो आदमी इसे धारण करता है यदि अभ्यास नहीं करता तो सभी शास्त्र विपरीत दिशा में कार्य करेंगे। जैसा कि आधुनिक काल में दृष्टिगोचर हो रहा है कि ज्ञान-विज्ञान का बहुत प्रसार है। हर आदमी बहुत कुछ जान गया है तथा जो शिक्षा -दीक्षा देने के अधिकारी हैं तथा जो सुपात्र हें दोनों में अभ्यास की बात कहीं नहीं है।
श्री सारथी जी कहते - जैसे घोड़ा एवं गधा ईंटे ढ़ोता है, यदि ज्ञान को बोझ के तौर पर लिया जाये तो जब तक वह सिर से उतारा न जाये वह आदमी के भीतर दुर्बलता पैदा करता जाता है। उन का मानना है कि ऐसे आदमी की पहचान तत्कालिक संभव हो सकती हे जो अध्यात्म कला और भाषा के बारे में ज्ञान रखता हो अनुभूति नही और न ही उस ने क्रियातमक्ता के द्वारा उस का साक्षत्कार किया हो। आज हमारे समाज में एक विज्ञटन हो रहा है। मानवीय मूल्यों का हनन, श्रद्दा के प्रति अनास्था और आचार्याें की बढ़ती हुई संख्या। वे पूछते- भला यह कैसे संभव हैे कि एक ओर दस करोड़ से ऊपर मार्गदर्शक हो जायें ओर उस के साथ-साथ आदमी के जीवन में अंधकार बढ़ता जाये। और वह ज्ञान को एक बोझ के रूप में ढ़ोता जाये। .......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 20 August 2017

सागर की कहानी(11)

सागर की कहानी(11)
…..सारथी जी कहा करते लय-ताल का अच्छा जानकार ही ग़ज़ल का धनी हो सकता है। इसीलिए ग़ज़ल आज भी गुरूकुल से जुड़ी है। वे कहते मैं जानता हूँ लय-ताल में बंधी रचना किसी न किसी दिन कोई छोटा बड़ा गायक ज़रुर गायेगा। ग़ज़ल गेय है। और खेद यह है कि मेरे आसपास के कुछ लोग गद्य को ग़ज़ल कह कर आश्वस्त हो रहे हैं। और ग़ज़ल के रंग रुप पहचानने वालों को दृष्टिविगत कर रहे हैं।
श्री सारथी जी कहा करते संगीत में तबला एक ऐसा बाद्य है जिस का अभ्यास मानसिक एवं शारीरिक दोनों स्तरों पर वादक न करे तो वह पिछड़ जाएगा। एक दिन अभ्यास न करना कलाकार को सात दिन पीछे धकेल देगा। तबला और ग़ज़ल दोनों एक जैसा परिश्रम मानसिक, शारीरक बराबर ही माँगते हैं।
उन के अनुसार ग़ज़ल कभी कभी लिखी जाये परन्तु इस का चिन्तन निरन्तर होना चाहिए। ऐसा चिन्तन जैसा भक्त भगवान के चरणों में विलय होने के लिए करता है।
वे अक्सर बिन्दु जी की ग़ज़ल सुनाते
जो उस सांबरे को सदा ढूंढ़ता है।
उसे एक दिन सांबरा ढंूढ़ता है।
जिसे ढूंढ़ने का अमल पड़ चुका हो।
वो इस ढूढ़ने में मजा़ ढूंढ़ता
फिर कहते - मैंने बिन्दु जी को सुना है। उन्होंने नारायण के अवतार घनश्याम के बिरह में तड़पते हुए व्याकुलता, विवलता ओर प्रतीक्षा को बहुत मार्मिक और संवेदनशील ढ़ंग से ग़ज़लों में बांधा है।
सारथी जी की ग़ज़लों में न तो रिवायती प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है और न ही उन्होंने रिवायती शायरी को कोई महत्च ही दिया है। वे कहते- ग़ज़ल की यात्रा नारी के प्रेम, नारी के बिरह से, नारी की बेबफाई से शुरू हुई थी परन्तु नारी का वह रुप मात्र यौवनावस्था है। यह सारे जीवन का रुप नहीं है। इसलिए मेरे विश्वास के अनुसार वह विषय उठाना सख्त गलती है जो जीवन का पूरा रूप प्रस्तुत न कर सके। लिखने को अब भी रिवायती शायरी हो रही है परन्तु यह सब स्थाई नहीं है। वे कहते- प्रकृति के भीतर प्रवेश करना और आदमी के स्वभाव के भीतर प्रवेश करना यह दोनों कठिन कार्य हैं। ग़ज़ल धीरे-धीरे प्रवेश करती है और एक रहस्य को उद्घाटित करती है कि आदमी किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर देखता रह जाता है।
श्री सारथी जी कहते- ग़ज़ल भी शास्त्र की भान्ति है। शेअर में गहनता होती है, प्रतीक होता है, रुपक होते हैं, इबहाम होता है, श्लोक की भान्ति शेअर कूजे में बन्द दरिया की तरह होता है। और हर शब्द अपने सारे अर्थाें को भीतर समेटे अपने यथोचित स्थान पर बैठा होता है और उपनिषद के सूत्र की भान्ति शेअर में उतरना पड़ता है और जीवन के वे मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, भौतिक पहलू उन बहुअर्थी शब्दों में से निकालने पड़ते हैं।
सारथी जी ग़ज़ल अधिक नहीं लिखा करते परन्तु प्रतिदिन की बात में ग़ज़ल का जिक्र कहीं न कहीं अवश्य आ जाता। शास्त्रीय संगीत को सम्पूर्ण ललित कला परिभाषित करते हुए वे कहते - शास्त्रीय संगीत ही इन्द्रधनुष है। संगीत ही रंग है। संगीत ही लय-ताल है। शास्त्रीय संगीत ही आँसू, हसी और दर्द है। सारा जगत संगीतात्मक है और यदि ग़ज़ल शास्त्रीय संगीत जैसा रुप धारण कर ले अर्थात जो प्रभाव एक राग वातावरण पर छोड़ता है यदि ग़ज़ल भी छोड़े तो यह कहने में अतिश्योक्ति न होगी की सारा जगत ही ग़ज़लमय है।
......क्रमशः .......कपिल अनिरुद्ध

Saturday, 19 August 2017

सागर की कहानी (10)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (10)
वे कहते- जब मैने 1959 में ग़ज़ल लिखना आरम्भ किया तब तक मैनें बहुत सारी ग़ज़लें मीर तकी मीर, ग़ालिब, ज़ौक, सीमाव और फैज़ की सुन रखी थी। श्री के एल सहगल तो नित्य प्रति रेडियो पर सुने जा सकते थे। वे किसी ताल में भी अत्याधिक आढ़ा गाते थे। और उस आढ़ेपन में अत्याधिक आनन्द की अनुभूति होती थी। ऐसा ही आढ़ा जैसा बिविध तालों में तुलसी, मीरा, सूर, कबीर, दादू, रविदास के भजन तथा रामचरितमानस में विभिन्न तालों में निबद्ध रचनायें। और हमें नित्य प्रति रामचन्द्र कृपालू भज मन और अच्युतं केशवम् का पाठ करना पड़ता था। वे कहते मेरा ध्यान सब से पहले रचना के ताल पर केन्द्रित होता। मैं वाल्यावस्था से जो कुछ गाता आ रहा था अब उस ताल में दुगुन, तिगुन, आढ़ापन और विलम्बत बहुत ही दक्षता से करने लगा था।
श्री सारथी जी कहते-ग़ज़ल लिखते ही मुझे यह अनुभव हुआ कि जो लय-ताल और अरुज़ जानता है वह ग़ज़ल की आत्मा को भी जानता है। ग़ज़ल के बारे में एक अनुभूति है कि वह प्रतीकात्मक भाषा, व्यंजनात्मक भाषा और ज़िन्दगी के अन्तःकरण से बात करने की भाषा है। इसलिए जब तक की ग़ज़ल में दर्शन, मनोविज्ञान तथा रुहानियत का पुट न हो शेअर प्रभावहीन रहता है। मेरे निजि विचार में ग़ज़ल में प्रतीक, रुपक, शब्दालंकार, भावचित्र, शब्दचित्र, बक्रोक्ति आदि यह सारे शास्त्र के गुण हैं और जब तक शेअर में यह गुण नहीं हो वह कथन ही गुणहीन है। ग़ज़ल तो क्या एक शेअर लौटे में दरिया बन्द करने के बराबर होता है अथवा यह अक्षर-अक्षर में संसार का भ्रमण है। उन की ग़ज़ल का एक शेअर है।
तुम समन्दर हो तुम्हारा तो कोई ज़िक्र नहीं
मैंने क़तरे भी समन्दर के बराबर देखे
यह गागर में सागर का उदाहरएा है। पूरा भारतीय वाङमय इस शेअर में समाया नज़र आता हैं।
श्री सारथी जी कहते मुझ में ग़ज़ल लिखने का सलीका इसलिए पैदा हुआ कि जो बात पर्दा दर पर्दा छिपी हुई है और जीवन की अन्तर्धारा से जुड़ी है उस के दोनों रुप गौण और मुखर एक ही बार में पैदा हो जाये।
वे कहते मैं स्वयं अपना ही बड़ा आलोचक हूँ इसलिए मैं ऐसी पंक्ति, ऐसा शेअर सोच भी नहीं सकता जिस का प्रभाव कम हो और जिसे आसानी से समझ लिया जा सके। दूसरे अर्थों में ग़ज़ल श्रोता का मानसिक और बौद्धिक स्तर उठाने की रचना है। उसे अपने स्तर से उठ कर शेअर को समझना पड़ता है और धीरे-धीरे उस का मानसिक स्तर ऊँचा उठ जाता है। वे अक्सर कहा करते-एक गुण जो सभी क्षेत्रों के कलाकारों-फ़नकारो में होना अनिवार्य है वह है स्वयं अपना आलोचक (नक्काद. बतपजपब) होना। यह कभी भी सम्भव नहीं है कि कलाकार पूरा जागृत हो रचना करे, सृजन करे और उसे अपनी रचना के गुणों का, विषेशताओं- संज्ञायों का और त्रुटियों -दोषों का इल्म न हो। मेरा पूरा विश्वास है कि कलाकार के भीतर जितना बड़ा आलोचक होगा उतनी ही उस की रचना विशाल दृष्टिकोण और विशाल परिपेक्ष्य (च्मतेचमबजपअम) की होगी।
अपने बारे में बात करते हुए वे कहते- मेरी ग़ज़ल में तीव्रता, विषमता , अभाव तथा विघटन है। मुझे लगता है मैं इस विधा में व्यक्त इसलिए होता हूँ कि पक्षपात, जात-पात, अपबाद, हिंसाबाद, समर्थनबाद, निष्क्रियता, निकम्पापन इन सब के विरुद्ध साहित्यिक क्रान्ति का श्रीगणेश हो सके। हिम्मत की गाथा सुनाने से अगर कोई स्वयं को न पहचान सके तो उसे कोई षड्यंत्र से भरी कहानी सुना कर भी जगाया जा सकता है। यह ठीक है कि ग़ज़ल का असर देर से होता है परन्तु यह देर से होने वाला असर बहुत गहरा होता है।
......क्रमशः .......कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 17 August 2017

सागर की कहानी (9)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (9)
सागर को प्रेम का प्रतीक माना गया है परन्तु इस प्रेम रुपी सागर में प्रवेश सहज नहीं। कहीं कोई ग़लती से भी सागर की लहरों की गिरफ्त में आ जाये तो यह लहरें व्यक्ति को भीतर ले जाने के स्थान पर बाहर पटक देती हैं, मानो कह रही हों- ‘भीतर प्रवेश की अपने भीतर योग्यता पैदा करो’। जो सागर को मात्र दिल बहलाने का साधन मानते हैं वह बड़े भ्रम में जीते हैं सागर के साथ भला कैसी दिल्लगी। दिल्लगी करने वालों के लिए तो सागर की बूँद भी नहीं। वे तो अपनी स्थूल प्यास को भी जलनिधि के जल से नहीं मिटा पाते। उथले, अधीर एवं भीरु लोगों के लिए सागर में प्रवेश निषेध है। उन्हें सागर के बाहिरी रंग-रुप से ही संतुष्ट होना पड़ता है। सागर में प्रवेश हेतु पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास अनिवार्य है। यही श्रद्धा- विश्वास जब समर्पण में रुपांतरित होते है तो साधक के लिए सागर के प्रवेश द्वार खुलते हैं।
श्री सारथी जी की ऊर्दू ग़ज़ल का यह शेअर उन के भीतर प्रवेश का रास्ता सुझाता है।
वो दिखाई जो नहीं देता वही तो मैं हूँ।
जिस्म सूखा है मगर लफ़ज़ हर इक तर मेरा।
एक अन्य ग़ज़ल का मतला इस प्रकार है
सलीबों पर सलीबे ढ़ो रहा था
मैं ऊँचा और ऊँचा हो रहा था
उन की ग़ज़लों में ऐसे बहुत से अशरार हैं जो उन्हें समझने में हमारी सहायता कर सकते है। तो उन की ग़ज़लों को ही उन के भीतर का प्रवेश द्वार समझा जाये।
श्री सारथी जी का कथन है - हमारे साधना के ढाँचे को काव्य ने संभाल रखा है। काव्य कला है, जिस के मूल कलाकार श्री कृष्ण हैं, वेदव्यास जिस के स्त्रोत हैं। बाल्मिकी तथा तुलसी जिस के कवच हैं। काव्य को मानव समाज में प्राण की संज्ञा दी जाये तो यह अतिशयोक्ति न होगी। काव्य कला होते हुए प्राण है और प्राण होते हुए कला। और सब से बड़ी बात यह कि जिस समाज में काव्यकला को पूर्ण महत्व दिया जाता है वहाँ पर लय-ताल और संगीत का साम्राज्य रहता है। काव्य का सारा ढ़ाँचा लय-ताल पर आधारित है। यह कभी भी संभव नहीं है और यह संभावना भी नहीं की जा सकती कि व्यक्ति संगीत के तीन गुणों लय, ताल ओर स्वर को समझे बिना काव्यकार हो जाये। यदि उसे काव्यकार होना है तो लयकार ओर स्वरकार पहले होना होगा।
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
इस सूत्र से काव्य का प्रादुर्भाव होता है और फिर भारतीय समाज का हर नागरिक, गाँव, गलि-कूचा, यहाँ तक की पशु-पक्षी भी काव्य के साथ, संगीत के साथ जुड़ जाते हैं।
वे कहते - काव्य और संगीत के शाश्वत सम्बन्ध के फलस्वरुप ही तुलसी, मीरा, सूर, कबीर, नानक, दादू, पलटू अभी तक हमारी छातियों में जीवित हैं। ऐसा लगता है कि उन से साक्षात्कार कर रहे हैं। काव्य को जन्म देना संगीत का कार्य है और संगीत को जन्म देना काव्य का काम है। यह एक दूसरे को तत्कालिक जन्म देते हैं। स्वर, शब्द, लय-ताल यह इतने ओत-प्रोत है कि यह इक्ट्ठे ही अवतरति होते हैं बरना नहीं होते।
....क्रमशः .....कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 16 August 2017

सागर की कहानी (8)


सागर की कहानी (8)
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते हैं - लगभग पैंतालीस-छयालीस में पिता जी का तबादला जम्मू हो गया। घर में ताई का दबदबा होने के कारण घर का वातावरण घुटन भरा रहता। मेरा एक पक्का दास्त था देवीदास। मेरा अधिकांश समय उसी के घर बीतता। खाता पीता भी वहीं था। उन के पिता श्री figure (फ़िगर) में बाकमाल थे। सोने का काम करते थे। मुझ से भजन सुनते थे। मुझे ओर देवीदास को जो जेब खर्च मिलता उन के हम लोग चार्ट पेस्टलस ला कर शिव जी, कृष्ण जी, सुरैया और सहगल बनाते रहते।
अन्ततः हम दोनों मास्टर संसारचन्द जी के पास पहुँचे। मैंने उन की शिष्यता ग्रहण की।
श्री सारथी जी अभ्यास पर बहुत ज़ोर देते। अपनी कला साधना में रेखायों के संसार की बात करते हुए वे सुनाते कि किस प्रकार वे रंगीन चाक को लेकर फर्श पर चित्र बनाया और मिटाया करते। मानव आकृतियाँ बार-बार बना कर, अंग-प्रति अंग बार-बार बना कर कैसे मिटाते रहे। और फिर जब काग़ज़ पर उतारने की बारी आई तो उन के कथनानुसार- पच्चीस-तीस पृष्ठों पर रेखाचित्र बनाये बिना वे सोते नहीं थे।
वे कहते-बच्चे को जिस काम से हटाया जाये वह कार्य वह अवश्य करता है। इस के इलावा बच्चा एक ओर काम में माहिर होता है। वह है नकल का काम। जो कुछ करते देखेगा उसे ज़रूर करेगा। कोई करे न करे मैंने शायद यह ज़रूर किया है। अपने पिताश्री को हारमोनियम बजाते देखा मैंने बजाया। उन्हें गाते देखा मैंने राग गाए। अपने दोस्तों-यारों को चोरी करते देखा, मैंने भी चोरी की। पिता जी की जेब से पैसे निकालता रहा। दोस्त सिगरेट पीते थे, सिनेमा देखते थे, साथ ही कीर्तन के लिए भी जाते थे। मैंने घर से भाग कर सिनेमा देखे, कई कई बार फेल हुआ, साथ ही लगातार कीर्तन में भी जाता रहा। भजन और शास्त्रोक्त बंदिशे गाता रहा। नकल कर मैं उकता गया। पर एक स्थान पर नकल करते हुए बहुत परेशानी हुई। वह थी ड्रांइग की नकल। आदमी के शरीर की रेखा की नकल। । Anatomy की नकल। मास्टर संसारचन्द के पास पहुँचा। उन्होंने कुछ ग्रंथ दे दिये। आदमी बनाओ, औरतें बनाओं और landscape बनाओ। बड़े मास्टर रवि वर्मा, रैम्बा्रंड, रैफील, लियानार्डो, टीचियन की तस्बीरों की नकल मंहगी पड़ी। छोटी उम्र में ही भूख, प्यास, नींद, आराम भूल गये। ग़ज़ब का शेअर रट लिया। 
शौक हर रंग रकीबे सर-ओ-सामां निकला
कैस तस्बीर के पदें में भी उरियां निकला
जुनून किसी भी तरह का हो वह पहले सिर (समझ, दानिश) का दुश्मन हो जाता है और फिर सामान का भी दुशमन हो जाता है। जिस प्रकार मजनू का शौक उस के लिए हर किसी का दुशमन बन कर उस के वस्त्र फाड़ नंगा कर गया। 
वे कहते- बड़ा बनना है तो अपना आराम काट कर फैंक दो। जीभ के स्वाद छोड़ दो, गप्पी मित्रों का साथ ऐसे छोड़ दो जैसे विभीशण ने लंकेश को छोड़ दिया। क्योंकि कला साधना भी योग है और एक दिन आता है कि वह भगवान के रास्ते का मील पत्थर बन जाता है। वही एकाग्रता, वही धुन, वही दमन, वही नियन्त्रण जो ईष्ट की साधना के लिए चाहिए, उतना ही अनुपात इन सब का कला साधना के लिए भी वांछित हैं। सीखने के बारे में वे बहुत कुछ बताते -प्रशिक्षण अर्थात सीखने की प्रक्रिया कैसी हो। सीखने के प्रयोजन से जो बात ग्रहण करनी होगी वह मनसा, वाचा, कर्मना ग्रहण करनी होगी। तभी वह स्मृति में स्थान बनायेगी। उदाहरण के तौर पर वे कहते सीखने के लिए जब उन के पिता ने उन्हें विवश किया तो पहले ताल कंठस्थ करबाये। -मैं चलते-फिरते ताल, मात्रायें, उन की अवधी गिनता रहा। उन के कथनानुसार - हर वयस्क, हर युवा जो प्रशिक्षण में है यदि वह सिखलाई में दीवाना हो जाये तो वह तज़ुर्बे में, अभ्यास में जल्दी प्रवेश कर जायेगा। 
यह कभी संभव नहीं हो सकता कि आप जीवन की सुविधा को भी बनाये रक्खो और सीखते भी जाओ। उन के अनुसार - There is no royal road to success. कण्टक मार्ग के द्वारा ही अभ्यास में पहुँचा जा सकता है।
....क्रमशः .....कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 13 August 2017

सागर की कहानी (7)

सागर की कहानी (7)
शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में जो जिज्ञासु-पिपासु पदार्पण करता श्री सारथी जी उसे हारमोनियम पर प्रशिक्षण आरम्भ करने को कहते परन्तु वे साधक का हारमोनियम पर आश्रित होना एक अवगुण ही मानते। बैसे जब उनके लम्बे हाथों की लम्बी उंगलियां हारमोनियम पर दौड़तीं तो बाजा भी बोलने लगता, गाने लगता, नृत्य करने लगता। इस संदर्भ में वे मिर्ज़ा ग़ालिब का यह शेअर अक्सर सुनाते
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा।
इक ज़रा छेड़िये फिर देखिये क्या होता है।
फिर कहते यही कारण है पेटी बजाने का। एक राग, दो राग, दस राग। एक दर्द, दो दर्द, सैंकडों दर्द। फिर स्वरों के मेल से उभरने वाले तारतम्य का हृदय और स्नायु पर प्रभाव। आप यदि हारमोनियम बजायें तो हर स्वर में स्वयं को बजता हुआ महसूस करेंगे।
वे कहते गायक कईं बार पूरी मदद हारमोनियम ही से लेना चाह सकता है, जो सर्वदा असम्भव है। हारमोनियम पर सधा हुआ गायक स्वतन्त्रता से वादी-सम्वादी की ठीक पहचान कर सके, इस में संदेह है। वह सपाट अथवा दानेदार तान अथवा पलटा इन का प्रदर्शन क्षमता से कर सके, यह भी ठीक से नहीं कहा जा सकता।
वे कहते -तानपुरे का निरन्तर अभ्यास गायक को स्वर लेने, स्वर उठाने, बढ़त करने, सरगम और अंग उठाने के क्षणों के लिए धीरे-धीरे स्वतन्त्र करता जाता है। प्रारम्भ ही से अलंकारों का तानपुरे पर अभ्यास, स्वरों-अलंकारों और ग्राम के स्थानों को अन्तस चेतन में, अन्तःकरण में अंकित करता जाता है। वे कहते- मेरा विश्वास है कि खामोशी में गायन का अभ्यास अति कठिन और उतना ही प्रभावपूर्ण होता है। आदमी वाणी के द्वारा बाहिर ही नहीं गाता बल्कि वाणी भीतर भी गाती है। वास्तव में मानव की सभी ज्ञानेन्द्रियां समयानुसार भीतर और बाहिर देख, सुन, बोल और स्पर्शादि कर सकती हैं। और भीतर की ओर चुपचाप गाने बाला अभ्यासी विद्यार्थी ही नाम कमा सकता है। और यह बात तानपुरे पर अभ्यास ही से सम्भव है, हारमोनियम पर कदापि नहीं। वे कहते यह सत्य वर्णनीय है कि स्व० उस्ताद अमीर खाँ साहिब ने बहुत सारे ख्याल गाये हैं तो मात्र तानपुरे की संगत हुई है। वे अपनी पूरी गायन शक्ति और उस में अभ्यास से पैदा किये चमत्कार, मूर्धना, तान, पलटा, सरगम आदि को स्वतन्त्रता से अभिव्यक्त करने के लिए तानपुरे को उपयुक्त समझते थे। वे संगत में मदद की अपेक्षा नहीं करते थे। ....क्रमशः........(कपिल अनिरुद्ध)

Saturday, 12 August 2017

सागर की कहानी (भाग -6)

साथियो, प्रस्तुतु हैं गुरुदेव सारथी जी की जीवनी के कुछ अंश, सुझावों का स्वागत है......................
सागर की कहानी (भाग -6)
जिस प्रकार सागर को जानने हेतु सागर की सम्पूर्ण विकास यात्रा के इतिहास को जानना पड़ेगा उसी प्रकार श्री सारथी जी को जानने के लिए उन की जीवन यात्रा में प्रवेश आवश्यक है। जीवन यात्रा ही एक पथिक के सारथी बनने का पूरा परिचय दे सकती है। सफरनामा में अपनी जीवन यात्रा का परिचय देते हुए सारथी जी लिखते हैं ....... ‘ओमी उठ के चला गया है क्योंकि दो-चार संगीत के रसिया ओर आ गए हैं। डॉ जसबंत सिंह, मोती लाला किलम, जिया लाल बसंत, गाश लाल और आशिक अली खाँ साहब। आशिक अली खाँ साहब दरबारी गायक हैं पर सदैव महफिलों से घिरे रहते हैं। महफिल उन्हें अफीम की तरह लगी है। वो आते ही पिता जी को म्हाशा करम चन्द जी के लिए पूछते हैं। म्हाशा जी बायलन वादक हैं। संगत कमाल की करते हैं। पिता श्री तो कहते हैं करमचन्द राग में डूब जाता है। महफिल के लिए तीन स्थान निश्चित हैं, घाट पर हनुमान जी का मन्दिर, बटमालू का राधा-कृष्ण मन्दिर और महाराजा बाज़ार के मास्टर हरि विलास हारमोनियम मेकर की वर्कशाप।पंड़ित मनसा राम जी इंकम टैक्स में क्लर्क हैं। वह दरबार मूब के साथ रहते हैं। जम्मू में वे मंड़ी वाले तालाव पर खड़ी दीवान अस्टेट में रहते हैं। ओमी श्रीनगर न्यूआरा हाई स्कूल में तथा जम्मू सनातन धर्म सभा हाई स्कूल में पड़ता है। जम्मू और श्रीनगर में मौसम ओमी को बड़ा कर रहे हैं। श्रीनगर प्रताप भवन में आयोजित रामलीला में ओमी गाता है और जम्मू वह रोज़ गाता है। रोज़ इसलिए क्योंकि जम्मू में सप्ताह के सातों दिन भजन कीर्तन के दिन हैं। रविवार रामचन्द्र शाह के घर कीर्तन होता है, सोमबार लाला ईश्वर दास के घर, वीरवार बोधराज भाटिया के घर। शुक्रवार परसराम नागर के घर और शनीवार रानी तालाब वाले राधाकृष्ण के मंदिर। रोज़ रियाज़ और रोज़ गाना। रविवार को दुर्गा संगीत अकादमी की साप्ताहिक गोष्ठी होती है। वहाँ सभी संगीतकार हाज़िरी देते हैं। अब ओमी हारमोनियम बढ़िया बजाने लगा है।....मेरा बचपन कहाँ खो गया कुछ पता ही नहीं। मैं पैदा होने के कुछ ही वर्ष बाद बूढ़ा हो गया। ’
घड़ी साज में वे लिखते हैं- ‘मैंने प्रारम्भ में अपने पिता जिया लाल बसन्त, फिर पिता के मित्र आशिक अली खाँ साहब से संगीत सीखा। उन दिनों महफिल में पंड़ित सरूप नाथ, जगन्नाथ सोपुरी, मास्टर हरी विलास और एक फकीर सांई मस्त यह विद्वान गायन को जीवित रखे हुए थे। फिर मैंने मास्टर कृष्णराव, पंड़ित उमादत्त, पंड़ित जानकी नाथ रावल और मास्टर कन्ठुराम जी का गायन भी सुना। उन दिनों श्री ऋषिकेश उपाध्याय, खानम जी और कुलभूशण जी भी इन संगीतकारों से शिक्षा प्राप्त करते थे। पंड़ित जगदीश राज और डा जगदीश शर्मा, और प्रेम जी का नाम अब भी लिया जा सकता है। संगीत प्रेमियों में हकीम परसराम नागर, पंड़ित बाँके बिहारी, रामचन्द शाह और लाला ईश्वर दास जी को स्मरण किया जा सकता है।
वादकों में तबले के उस्ताद पंडित जगदीश, मास्टर त्रिलोकीनाथ (निक्का) ने परम्परा स्थापित की और अब भी तबले की परम्परा को मास्टर लक्षमण दास, श्री करतार सिंह, श्री ओम प्रकाश ( थोड़ू) और मेरे मित्र श्री ब्रह्म स्वरूप सच्चर ने कायम रखा है। एक तबला परम्परा पंड़ित उमादत्त जी की है। जिस में प्रसिद्ध संतूरवादक शिवकुमार और कृष्ण लाल वर्मा जी भी है , लक्ष्मीकान्त जोशी भी इसी घराने से थे। हमारे शहर के आदरणीय श्री सुरेन्द्र वाली जी संगीत के भारी प्रसंशक थे। घर में महफिलें जुटाते थे। उनके सुपुत्र श्री बलदेव बाली पंड़ित भीमसेन जोशी के घराने से सम्बन्धित हैं। और पंड़ित वाचस्पति शर्मा सुविख्यात सितारवादक पंड़ित रविशंकर के घराने के कलाकार हैं। इस समय श्री राजनारायण, राज रैना, श्री केाहली ( नृत्य), पंड़ित मालवीय तबला और कुछेक कलाकार संगीत के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत्त हैं।.............................क्रमशः ........................................................कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 8 August 2017

सागर की कहानी (भाग -5)

सागर की कहानी (भाग -5)
बहुत से लोगों को सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा श्री सारथी जी के निवासस्थान पर मोती (श्वान का नाम) और गोगी ( बिल्ली का नाम) का आपसी प्रेम देखने का। बैसे उन के सानिध्य में जो भी श्वान आता वे उसे मोती कह कर ही पुचकारते तथा हर बिल्ली को वे गोगी की ही संज्ञा देते। परन्तु यह मोती और गोगी तो विशेष ही थे। कुत्ते और बिल्ली की शत्रुता से कौन अपरिचित होगा परन्तु इन दोनों स्वाभविक शत्रुयों के आपसी प्रेम को देखने का सौभाग्य तो बहुत ही कम लोगों को प्राप्त हुआ होगा। गोगी अक्सर मोती की पीठ को ही आराम करने का आदर्श स्थान समझती। उधर मोती गोगी के खाना खाने के उपरान्त ही कुछ खाता। वह गोगी का मित्र कम उस का अभिभावक अधिक था। गोगी की हर छाटी-बड़ी ज़रुरत का ख्याल रखना मोती अपना दायित्व समझता। गोगी श्री सारथी जी की अधिक लाड़ली थी इसलिये जब भी कोई व्यक्ति उन से मिलने आता गोगी उस की गोद में बैठ कर यह बताने का प्रयत्न करती कि मैं इस घर की लाड़ली बेटी हूँ मुझे नज़र-अन्दाज़ करने की कोशिश मत करना। हाँ वह अपने विश्राम हेतु वह उसी व्यक्ति की गोद का चुनाव करती जो बहुत शांत \ होता। चंचल, एवं अधीर व्यक्तियों से वह सदैव दूर रहती।
कभी बिल्ली का छोटा बच्चा बीमार हो जाता तो उस के लिए इतने चिन्तित हो जाते मानो यही उस का सर्वस्व हो। फिर उस नन्हें बच्चे को अपनी गोद में बिठा कर तब तक सहलाते रहते और उसे विभिन्न माध्यमों के द्वारा औषधी मिला दूध पिलाते रहते जब तक वे उस के बारे में निश्चिंत नहीं हो जाते। एक दिन कार्यालय से छुट्टी करने के उपरान्त उनके पास पहुँचता हूँ तो देखते ही कहते हैं- भाई कपिल यह छोटा गुग्गू (उन के द्वारा दिया गया प्यारा सा नाम) बीमार हो गया है। कुछ ले नहीं रहा। सोच रहा हूँ इसे दूध कैसे पिलाया जाए। फिर मेरी ओर देख कर प्रेम उड़ेलते हुए कहते हैं- भाई जल्दी बतायों क्या किया जाए। मैं कहता हूँ गुरूदेव आँखों की दवा की कोई शीशी मिल जाए तो इसे............ मेरी बात पूरी होने से पहले ही बेहद उत्साहित हो कर कहते हैं- तो भई जल्दी से उस शीशी का प्रबन्ध करो। मैं किसी प्रकार से वह शीशी ले आता हूँ। श्री सारथी जी दूध में दबाई मिला मेरा ही इन्ज़ार कर रहे होते हैं। देखते ही कहते हैं अब एक ओर कृपा कर दो। इसे यह दूध पिला दो। मैं गुग्गू को अपनी गोदी में बिठा दूध पिलाना आरम्भ करता हूँ। कुछ देर उपरान्त गुग्गू मेरी ही गोदी में सो जाती है श्री सारथी जी शांत हो आँखें मूंद लेते हैं। मूक प्राणियों के प्रति उन की संवेदना मुझे हैरत में तो डालती ही है आनन्दित भी करती है।
श्री सारथी जी के बारे में मैं बहुत बार दुविधा में गिर गया हूँ कि इस प्रकार का निर्लिप्त सन्त इतना संवेदनशील कैसे है। एक दिन उन से पूछने का साहस कर ही लिया। वे कहने लगे कि अपने प्रति एक शून्य का भाव है और सारे संसार के प्रति समर्पण का भाव है। यह उन की आयु भर की साधना है परन्तु आश्चर्य है उन के साथ वर्षों तक रहने वाले उन की अत्याधिक महत्वपूर्ण बातों को नहीं जानते। वे कहते- जड़, अर्द्धचेतन और अचेतन सब के साथ समव्यवहार और व्यष्टि में समष्टि के तथा समष्टि में व्यष्टि के दर्षन व्यक्ति को उच्च स्थान पर स्थापित कर देते है। उन के कथनानुसार व्यक्ति के अर्न्तमुखी संसार तथा बर्हिमुखी संसार का विलय जब श्रद्धा तथा निष्ठा में हो जाता है तब जीवन में किसी शंका , संदेह और अभाव की गुंजायश नहीं रहती। 
श्री सारथी जी अक्सर कहा करते- यदि तुम्हारे भीतर विनम्रता और संवेदना की नदियाँ प्रबाहित रहें तो तुम्हारी ज्ञानेन्द्रिया-कर्मेन्द्रिया तथा मन की तीनों अवस्थायें जो तुम्हारे अस्तितव के लिए केन्द्रीय उर्जा का कार्य करते हैं हरी-भरी रहेंगी और तुम में न कभी दरार पड़ेगी और न ही टूटने की नौबत आयेगी। इसलिये वे कहा करते अपना संगम बहां रखो जहां मन और मस्तिष्क दोनों स्निग्ध रहें। सतसंग में रहो और अपने भीतर के जल और नमीं देानों को बचाए रखो।
वे कहते भक्ति में भगवान के प्रेम में आँसुओं की, तड़पते मन-आत्मा के जल की काफी बड़ी कीमत है। और यदि यह आँसू अपने भीतर हों तो इन से गिरिधर गोपाल और नागर को भी रिझाया जा सकता है। और फिर भक्ति में तो स्वयं को सागर ही में अश्रुयों के सागर ही में भिगोये रखने से कम से काम नहीं चल सकता। शायद इसीलिए शैदा ने कहा है 
ये इश्क़ नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजै
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।…….क्रमशः
Kapil Anirudh

Monday, 7 August 2017

सागर की कहानी (भाग -4)

बंधुओं गुरुदेव सारथी जी की जीवनी को इस आशय से भी यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ ताकि आप अपने अमूल्य सुझाबों एवं संशोधनों द्वारा जीवनी को जीवंत रूप देने में सहयोगी हो सकें।
सागर की कहानी (भाग -4)
अश्रू संवेदनशीलता के ही तो परिचायक हैं। जब हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व संवेदना से भरा होता है तभी अश्रुधारा बहती है और जब सम्पूर्ण अस्तित्व ही जलमय हो जाता है तो संवेदना सौन्दर्य में रुपांतरित होती है। जल का भण्ड़ार सागर संवेदनाओं के समूह का ही तो नाम है और इन्हीं संवेदनाओं में से उमंगों की तरंगे पैदा होती हैं तथा इन्हीं संवेदनाओं से उठने वाली जलतरंगे आनन्द की परिचायक हैं। श्री सारथी जी की संवेदनाओं के दायरे से बाहर कोई भी नहीं होता। उन के संवेदनाओं के घेरे में मानव समूह के साथ-साथ पशु और पक्षियों को भी स्थान प्राप्त होता। उन के प्रेम का पात्र बनने का सौभाग्य गंगू (श्री सारथी जी के तोते का नाम) को भी प्राप्त हुआ। उन की दिनचर्या में गंगू का विशेष महत्व रहता। गंगू का पिंजरा साफ करना, उसे खाने हेतु सोगी, काजू, छुआरा, अमरुद, बेर इत्यादि देना और फिर अपने दिव्य स्पर्श द्वारा उसे आनिन्दत करना। गंगू को कब क्या देना है इस का उन्हें सदैव ध्यान रहता। सप्ताह में एक दिन गंगू कि लिए उन के द्वारा तैयार किया गया मिश्री, सौंफ और अजबायन का मिश्रण रहता। वे बताया करते यह मिश्रण इसे अपचन से बचायेगा। खाने के लिए मिर्च देने पर यह बातें तो खूब करेगा परन्तु इस से इस का यकृत (liver) खराब हो जायेगा। गंगू 35 वर्षों (1967 से 2002) तक श्री सारथी जी का प्रेमपात्र बना रहा। वे बताया करते कि गंगू घायल अवस्था में झाड़ियों में फसा तड़प रहा था जब उन की माता श्री उसे अपने साथ ले आईं और फिर गंगू का उपचार आरम्भ हो गया। ठीक होने पर गंगू को उड़ा देने का भरसक प्रयत्न किया गया परन्तु गंगू अपने परिवार को छोड़ने को हरगिज़ तैयार न था। जब भी कोई व्यक्ति श्री सारथी जी से मिलने के लिए आता गंगू अपनी सांकेतिक ध्वनि द्वारा आगन्तुक के आने की सूचना उन्हें दे देता। उस का संकेत बड़ा कमाल का होता। यदि वह हारमोनियम के मंद्र सप्तक पर स्थित हो पुकारता तो इस का अर्थ होता श्री सारथी जी गंगू के समीप बड़े कमरे में विद्यमान है तथा यदि वह हारमोनियम के तार सप्तक पर स्थित हो पुकारता तो संकेत होता सारथी जी गंगू से दूर बरामदे के बाई तरफ स्थित बैठक में मौजूद हैं। उन के सानिध्य में गंगू सदैव अपनी गर्दन घुमा कर तथा एक विशेष ताल में कटोरी हिला कर, एक विशेष ध्वनि पैदा कर अपने हर्षोल्लास का इज़हार करता और श्री सारथी जी अपने लम्बे हाथों की लम्बी उंगलियाँ गंगू की गर्दन पर घुमा कर उस के हर्षोल्लास को आनन्द उत्सव में परिवर्तित कर देते। उन से जो भी मिलने आता वह गंगू को देख तथा फिर उस की आयु के बारे में जान कर विस्मित हुए बिना न रहता। ....................क्रमश: ............................कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 6 August 2017

सागर की कहानी (भाग -3)

सागर की कहानी (भाग -3)
4 अप्रैल 1933 को रामनबमी के पावन दिन मट्टन ( मार्तण्ड़) कश्मीर में पैदा हुए श्री ओ पी शर्मा ‘सारथी’ जी के बारे में किसी पत्रिका में छपा हुआ है कि वे तबले और तानपुरे की गोद में पैदा हुए थे। श्री सारथी जी अक्सर कहा करते-”संगीत की शिक्षा तो मुझे जन्म में जन्मघुटी मिली थी“। वे बताया करते कि जब वे हारमोनियम के पीछे बैठे हुए दिखाई भी नहीं देते थे तभी से उन्होंने हारमोनियम पर संगत करना आरम्भ कर दी थी। अपने पिता पंड़ित मनसा राम (प्रख्यात संगीतकार एवं गायक) जी से उनहोंने संगीत की आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की। 10 वर्ष की छोटी सी आयु में वे कई राग एवं रागनियाँ गा बजा लेते थे तथा उन्हें तुलसी, मीरा, सूरदास, कबीर इत्यादि महान भक्तों के कई भजन कण्ठस्थ हो गए थे।
वे बताया करते कि घर का वातावरण इतना सुखद एवं संगीतमय था कि बाहर की कोई भी घटना इन के परिवार की संगीतमयता को नष्ट न कर पाती। उन की माता पूजनीय रामरक्खी जी बहुत ही धार्मिक विचारों की महिला थी जब कि पिता निरन्तर उपनिषदों के शलोक गा कर उन्हें कण्ठस्थ करवाया करते।
अपने सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते हैं---- अमीरा कदल पुल पार करने के उपरान्त यदि दस कदम चला जाए तो हरि सिँह हाई सट्रीट दाहिनी ओर है तथा एक छोटे बाज़ार की नुक्कर पर पंड़ित दयाराम दाने वाले की दुकान है और उस के सामने पंड़ित भीमसेन हलबाई की दुकान। इन दोनों दुकानों के बीच एक छोटी सड़क मुहल्ला सराएवाले की ओर जाती है। इस चौगान के एक तरफ श्री हरिराम एवं श्री वलदेव प्रकाश का मकान है दूसरी ओर पंजाबी धर्मशाला है। धर्मशाला के पीछे पंजाबी मुहल्ला पड़ता है, जिस में कृष्ण दास जी, पंड़ित भीमसेन, हांडा फडियेवाला तथा पंड़ित मनसा राम का मकान है। इस समय पंड़ित मनसा राम जी हारमोनियम ले कर बैठे हैं। शायद श्याम कल्याण की कोई बंदिश गा रहे हैं। तबला भीमसेन जी बजा रहे हैं। एक सात आठ वर्श का बालक गाने में पंड़ित जी का साथ दे रहा है। इस बालक का नाम ओमी है। इसे न तो राग की पहचान है और न ही यह बंदिश के बारे में जानता है। पर इस छोटी सी उम्र में भी यह 10-12 रागों की बंदिशॉ को तीन ताल, एक ताल, झपताल और रुपक आदि तालों में गा लेता है। जिस समय वह गाता है तो पंड़ित मनसा राम जी उस के साथ तबला बजाते हैं। यदि वह चूक जाता है तो उसे घड़ी के सामने बैठ कर घंटे भर के लिए उस ताल का रियाज़ ताली दे-दे कर करना पड़ता है। पंड़ित जी की इच्छा है कि ओमी बहुत बड़ा संगीतकार बने। वह ओमी को दो बातें समझाते हैं -बेटा बेसुरा तो चल जाता है पर बेताले की बहुत दुर्गति होती है। दूसरी बात यह कि जो व्यक्ति तबला जानता है वह बहुत बड़ा गायक बन सकता है।
श्री सारथी जी के कथनानुसार - ताल गायन और जीवन दोनों का मूल है। ताल को भली प्रकार जान लेना समय को और उस की समस्त शक्तियों को जान लेना है। वे जब भी लय ताल और संगीत की बात करते तो यही समझाते कि मानव शरीर और पृथ्वी दोनों लयवद्ध हैं। जो लोग संगीत में, चित्रकला में तथा काव्याधि में बीमार हैं वे वास्तव में लय-ताल में बीमार हैं तथा उन का सुधार लय-ताल ही से हो सकता है। वे कहा करते सात रंगों की भान्ति सात ही अलंकार हैं। सातों का अपना-अपना स्वभाव एवं महत्व है।
क्रमशः(Kapil Anirudh)

सागर की कहानी (भाग -2)

गुरुदेव सारथी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित जीवनी ‘सागर की कहानी’ पर इन दिनों कार्य कर रहा हूँ, उसी को धारावाहिक रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सागर की कहानी (भाग -2)
हर पल को अपनी सृजनात्मक्ता द्वारा अमृतपान करबाने वाले सारथी साहब भीड़ में से भी अकेले पहचाने जा सकते थे। दूर से देखने पर भी उन का लम्बा कद, पतली आकृति और हिलती हुई लम्बी बाँहें पहचानी जाती। थोड़ा और समीप आने पर लम्बे कुर्ते और पैंट का अद्भुत मेल तथा पाँवों की रक्षा करती प्लास्टिक की सफेद रंग की चप्प्ले उन की सादगी को ही प्रदर्शित करती। हाँ उन का जादुई थैला तो रहता ही जिसे उन्होंने बायें कन्धे पर लटकाया होता। बैसे इस जादुई झोले में रस, बिस्कुट, आयुर्वेदिक दबाईयाँ, कैमरा, रंग ,ब्रश, Magnifying Glass और पता नहीं जीवन के कौन से रंग बन्द होते। सिर हल्का सा धरती की ओर झुका कर तथा अपने लम्बे हाथों की लम्बी उंगलियाँ धीरे-धीरे हिलाते हुए चलते आते। रास्ते में चलते हुए पता नहीं कब उन के थैले में से कैमरा बाहर आ जाता और बाहरी खूबसूरत रंगों को अपने भीतर कै़द कर लेता। कब कोई उपहार थैले में से निकाल कर किसी बच्चे के हाथ में थमा दिया जाता, पता ही न चलता। जैसे सब अपने आप हो रहा हो। और फिर किसी परिचित-अपरिचित मरीज़ का ईलाज भी किसी चौराहे में ही शुरू हो जाता और जादुई थैले में से कोई टिकिया या पुड़िया बाहर निकल आती और डाक्टर साहब ईलाज कर के अपनी मस्त चाल में आगे बढ़ जाते। किसी नुक्कर में ज़ख्मी कुत्तों को देखते तो उन का उपचार भी बहीं आरम्भ हो जाता। मुझे याद आ रहा है उन दिनों हम क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला के क्वाटरस में रहा करते थे। पिता जी कार्यशाला में कार्यरत्त थे इसलिये वरिष्ठ कला अधिकारी के पद पर कार्यरत श्री सारथी जी से उन का मिलना झुलना होता रहता। पिता जी के प्रगाढ़ प्रेम के कारण ही श्री सारथी जी ने हमारे घर आना शुरू किया था। वे स्कूटर पर आते थे पर स्कूटर इतनी धीमी गति में तथा लयबद्ध तरीके से चलाते थे की पीछे बैठा व्यक्ति सुई में धागा पिरो सकता था। यह उन के स्कूटर चलाने का ही कमाल होता कि उबड़-खाबड़ रास्ता भी समतल लगने लगता। उन के स्कूटर की डिक्की कुत्तों और बिल्लियों के सामान के लिए सदा आरक्षित रहती। स्कूटर स्टैंड पर लगाने के उपरान्त उन का पहला कार्य कतूरों के लिए रस या ब्रैड में दूध मिला कर परोसना होता था। यह सब वे इतने प्रेम और सलीके से करते की मूक प्राणियों के प्रति उन की संवेदना हैरत में डाल देती। उधर कतूरों को उन के आने की सूचना न जाने कैसे मिल जाती। सारे काले-सफेद, रंग-बिरंगे उन्हें घेर कर कुछ दूरी पर खडे़ हो जाते और ज़ोर-ज़ोर से दुम हिलाने लगते। हर एक के लिए कागज़ के अलग-अलग टुकड़े पर खाद्य सामग्री डाल सारथी जी मंद मंद मुस्कुराते हुए कुछ पल उन्हें हुए देखते रहते। kapil Anirudh