सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Wednesday, 16 August 2017

सागर की कहानी (8)


सागर की कहानी (8)
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते हैं - लगभग पैंतालीस-छयालीस में पिता जी का तबादला जम्मू हो गया। घर में ताई का दबदबा होने के कारण घर का वातावरण घुटन भरा रहता। मेरा एक पक्का दास्त था देवीदास। मेरा अधिकांश समय उसी के घर बीतता। खाता पीता भी वहीं था। उन के पिता श्री figure (फ़िगर) में बाकमाल थे। सोने का काम करते थे। मुझ से भजन सुनते थे। मुझे ओर देवीदास को जो जेब खर्च मिलता उन के हम लोग चार्ट पेस्टलस ला कर शिव जी, कृष्ण जी, सुरैया और सहगल बनाते रहते।
अन्ततः हम दोनों मास्टर संसारचन्द जी के पास पहुँचे। मैंने उन की शिष्यता ग्रहण की।
श्री सारथी जी अभ्यास पर बहुत ज़ोर देते। अपनी कला साधना में रेखायों के संसार की बात करते हुए वे सुनाते कि किस प्रकार वे रंगीन चाक को लेकर फर्श पर चित्र बनाया और मिटाया करते। मानव आकृतियाँ बार-बार बना कर, अंग-प्रति अंग बार-बार बना कर कैसे मिटाते रहे। और फिर जब काग़ज़ पर उतारने की बारी आई तो उन के कथनानुसार- पच्चीस-तीस पृष्ठों पर रेखाचित्र बनाये बिना वे सोते नहीं थे।
वे कहते-बच्चे को जिस काम से हटाया जाये वह कार्य वह अवश्य करता है। इस के इलावा बच्चा एक ओर काम में माहिर होता है। वह है नकल का काम। जो कुछ करते देखेगा उसे ज़रूर करेगा। कोई करे न करे मैंने शायद यह ज़रूर किया है। अपने पिताश्री को हारमोनियम बजाते देखा मैंने बजाया। उन्हें गाते देखा मैंने राग गाए। अपने दोस्तों-यारों को चोरी करते देखा, मैंने भी चोरी की। पिता जी की जेब से पैसे निकालता रहा। दोस्त सिगरेट पीते थे, सिनेमा देखते थे, साथ ही कीर्तन के लिए भी जाते थे। मैंने घर से भाग कर सिनेमा देखे, कई कई बार फेल हुआ, साथ ही लगातार कीर्तन में भी जाता रहा। भजन और शास्त्रोक्त बंदिशे गाता रहा। नकल कर मैं उकता गया। पर एक स्थान पर नकल करते हुए बहुत परेशानी हुई। वह थी ड्रांइग की नकल। आदमी के शरीर की रेखा की नकल। । Anatomy की नकल। मास्टर संसारचन्द के पास पहुँचा। उन्होंने कुछ ग्रंथ दे दिये। आदमी बनाओ, औरतें बनाओं और landscape बनाओ। बड़े मास्टर रवि वर्मा, रैम्बा्रंड, रैफील, लियानार्डो, टीचियन की तस्बीरों की नकल मंहगी पड़ी। छोटी उम्र में ही भूख, प्यास, नींद, आराम भूल गये। ग़ज़ब का शेअर रट लिया। 
शौक हर रंग रकीबे सर-ओ-सामां निकला
कैस तस्बीर के पदें में भी उरियां निकला
जुनून किसी भी तरह का हो वह पहले सिर (समझ, दानिश) का दुश्मन हो जाता है और फिर सामान का भी दुशमन हो जाता है। जिस प्रकार मजनू का शौक उस के लिए हर किसी का दुशमन बन कर उस के वस्त्र फाड़ नंगा कर गया। 
वे कहते- बड़ा बनना है तो अपना आराम काट कर फैंक दो। जीभ के स्वाद छोड़ दो, गप्पी मित्रों का साथ ऐसे छोड़ दो जैसे विभीशण ने लंकेश को छोड़ दिया। क्योंकि कला साधना भी योग है और एक दिन आता है कि वह भगवान के रास्ते का मील पत्थर बन जाता है। वही एकाग्रता, वही धुन, वही दमन, वही नियन्त्रण जो ईष्ट की साधना के लिए चाहिए, उतना ही अनुपात इन सब का कला साधना के लिए भी वांछित हैं। सीखने के बारे में वे बहुत कुछ बताते -प्रशिक्षण अर्थात सीखने की प्रक्रिया कैसी हो। सीखने के प्रयोजन से जो बात ग्रहण करनी होगी वह मनसा, वाचा, कर्मना ग्रहण करनी होगी। तभी वह स्मृति में स्थान बनायेगी। उदाहरण के तौर पर वे कहते सीखने के लिए जब उन के पिता ने उन्हें विवश किया तो पहले ताल कंठस्थ करबाये। -मैं चलते-फिरते ताल, मात्रायें, उन की अवधी गिनता रहा। उन के कथनानुसार - हर वयस्क, हर युवा जो प्रशिक्षण में है यदि वह सिखलाई में दीवाना हो जाये तो वह तज़ुर्बे में, अभ्यास में जल्दी प्रवेश कर जायेगा। 
यह कभी संभव नहीं हो सकता कि आप जीवन की सुविधा को भी बनाये रक्खो और सीखते भी जाओ। उन के अनुसार - There is no royal road to success. कण्टक मार्ग के द्वारा ही अभ्यास में पहुँचा जा सकता है।
....क्रमशः .....कपिल अनिरुद्ध

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