सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Sunday, 27 August 2017

सागर की कहानी(13)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी(13)
सफरनामा के द्वारा श्री सारथी जी की जीवन यात्रा आगे बढ़ती है- संगीत और रंगों में अधिक रुचि के कारण स्कूली पढाई में मैं कमज़ोर हो गया। दसबीं में असफल रहा। मेरे वारंट निकाले गए। मुझे निकम्मा जान कर घर से निकालने की योजना बनने लगी। भय के कारण मैं और वेदपाल दीप घर से भाग गए। पर झट ही पकड़े भी गए। दो-तीन वर्ष ऐसे अंधेरे में व्यतीत किए कि मैं अंधा सा हो गया। कभी-कभार ड्राइंग या स्कैचिंग कर लेता। घर के कीर्तन समाप्त होने लगे। गाने के लिए केवल विद्यालय (दुर्गा संगीत अकैडमी) के हफ्ताबर कार्यक्रम ही रह गए। घर में ताई को माता तथा माता को चाची कहते थे। चाची दुखी थी, पर मुझे जेब खर्च के लिए कुछ न कुछ निकाल कर दे देती। मुझ से अपना दुखड़ा भी बाँट लिया करती।
महाराज गंज में चार दुकाने थी। कोल्हु था। 1939 में जुलूस निकला। कश्मीर छोड़ों के नारे लगाये जा रहे थे। जानी नुकसान तो न हुआ, परन्तु घर कोल्हु, दुकाने सब भस्म हो गईं। सतपाल बोहरा के घर में रहते थे। पिता जी कर्ज के बोझ तले दब गए। जम्मू का घर-कोठू बेच कर ऋण मुक्त हुए। वे स्वयं लंडे भाषा जानते थे। सरकार को लंडे का जानकार चाहिए था। नौकरी मिल गई। चूल्हा जलने लगा। 
1947 में देश स्वतन्त्र हुआ परन्तु स्वतन्त्रता का हर्ष देश विभाजन की त्रासदी के नीचे दब गया। हिन्दु-मुस्लिम दंगों से धरती लाल हो गई। इतिहास का सब से वीभत्स नरसंहार हुआ। जम्मू-कश्मीर ने विभाजन की त्रासदी को सब से अधिक झेला। पाकीस्तान से आने वाले शरणार्थियों को स्कूलों, कालेजों एवं धर्मशालाओं में ठहराया गया। सारथी जी उस समय दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। उन की पढ़ाई इस खून खराबे की भेंट चढ़ गई। इस उथल-पुथल में वे दसवीं की परीक्षा न दे सके। पढ़ाई का सिलसिला ऐसा टूटा कि इस के उपरान्त वे किसी स्कूल में दाखिला न ले सके।
अतीत के संस्मरणों को स्मरण करते हुए तथा बीते कल की सादगी, सरलता एवं मानवीय मूल्यों को अपनी लेखनी द्वारा सजीवता प्रदान करते हुए ललित निबन्ध समय चक्र में वे लिखते हैं- प्रातः तीन बजे माता श्री उठती थी। लालटेन का शीशा साफ कर, जला कर, तवी नदी की ओर निकल जाती। साथ में बहुत सारी प्रौढ़ और वृद्धायें। सभी की सभी सफेद मलमल की धोतियों में लिपटी । बीच में शायद कोई बाल-विधवा भी होती थी। जाते-जाते एक छोटी सी तांबे की लुटिया और रास्ते में बैठे हनुमान जी के लिए दो रोटियाँ भी। पौ फटने से पहले घर आ जाती थी। और फिर हाँ, याद आया जहां कैक्टस लगे हैं, वहाँ तुलसी (ocitum sanctum) लगी थी। तुलसी को धूप, दीप और पुष्प चढ़ा कर, परिक्रमा ले कर हमें सोते को उठाती थी। उठते ही दूध लाना पड़ता था। दूध चार आने सेर, दही पाँच आने सेर। विशेष ! माँ पुत्र से घूंघट करती थी। यह भी था। मुबारक मन्डी में डयूटी पर खड़े सिपाही नंगे सिर गुज़रने नहीं देते थे। तो हम गरेबान खोल कर, कालर से पकड़ कर कमीज़ ही सिर पर चढ़ा लेते थे। मुबारक मंडी के ठीक बाहर तालाब था। जिस की सीढ़ीयाँ काफी बड़ी थीं। लगभग दो-ढाई फुट ऊँची। बड़े -बड़े पत्थर काट कर लगाये गए थे सीढ़ीयों में। उन पर बैठ कर दो-चार मित्र गप्प करते थे और सहगल, पंकज मलिक, जगमोहन और के सी डे के गाने गाते थे। तालाब और भी थे। सभी हमारे जाने-पहचाने। यहाँ अब रानी पार्क है, वहाँ तालाब था। पानी काफी था। परन्तु याद आता है गन्द और कूडे़ करकट के कारण बदबूदार होता जाता था। एक तालाब गांधी भवन के पश्चिम में, नए सचिवालय के प्रांगण में था। जहां पर आठवीं-नवीं पढते हम ने दारा सिंह, किंग-कांग, रंधावा, टाईगर, जोगिन्द्र सिंह और नकाबपोश की कुश्तियां देखी थीं। वहुत बड़े तालाब की बहुत बड़ी सीढ़ीयाँ थी। हज़ारों लोग बैठ सकते थे और बैठे भी थे। तालाब सूखा हुआ था। भर दिया गया। शायद यह नियति है कि तालाब में पानी न हो तो आदमी मलबा कूड़ा भरने लगता है।
स्कूल से छुट्ठी कर परेड़ में चक्कर चलाने जाते थे। अब किसी बालक को चक्कर चलाते नहीं देखा। वो चक्कर लारी या बस के टायर में से निकालते थे। परेड़ के चारों और ब्रैंकड (Adhatoda Vasica) के पौधे लगे थे। और कभी-कभी जी में आता था तो चक्कर लगाने के लिए रघुनाथ मन्दिर के दक्षिण में स्थित तालाब के किनारों पर चले जाया करते थे। और तालाब के किनारे खड़े हो कर साथ ही बहती, गुमट चैराहे की ओर जाती बीरान सड़क के नीचे, खेतों में लगी, जिन खेतों में लगे गोभी के फूल की लगी क्यारियों को निहारते थे। और अपने मित्रों से उन्हीं खेतों में लगी, जिन खेतों और कयारियों पर अब शहर का बृहत बस अड्डा बन गया है गाजरों और मूलियों को उखाड़ कर खाने के मनसूबे बनाते थे। इसी संदर्भ में याद आया, स्कूल से चोरी निकल कर नंगे पाँव हैड पर (रणबीर नहर का पुल) चले जाते थे, टांगा रघुनाथ मंदिर के आगे से निकलकर नहर पर पहुँचने के चार आने लिया करता था। और जो लड़का टांगे पर जाता था वह वकील का, जज का या फिर अन्दर ढयौढी में (मण्डी के भीतर) काम करने वाले का पुत्र होता था।
मुबारक मण्डी की घड़ी ही सब का बाँधे हुए थी। अब उस घड़ी को तबाह कर के उसे पुराने फर्नीचर का स्टोर रूम बना दिया गया है। हालांकि ऐसे balance की घड़ी को अजूबे के तौर पर सुरक्षित रखना चाहिए था ।
पुणः अपने बचपन को याद करते हुए वे लिखते हैं- छुट्टी के दिन घर ही से निक्कर पहन कर चलते थे जिस की जेबें फटी हुई न हों। तवी रक्ख ( रक्ख जंगल ही का पर्यायवाची है) में जा कर बेर, गरने, फालसे, अनजील और ककबोड़ चख-चख कर खाना और जेबें भरते जाना। और कभी-कभी किताबों वाला बसता साथ हो तो भर ले आना और घर-भर को बेर बाँटना। बेर क्या थे, चाहे गला घुटू थे परन्तु होते थे मिश्री से मीठे और नींबू से बड़े-बड़े। अन्जील को खोलते थे। बीच में से कुछ उड़ जाता था(शायद बुड्डी माई या भुम्मनू) और बाकी खा लेते थे। 
गर्मियों की चिलचिलाती दोपहरी को किसी सिर पर टोकरी उठाई बुढ़िया की आवाज़ सलाखों के अन्दर आ घुसती थी। गरने ले लो गरने। मिट्ठे फालसे। गरनो और फालसो का तो वंश ही नाश हो गया है। शायद उन के झाड़ ही काट-सुखा कर फूँक दिये गए हैं। अब उन की जगह स्थान-स्थान पर parthinium ( congress grass) धतूरा (Dhatura metal & Dhatura stramonium) आक (Calatropis) और जड़ी (Lentana Camara) आदि झाड़ियों के नुकीले पत्ते और खड़े कांटे हर तवी जाने वाले को चेताबनी देते हैं। यदि कुछ वर्ष पहले सरकार और वन-विभाग प्रतिबन्ध न लगाते तो पहाड़ियाँ नग्न हो कर रो रही होती और भू-स्खलन के कारण भुतहा दृष्य हो गए होते।
…… क्रमशः…………….. कपिल अनिरुद्ध

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