सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Sunday, 20 August 2017

सागर की कहानी(11)

सागर की कहानी(11)
…..सारथी जी कहा करते लय-ताल का अच्छा जानकार ही ग़ज़ल का धनी हो सकता है। इसीलिए ग़ज़ल आज भी गुरूकुल से जुड़ी है। वे कहते मैं जानता हूँ लय-ताल में बंधी रचना किसी न किसी दिन कोई छोटा बड़ा गायक ज़रुर गायेगा। ग़ज़ल गेय है। और खेद यह है कि मेरे आसपास के कुछ लोग गद्य को ग़ज़ल कह कर आश्वस्त हो रहे हैं। और ग़ज़ल के रंग रुप पहचानने वालों को दृष्टिविगत कर रहे हैं।
श्री सारथी जी कहा करते संगीत में तबला एक ऐसा बाद्य है जिस का अभ्यास मानसिक एवं शारीरिक दोनों स्तरों पर वादक न करे तो वह पिछड़ जाएगा। एक दिन अभ्यास न करना कलाकार को सात दिन पीछे धकेल देगा। तबला और ग़ज़ल दोनों एक जैसा परिश्रम मानसिक, शारीरक बराबर ही माँगते हैं।
उन के अनुसार ग़ज़ल कभी कभी लिखी जाये परन्तु इस का चिन्तन निरन्तर होना चाहिए। ऐसा चिन्तन जैसा भक्त भगवान के चरणों में विलय होने के लिए करता है।
वे अक्सर बिन्दु जी की ग़ज़ल सुनाते
जो उस सांबरे को सदा ढूंढ़ता है।
उसे एक दिन सांबरा ढंूढ़ता है।
जिसे ढूंढ़ने का अमल पड़ चुका हो।
वो इस ढूढ़ने में मजा़ ढूंढ़ता
फिर कहते - मैंने बिन्दु जी को सुना है। उन्होंने नारायण के अवतार घनश्याम के बिरह में तड़पते हुए व्याकुलता, विवलता ओर प्रतीक्षा को बहुत मार्मिक और संवेदनशील ढ़ंग से ग़ज़लों में बांधा है।
सारथी जी की ग़ज़लों में न तो रिवायती प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है और न ही उन्होंने रिवायती शायरी को कोई महत्च ही दिया है। वे कहते- ग़ज़ल की यात्रा नारी के प्रेम, नारी के बिरह से, नारी की बेबफाई से शुरू हुई थी परन्तु नारी का वह रुप मात्र यौवनावस्था है। यह सारे जीवन का रुप नहीं है। इसलिए मेरे विश्वास के अनुसार वह विषय उठाना सख्त गलती है जो जीवन का पूरा रूप प्रस्तुत न कर सके। लिखने को अब भी रिवायती शायरी हो रही है परन्तु यह सब स्थाई नहीं है। वे कहते- प्रकृति के भीतर प्रवेश करना और आदमी के स्वभाव के भीतर प्रवेश करना यह दोनों कठिन कार्य हैं। ग़ज़ल धीरे-धीरे प्रवेश करती है और एक रहस्य को उद्घाटित करती है कि आदमी किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर देखता रह जाता है।
श्री सारथी जी कहते- ग़ज़ल भी शास्त्र की भान्ति है। शेअर में गहनता होती है, प्रतीक होता है, रुपक होते हैं, इबहाम होता है, श्लोक की भान्ति शेअर कूजे में बन्द दरिया की तरह होता है। और हर शब्द अपने सारे अर्थाें को भीतर समेटे अपने यथोचित स्थान पर बैठा होता है और उपनिषद के सूत्र की भान्ति शेअर में उतरना पड़ता है और जीवन के वे मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, भौतिक पहलू उन बहुअर्थी शब्दों में से निकालने पड़ते हैं।
सारथी जी ग़ज़ल अधिक नहीं लिखा करते परन्तु प्रतिदिन की बात में ग़ज़ल का जिक्र कहीं न कहीं अवश्य आ जाता। शास्त्रीय संगीत को सम्पूर्ण ललित कला परिभाषित करते हुए वे कहते - शास्त्रीय संगीत ही इन्द्रधनुष है। संगीत ही रंग है। संगीत ही लय-ताल है। शास्त्रीय संगीत ही आँसू, हसी और दर्द है। सारा जगत संगीतात्मक है और यदि ग़ज़ल शास्त्रीय संगीत जैसा रुप धारण कर ले अर्थात जो प्रभाव एक राग वातावरण पर छोड़ता है यदि ग़ज़ल भी छोड़े तो यह कहने में अतिश्योक्ति न होगी की सारा जगत ही ग़ज़लमय है।
......क्रमशः .......कपिल अनिरुद्ध

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