सागर की कहानी (भाग -5)
बहुत से लोगों को सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा श्री सारथी जी के निवासस्थान पर मोती (श्वान का नाम) और गोगी ( बिल्ली का नाम) का आपसी प्रेम देखने का। बैसे उन के सानिध्य में जो भी श्वान आता वे उसे मोती कह कर ही पुचकारते तथा हर बिल्ली को वे गोगी की ही संज्ञा देते। परन्तु यह मोती और गोगी तो विशेष ही थे। कुत्ते और बिल्ली की शत्रुता से कौन अपरिचित होगा परन्तु इन दोनों स्वाभविक शत्रुयों के आपसी प्रेम को देखने का सौभाग्य तो बहुत ही कम लोगों को प्राप्त हुआ होगा। गोगी अक्सर मोती की पीठ को ही आराम करने का आदर्श स्थान समझती। उधर मोती गोगी के खाना खाने के उपरान्त ही कुछ खाता। वह गोगी का मित्र कम उस का अभिभावक अधिक था। गोगी की हर छाटी-बड़ी ज़रुरत का ख्याल रखना मोती अपना दायित्व समझता। गोगी श्री सारथी जी की अधिक लाड़ली थी इसलिये जब भी कोई व्यक्ति उन से मिलने आता गोगी उस की गोद में बैठ कर यह बताने का प्रयत्न करती कि मैं इस घर की लाड़ली बेटी हूँ मुझे नज़र-अन्दाज़ करने की कोशिश मत करना। हाँ वह अपने विश्राम हेतु वह उसी व्यक्ति की गोद का चुनाव करती जो बहुत शांत \ होता। चंचल, एवं अधीर व्यक्तियों से वह सदैव दूर रहती।
कभी बिल्ली का छोटा बच्चा बीमार हो जाता तो उस के लिए इतने चिन्तित हो जाते मानो यही उस का सर्वस्व हो। फिर उस नन्हें बच्चे को अपनी गोद में बिठा कर तब तक सहलाते रहते और उसे विभिन्न माध्यमों के द्वारा औषधी मिला दूध पिलाते रहते जब तक वे उस के बारे में निश्चिंत नहीं हो जाते। एक दिन कार्यालय से छुट्टी करने के उपरान्त उनके पास पहुँचता हूँ तो देखते ही कहते हैं- भाई कपिल यह छोटा गुग्गू (उन के द्वारा दिया गया प्यारा सा नाम) बीमार हो गया है। कुछ ले नहीं रहा। सोच रहा हूँ इसे दूध कैसे पिलाया जाए। फिर मेरी ओर देख कर प्रेम उड़ेलते हुए कहते हैं- भाई जल्दी बतायों क्या किया जाए। मैं कहता हूँ गुरूदेव आँखों की दवा की कोई शीशी मिल जाए तो इसे............ मेरी बात पूरी होने से पहले ही बेहद उत्साहित हो कर कहते हैं- तो भई जल्दी से उस शीशी का प्रबन्ध करो। मैं किसी प्रकार से वह शीशी ले आता हूँ। श्री सारथी जी दूध में दबाई मिला मेरा ही इन्ज़ार कर रहे होते हैं। देखते ही कहते हैं अब एक ओर कृपा कर दो। इसे यह दूध पिला दो। मैं गुग्गू को अपनी गोदी में बिठा दूध पिलाना आरम्भ करता हूँ। कुछ देर उपरान्त गुग्गू मेरी ही गोदी में सो जाती है श्री सारथी जी शांत हो आँखें मूंद लेते हैं। मूक प्राणियों के प्रति उन की संवेदना मुझे हैरत में तो डालती ही है आनन्दित भी करती है।
श्री सारथी जी के बारे में मैं बहुत बार दुविधा में गिर गया हूँ कि इस प्रकार का निर्लिप्त सन्त इतना संवेदनशील कैसे है। एक दिन उन से पूछने का साहस कर ही लिया। वे कहने लगे कि अपने प्रति एक शून्य का भाव है और सारे संसार के प्रति समर्पण का भाव है। यह उन की आयु भर की साधना है परन्तु आश्चर्य है उन के साथ वर्षों तक रहने वाले उन की अत्याधिक महत्वपूर्ण बातों को नहीं जानते। वे कहते- जड़, अर्द्धचेतन और अचेतन सब के साथ समव्यवहार और व्यष्टि में समष्टि के तथा समष्टि में व्यष्टि के दर्षन व्यक्ति को उच्च स्थान पर स्थापित कर देते है। उन के कथनानुसार व्यक्ति के अर्न्तमुखी संसार तथा बर्हिमुखी संसार का विलय जब श्रद्धा तथा निष्ठा में हो जाता है तब जीवन में किसी शंका , संदेह और अभाव की गुंजायश नहीं रहती।
श्री सारथी जी अक्सर कहा करते- यदि तुम्हारे भीतर विनम्रता और संवेदना की नदियाँ प्रबाहित रहें तो तुम्हारी ज्ञानेन्द्रिया-कर्मेन्द्रिया तथा मन की तीनों अवस्थायें जो तुम्हारे अस्तितव के लिए केन्द्रीय उर्जा का कार्य करते हैं हरी-भरी रहेंगी और तुम में न कभी दरार पड़ेगी और न ही टूटने की नौबत आयेगी। इसलिये वे कहा करते अपना संगम बहां रखो जहां मन और मस्तिष्क दोनों स्निग्ध रहें। सतसंग में रहो और अपने भीतर के जल और नमीं देानों को बचाए रखो।
वे कहते भक्ति में भगवान के प्रेम में आँसुओं की, तड़पते मन-आत्मा के जल की काफी बड़ी कीमत है। और यदि यह आँसू अपने भीतर हों तो इन से गिरिधर गोपाल और नागर को भी रिझाया जा सकता है। और फिर भक्ति में तो स्वयं को सागर ही में अश्रुयों के सागर ही में भिगोये रखने से कम से काम नहीं चल सकता। शायद इसीलिए शैदा ने कहा है
ये इश्क़ नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजै
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।…….क्रमशः
Kapil Anirudh
बहुत से लोगों को सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा श्री सारथी जी के निवासस्थान पर मोती (श्वान का नाम) और गोगी ( बिल्ली का नाम) का आपसी प्रेम देखने का। बैसे उन के सानिध्य में जो भी श्वान आता वे उसे मोती कह कर ही पुचकारते तथा हर बिल्ली को वे गोगी की ही संज्ञा देते। परन्तु यह मोती और गोगी तो विशेष ही थे। कुत्ते और बिल्ली की शत्रुता से कौन अपरिचित होगा परन्तु इन दोनों स्वाभविक शत्रुयों के आपसी प्रेम को देखने का सौभाग्य तो बहुत ही कम लोगों को प्राप्त हुआ होगा। गोगी अक्सर मोती की पीठ को ही आराम करने का आदर्श स्थान समझती। उधर मोती गोगी के खाना खाने के उपरान्त ही कुछ खाता। वह गोगी का मित्र कम उस का अभिभावक अधिक था। गोगी की हर छाटी-बड़ी ज़रुरत का ख्याल रखना मोती अपना दायित्व समझता। गोगी श्री सारथी जी की अधिक लाड़ली थी इसलिये जब भी कोई व्यक्ति उन से मिलने आता गोगी उस की गोद में बैठ कर यह बताने का प्रयत्न करती कि मैं इस घर की लाड़ली बेटी हूँ मुझे नज़र-अन्दाज़ करने की कोशिश मत करना। हाँ वह अपने विश्राम हेतु वह उसी व्यक्ति की गोद का चुनाव करती जो बहुत शांत \ होता। चंचल, एवं अधीर व्यक्तियों से वह सदैव दूर रहती।
कभी बिल्ली का छोटा बच्चा बीमार हो जाता तो उस के लिए इतने चिन्तित हो जाते मानो यही उस का सर्वस्व हो। फिर उस नन्हें बच्चे को अपनी गोद में बिठा कर तब तक सहलाते रहते और उसे विभिन्न माध्यमों के द्वारा औषधी मिला दूध पिलाते रहते जब तक वे उस के बारे में निश्चिंत नहीं हो जाते। एक दिन कार्यालय से छुट्टी करने के उपरान्त उनके पास पहुँचता हूँ तो देखते ही कहते हैं- भाई कपिल यह छोटा गुग्गू (उन के द्वारा दिया गया प्यारा सा नाम) बीमार हो गया है। कुछ ले नहीं रहा। सोच रहा हूँ इसे दूध कैसे पिलाया जाए। फिर मेरी ओर देख कर प्रेम उड़ेलते हुए कहते हैं- भाई जल्दी बतायों क्या किया जाए। मैं कहता हूँ गुरूदेव आँखों की दवा की कोई शीशी मिल जाए तो इसे............ मेरी बात पूरी होने से पहले ही बेहद उत्साहित हो कर कहते हैं- तो भई जल्दी से उस शीशी का प्रबन्ध करो। मैं किसी प्रकार से वह शीशी ले आता हूँ। श्री सारथी जी दूध में दबाई मिला मेरा ही इन्ज़ार कर रहे होते हैं। देखते ही कहते हैं अब एक ओर कृपा कर दो। इसे यह दूध पिला दो। मैं गुग्गू को अपनी गोदी में बिठा दूध पिलाना आरम्भ करता हूँ। कुछ देर उपरान्त गुग्गू मेरी ही गोदी में सो जाती है श्री सारथी जी शांत हो आँखें मूंद लेते हैं। मूक प्राणियों के प्रति उन की संवेदना मुझे हैरत में तो डालती ही है आनन्दित भी करती है।
श्री सारथी जी के बारे में मैं बहुत बार दुविधा में गिर गया हूँ कि इस प्रकार का निर्लिप्त सन्त इतना संवेदनशील कैसे है। एक दिन उन से पूछने का साहस कर ही लिया। वे कहने लगे कि अपने प्रति एक शून्य का भाव है और सारे संसार के प्रति समर्पण का भाव है। यह उन की आयु भर की साधना है परन्तु आश्चर्य है उन के साथ वर्षों तक रहने वाले उन की अत्याधिक महत्वपूर्ण बातों को नहीं जानते। वे कहते- जड़, अर्द्धचेतन और अचेतन सब के साथ समव्यवहार और व्यष्टि में समष्टि के तथा समष्टि में व्यष्टि के दर्षन व्यक्ति को उच्च स्थान पर स्थापित कर देते है। उन के कथनानुसार व्यक्ति के अर्न्तमुखी संसार तथा बर्हिमुखी संसार का विलय जब श्रद्धा तथा निष्ठा में हो जाता है तब जीवन में किसी शंका , संदेह और अभाव की गुंजायश नहीं रहती।
श्री सारथी जी अक्सर कहा करते- यदि तुम्हारे भीतर विनम्रता और संवेदना की नदियाँ प्रबाहित रहें तो तुम्हारी ज्ञानेन्द्रिया-कर्मेन्द्रिया तथा मन की तीनों अवस्थायें जो तुम्हारे अस्तितव के लिए केन्द्रीय उर्जा का कार्य करते हैं हरी-भरी रहेंगी और तुम में न कभी दरार पड़ेगी और न ही टूटने की नौबत आयेगी। इसलिये वे कहा करते अपना संगम बहां रखो जहां मन और मस्तिष्क दोनों स्निग्ध रहें। सतसंग में रहो और अपने भीतर के जल और नमीं देानों को बचाए रखो।
वे कहते भक्ति में भगवान के प्रेम में आँसुओं की, तड़पते मन-आत्मा के जल की काफी बड़ी कीमत है। और यदि यह आँसू अपने भीतर हों तो इन से गिरिधर गोपाल और नागर को भी रिझाया जा सकता है। और फिर भक्ति में तो स्वयं को सागर ही में अश्रुयों के सागर ही में भिगोये रखने से कम से काम नहीं चल सकता। शायद इसीलिए शैदा ने कहा है
ये इश्क़ नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजै
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।…….क्रमशः
Kapil Anirudh
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