सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Tuesday, 22 August 2017

सागर की कहानी (12)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (12)
जितने भी शब्द हमें पढ़ने अथवा अनुभव करने को उपलब्ध होते हैं वे सभी किसी बड़ी अथवा छोटी वस्तु, सत्य, तथ्य इत्यादि का संक्षिप्त रुप होते हैं। सागर शब्द अनगिणत चीजो़ं की सामूहिक संज्ञा है। इस शब्द की व्याख्या, इस की खोजबीन, अनुसंधान एवं अन्वेषण लगभग असम्भव सा है परन्तु फिर भी हम सागर में संग्रहित किसी एक वस्तु अथवा किसी एक आयाम को ही सागर की संज्ञा दे कर अपना काम चला लेते हैं।
सागर की ही भान्ति श्री सारथी जी संगीत, चित्रकला, साहित्य, आयुर्वेद, ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म एवं दर्शन इत्यादि माणिक-मोतियों एवं रत्नों की ही सामूहिक संज्ञा थे । श्री सारथी जी सम्पूर्ण विकसित व्यक्तित्व के मालिक हैं यह बात उन की निरन्तर संगति से ही समझ आ सकती थी। उन के लिए मानव के विकास का अर्थ, श्रद्धा का, निष्ठा का, भक्ति का, संगीत का और चित्रकला का विकास है। यह विकास एक छोटे से बिन्दु कला से शुरू हो कर जीवन के भारी समुद्र तक हो सकता है। जीवन जिसे एक भौतिकवादी, पदार्थवादी कुछ ही वर्षों का मानता है उस के लिए श्री सारथी जी कहा करते- मनुष्य दो चार दिनों में ही कई शताब्दियाँ जी सकता है। आदमी को यदि क्षण-क्षण जीना और हर पल जीना है तो उसे पल-पल और क्षण-क्षण जागृत होना पड़ेगा। उन के पास जीवन में कुछ भी प्राप्त करने के लिए एक-एक क्षण को पकड़ना और उस का विश्लेषण अति अनिवार्य है। उस का कारण हर क्षण की सार्थकता है। यदि हर क्षण सार्थक हो तभी मानव उस जीवन के दर्शन कर सकता र्ह जो कि शरीर के भीतर है और जो विशालकाय है।
हम दो-चार लोगों को श्री सारथी जी को निरन्तर सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता। उन के साथ वार्तालाप में सामान्य विषय कभी नहीं होता। ऐसे विषय की चर्चा कभी नहीं होती जो हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य चर्चा है। वे अक्सर कहा करते कि व्यक्ति अपने ही अभ्यास और त्रुट्टियों के कारण अधूरा है। अभावग्रस्त है। उन्हें आश्चर्य होता कि जो ईर्ष्या - द्वेष और क्षमा का भाव अपने प्रति होना चाहिए वह मनुष्य दूसरों के प्रति क्यों रखता है। उन की कामना सदैव यही होती कि आदमी शरीर के प्रति जाग जाये, अन्तःकरण के प्रति जाग जाये, स्थूल और सूक्ष्म का भेद जान सके।
बहुत बार मुझे और मेरे साथियों को लगा है कि श्री सारथी जी एक चलती-फिरती बहुत बड़ी अनुसंधानशाळा हैं जिस में अनेक अनुसंधान होते रहते हैं, विशेष रुप से रंगों, अलंकारों, शब्दों और अभिव्यक्तियों के। जैसे आदमी समुद्र के किनारे बैठा हो और बहुत हल्की-हल्की लहरें उठ रहीं हों तो लगता है सागर बहुत शांत होता है परन्तु जब समुद्र ज्वार भाटा की स्थिति में होता है तो उस की शक्ति बल और भय में परिणित हो जाती है। वैसे ही जब श्री सारथी जी से शब्दों की बात चलती तो उन के अर्थों को ले कर गहरे उतरते हुए, उन के गभार्थ तक पहुँचने में अचम्भित कर देने वाली स्थिति पैदा हो जाती।
वे कहा करते- हमें शरीर अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों से मिला है और यह जानना अत्यावश्यक है कि मैं क्या-क्या कर सकता हूँ। मेरा विश्वास है कि यह जन्म ही विश्लेषण करने, अनुसंधान करने ओर अज्ञात को जानने, अज्ञात को खोलने तथा परम तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। वे निरन्तर कहा करते जो लोग इस बात में विश्वास करते हैं कि सभी कुछ कर्मों ही से होता हे वे पुरुषार्थ और उद्यम और कर्म से पलायनवादी हैं। जब तक स्वयं को देखा-परखा ही न जाये। मैं क्या कर सकता हूँ इस के प्रति निष्ठावान हो कर, दृढ़ निश्चय से अन्वेषण (तहरीक) ही में प्रवेश ही न किया जाये और मात्र भय वश उस पर यकीन कर लिया जाये कि शायद मेरे भाग्य में नहीं, मैं नहीं मानता।
श्री सारथी जी का एक महामंत्र है- चिंतनशील बनो, मनन करो। इस छोटे से शब्द में पूरी की पूरी सफलता निहित है। बहुत बार वे शास्त्रोक्त बात करते- अनाभ्यासे विषम् धर्मम्। अनाभ्यासे विषम शास्त्रम। यह उन की आयु भर की सम्पति है क्योंकि संगीत ज्ञान, कला ज्ञान शास्त्र हैं। जीवन ज्ञान, आत्म ज्ञान शास्त्र है। और जो आदमी इसे धारण करता है यदि अभ्यास नहीं करता तो सभी शास्त्र विपरीत दिशा में कार्य करेंगे। जैसा कि आधुनिक काल में दृष्टिगोचर हो रहा है कि ज्ञान-विज्ञान का बहुत प्रसार है। हर आदमी बहुत कुछ जान गया है तथा जो शिक्षा -दीक्षा देने के अधिकारी हैं तथा जो सुपात्र हें दोनों में अभ्यास की बात कहीं नहीं है।
श्री सारथी जी कहते - जैसे घोड़ा एवं गधा ईंटे ढ़ोता है, यदि ज्ञान को बोझ के तौर पर लिया जाये तो जब तक वह सिर से उतारा न जाये वह आदमी के भीतर दुर्बलता पैदा करता जाता है। उन का मानना है कि ऐसे आदमी की पहचान तत्कालिक संभव हो सकती हे जो अध्यात्म कला और भाषा के बारे में ज्ञान रखता हो अनुभूति नही और न ही उस ने क्रियातमक्ता के द्वारा उस का साक्षत्कार किया हो। आज हमारे समाज में एक विज्ञटन हो रहा है। मानवीय मूल्यों का हनन, श्रद्दा के प्रति अनास्था और आचार्याें की बढ़ती हुई संख्या। वे पूछते- भला यह कैसे संभव हैे कि एक ओर दस करोड़ से ऊपर मार्गदर्शक हो जायें ओर उस के साथ-साथ आदमी के जीवन में अंधकार बढ़ता जाये। और वह ज्ञान को एक बोझ के रूप में ढ़ोता जाये। .......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध

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