गुरुदेव सारथी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित जीवनी ‘सागर की कहानी’ पर इन दिनों कार्य कर रहा हूँ, उसी को धारावाहिक रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सागर की कहानी (भाग -2)
हर पल को अपनी सृजनात्मक्ता द्वारा अमृतपान करबाने वाले सारथी साहब भीड़ में से भी अकेले पहचाने जा सकते थे। दूर से देखने पर भी उन का लम्बा कद, पतली आकृति और हिलती हुई लम्बी बाँहें पहचानी जाती। थोड़ा और समीप आने पर लम्बे कुर्ते और पैंट का अद्भुत मेल तथा पाँवों की रक्षा करती प्लास्टिक की सफेद रंग की चप्प्ले उन की सादगी को ही प्रदर्शित करती। हाँ उन का जादुई थैला तो रहता ही जिसे उन्होंने बायें कन्धे पर लटकाया होता। बैसे इस जादुई झोले में रस, बिस्कुट, आयुर्वेदिक दबाईयाँ, कैमरा, रंग ,ब्रश, Magnifying Glass और पता नहीं जीवन के कौन से रंग बन्द होते। सिर हल्का सा धरती की ओर झुका कर तथा अपने लम्बे हाथों की लम्बी उंगलियाँ धीरे-धीरे हिलाते हुए चलते आते। रास्ते में चलते हुए पता नहीं कब उन के थैले में से कैमरा बाहर आ जाता और बाहरी खूबसूरत रंगों को अपने भीतर कै़द कर लेता। कब कोई उपहार थैले में से निकाल कर किसी बच्चे के हाथ में थमा दिया जाता, पता ही न चलता। जैसे सब अपने आप हो रहा हो। और फिर किसी परिचित-अपरिचित मरीज़ का ईलाज भी किसी चौराहे में ही शुरू हो जाता और जादुई थैले में से कोई टिकिया या पुड़िया बाहर निकल आती और डाक्टर साहब ईलाज कर के अपनी मस्त चाल में आगे बढ़ जाते। किसी नुक्कर में ज़ख्मी कुत्तों को देखते तो उन का उपचार भी बहीं आरम्भ हो जाता। मुझे याद आ रहा है उन दिनों हम क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला के क्वाटरस में रहा करते थे। पिता जी कार्यशाला में कार्यरत्त थे इसलिये वरिष्ठ कला अधिकारी के पद पर कार्यरत श्री सारथी जी से उन का मिलना झुलना होता रहता। पिता जी के प्रगाढ़ प्रेम के कारण ही श्री सारथी जी ने हमारे घर आना शुरू किया था। वे स्कूटर पर आते थे पर स्कूटर इतनी धीमी गति में तथा लयबद्ध तरीके से चलाते थे की पीछे बैठा व्यक्ति सुई में धागा पिरो सकता था। यह उन के स्कूटर चलाने का ही कमाल होता कि उबड़-खाबड़ रास्ता भी समतल लगने लगता। उन के स्कूटर की डिक्की कुत्तों और बिल्लियों के सामान के लिए सदा आरक्षित रहती। स्कूटर स्टैंड पर लगाने के उपरान्त उन का पहला कार्य कतूरों के लिए रस या ब्रैड में दूध मिला कर परोसना होता था। यह सब वे इतने प्रेम और सलीके से करते की मूक प्राणियों के प्रति उन की संवेदना हैरत में डाल देती। उधर कतूरों को उन के आने की सूचना न जाने कैसे मिल जाती। सारे काले-सफेद, रंग-बिरंगे उन्हें घेर कर कुछ दूरी पर खडे़ हो जाते और ज़ोर-ज़ोर से दुम हिलाने लगते। हर एक के लिए कागज़ के अलग-अलग टुकड़े पर खाद्य सामग्री डाल सारथी जी मंद मंद मुस्कुराते हुए कुछ पल उन्हें हुए देखते रहते। kapil Anirudh
सागर की कहानी (भाग -2)
हर पल को अपनी सृजनात्मक्ता द्वारा अमृतपान करबाने वाले सारथी साहब भीड़ में से भी अकेले पहचाने जा सकते थे। दूर से देखने पर भी उन का लम्बा कद, पतली आकृति और हिलती हुई लम्बी बाँहें पहचानी जाती। थोड़ा और समीप आने पर लम्बे कुर्ते और पैंट का अद्भुत मेल तथा पाँवों की रक्षा करती प्लास्टिक की सफेद रंग की चप्प्ले उन की सादगी को ही प्रदर्शित करती। हाँ उन का जादुई थैला तो रहता ही जिसे उन्होंने बायें कन्धे पर लटकाया होता। बैसे इस जादुई झोले में रस, बिस्कुट, आयुर्वेदिक दबाईयाँ, कैमरा, रंग ,ब्रश, Magnifying Glass और पता नहीं जीवन के कौन से रंग बन्द होते। सिर हल्का सा धरती की ओर झुका कर तथा अपने लम्बे हाथों की लम्बी उंगलियाँ धीरे-धीरे हिलाते हुए चलते आते। रास्ते में चलते हुए पता नहीं कब उन के थैले में से कैमरा बाहर आ जाता और बाहरी खूबसूरत रंगों को अपने भीतर कै़द कर लेता। कब कोई उपहार थैले में से निकाल कर किसी बच्चे के हाथ में थमा दिया जाता, पता ही न चलता। जैसे सब अपने आप हो रहा हो। और फिर किसी परिचित-अपरिचित मरीज़ का ईलाज भी किसी चौराहे में ही शुरू हो जाता और जादुई थैले में से कोई टिकिया या पुड़िया बाहर निकल आती और डाक्टर साहब ईलाज कर के अपनी मस्त चाल में आगे बढ़ जाते। किसी नुक्कर में ज़ख्मी कुत्तों को देखते तो उन का उपचार भी बहीं आरम्भ हो जाता। मुझे याद आ रहा है उन दिनों हम क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला के क्वाटरस में रहा करते थे। पिता जी कार्यशाला में कार्यरत्त थे इसलिये वरिष्ठ कला अधिकारी के पद पर कार्यरत श्री सारथी जी से उन का मिलना झुलना होता रहता। पिता जी के प्रगाढ़ प्रेम के कारण ही श्री सारथी जी ने हमारे घर आना शुरू किया था। वे स्कूटर पर आते थे पर स्कूटर इतनी धीमी गति में तथा लयबद्ध तरीके से चलाते थे की पीछे बैठा व्यक्ति सुई में धागा पिरो सकता था। यह उन के स्कूटर चलाने का ही कमाल होता कि उबड़-खाबड़ रास्ता भी समतल लगने लगता। उन के स्कूटर की डिक्की कुत्तों और बिल्लियों के सामान के लिए सदा आरक्षित रहती। स्कूटर स्टैंड पर लगाने के उपरान्त उन का पहला कार्य कतूरों के लिए रस या ब्रैड में दूध मिला कर परोसना होता था। यह सब वे इतने प्रेम और सलीके से करते की मूक प्राणियों के प्रति उन की संवेदना हैरत में डाल देती। उधर कतूरों को उन के आने की सूचना न जाने कैसे मिल जाती। सारे काले-सफेद, रंग-बिरंगे उन्हें घेर कर कुछ दूरी पर खडे़ हो जाते और ज़ोर-ज़ोर से दुम हिलाने लगते। हर एक के लिए कागज़ के अलग-अलग टुकड़े पर खाद्य सामग्री डाल सारथी जी मंद मंद मुस्कुराते हुए कुछ पल उन्हें हुए देखते रहते। kapil Anirudh
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