सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Saturday, 19 August 2017

सागर की कहानी (10)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (10)
वे कहते- जब मैने 1959 में ग़ज़ल लिखना आरम्भ किया तब तक मैनें बहुत सारी ग़ज़लें मीर तकी मीर, ग़ालिब, ज़ौक, सीमाव और फैज़ की सुन रखी थी। श्री के एल सहगल तो नित्य प्रति रेडियो पर सुने जा सकते थे। वे किसी ताल में भी अत्याधिक आढ़ा गाते थे। और उस आढ़ेपन में अत्याधिक आनन्द की अनुभूति होती थी। ऐसा ही आढ़ा जैसा बिविध तालों में तुलसी, मीरा, सूर, कबीर, दादू, रविदास के भजन तथा रामचरितमानस में विभिन्न तालों में निबद्ध रचनायें। और हमें नित्य प्रति रामचन्द्र कृपालू भज मन और अच्युतं केशवम् का पाठ करना पड़ता था। वे कहते मेरा ध्यान सब से पहले रचना के ताल पर केन्द्रित होता। मैं वाल्यावस्था से जो कुछ गाता आ रहा था अब उस ताल में दुगुन, तिगुन, आढ़ापन और विलम्बत बहुत ही दक्षता से करने लगा था।
श्री सारथी जी कहते-ग़ज़ल लिखते ही मुझे यह अनुभव हुआ कि जो लय-ताल और अरुज़ जानता है वह ग़ज़ल की आत्मा को भी जानता है। ग़ज़ल के बारे में एक अनुभूति है कि वह प्रतीकात्मक भाषा, व्यंजनात्मक भाषा और ज़िन्दगी के अन्तःकरण से बात करने की भाषा है। इसलिए जब तक की ग़ज़ल में दर्शन, मनोविज्ञान तथा रुहानियत का पुट न हो शेअर प्रभावहीन रहता है। मेरे निजि विचार में ग़ज़ल में प्रतीक, रुपक, शब्दालंकार, भावचित्र, शब्दचित्र, बक्रोक्ति आदि यह सारे शास्त्र के गुण हैं और जब तक शेअर में यह गुण नहीं हो वह कथन ही गुणहीन है। ग़ज़ल तो क्या एक शेअर लौटे में दरिया बन्द करने के बराबर होता है अथवा यह अक्षर-अक्षर में संसार का भ्रमण है। उन की ग़ज़ल का एक शेअर है।
तुम समन्दर हो तुम्हारा तो कोई ज़िक्र नहीं
मैंने क़तरे भी समन्दर के बराबर देखे
यह गागर में सागर का उदाहरएा है। पूरा भारतीय वाङमय इस शेअर में समाया नज़र आता हैं।
श्री सारथी जी कहते मुझ में ग़ज़ल लिखने का सलीका इसलिए पैदा हुआ कि जो बात पर्दा दर पर्दा छिपी हुई है और जीवन की अन्तर्धारा से जुड़ी है उस के दोनों रुप गौण और मुखर एक ही बार में पैदा हो जाये।
वे कहते मैं स्वयं अपना ही बड़ा आलोचक हूँ इसलिए मैं ऐसी पंक्ति, ऐसा शेअर सोच भी नहीं सकता जिस का प्रभाव कम हो और जिसे आसानी से समझ लिया जा सके। दूसरे अर्थों में ग़ज़ल श्रोता का मानसिक और बौद्धिक स्तर उठाने की रचना है। उसे अपने स्तर से उठ कर शेअर को समझना पड़ता है और धीरे-धीरे उस का मानसिक स्तर ऊँचा उठ जाता है। वे अक्सर कहा करते-एक गुण जो सभी क्षेत्रों के कलाकारों-फ़नकारो में होना अनिवार्य है वह है स्वयं अपना आलोचक (नक्काद. बतपजपब) होना। यह कभी भी सम्भव नहीं है कि कलाकार पूरा जागृत हो रचना करे, सृजन करे और उसे अपनी रचना के गुणों का, विषेशताओं- संज्ञायों का और त्रुटियों -दोषों का इल्म न हो। मेरा पूरा विश्वास है कि कलाकार के भीतर जितना बड़ा आलोचक होगा उतनी ही उस की रचना विशाल दृष्टिकोण और विशाल परिपेक्ष्य (च्मतेचमबजपअम) की होगी।
अपने बारे में बात करते हुए वे कहते- मेरी ग़ज़ल में तीव्रता, विषमता , अभाव तथा विघटन है। मुझे लगता है मैं इस विधा में व्यक्त इसलिए होता हूँ कि पक्षपात, जात-पात, अपबाद, हिंसाबाद, समर्थनबाद, निष्क्रियता, निकम्पापन इन सब के विरुद्ध साहित्यिक क्रान्ति का श्रीगणेश हो सके। हिम्मत की गाथा सुनाने से अगर कोई स्वयं को न पहचान सके तो उसे कोई षड्यंत्र से भरी कहानी सुना कर भी जगाया जा सकता है। यह ठीक है कि ग़ज़ल का असर देर से होता है परन्तु यह देर से होने वाला असर बहुत गहरा होता है।
......क्रमशः .......कपिल अनिरुद्ध

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