सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Tuesday, 29 August 2017

सागर की कहानी (14)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (14)
श्री सारथी जी की चाल में भी एक कमाल की लयात्मक्ता होती जो किसी को भी उन की और आकर्षित हुए बिना न रहने देती। चलते हुए कहीं गम्भीर बातचीत और कहीं हंसी के ठहाके गूँज जाते। उन की हसी में भी उन्मुक्तता और आनन्द का ही मिश्रण होता। वैसे उन की इस चाल, इस गति को विश्राम किसी चाय की दुकान पे ही मिलता। चाय वाली दुकान पे भी मित्रों एवं जिज्ञासुओं का घेरा जैसा बन जाता और चाय की चुसकियों के साथ-साथ रंगों, सुरों और शब्दों की गहन बात भी चल निकलती। बैसे हल्की फुलकी बात भी किसी बड़े रहस्य को ही उजागर कर रही होती। कोई गहन बातचीत करते हुए वे दूसरों की स्वीकृति लेना न भूलते। तथा इस तरह किसी बात का विवरण प्रस्तुत करते जैसे वे अपनी हर बात की पुष्टि दूसरों से चाहते हों। उन का यह स्वभाव उन की विनम्रता का परिचायक तो था ही साथ ही वे सुनने वाले को चैतन्य भी रखते।
सारथी जी के सम्बन्ध में साठ के दशक की यादों को संजोते हुए एक संस्मरण में हेमराज चनैनवी लिखते हैं- आने वाले वर्षों में सारथी से मिलना एक दिनचर्या बन गई। कोई दिन ऐसा न होता जब हम मिलते न थे। कभी सारथी जी के घर पर, कभी प्रेम जी (हज्जाम) की दुकान पर, कभी प्रेम टी स्टाल पर तो कभी श्री धनीराम जी की दुकान पर घंटों बैठे रहते और हर विषय पर चर्चायें होतीं।
......... सारथी जी के साथ उठने बैठने का ही परिणाम था कि जम्मू के कई ऐतिहासिक पुरूषों एवं महान व्यक्तियों के समीप बैठने का सुअवसर मिला। शाम सात आठ बजे श्री धनी राम जी की दुकान पर जो लोग इकट्ठे होना शुरू होते उन में सर्वश्री तालिब ऐमनाबादी, दीनू भाई पन्त, मोहनलाल सपोलिया (श्री सपोलिया जी का शंख धुन नाम से चौगान फत्तू में ही प्रींटिंग प्रैस भी था), पंडित शम्भू नाथ जी (पदम श्री प्रो रामनाथ षास्त्री जी के अनुज), मंगोत्रा साहब (प्रो ललित मंगोत्रा के पिता श्री) प्रमुख थे। इस के अतिरिक्त और भी कई महानुभाव संध्याकालीन बैठकों में सम्मिलित रहते और प्रायः रात 10-11 बजे तक साहित्य से ले कर राजनीतिक चर्चायें चलतीं।.............. बैठने के लिए दूसरा महत्वपूर्ण स्थान श्री प्रेम जी (हज्जाम) की दुकान थी। यहाँ गपशप करने बालों में सर्वश्री आविद मुनावरी, रहबर जदीद, अश्विनी मंगोत्रा, कुलदीप जन्द्राहिया, वीरेन्द्र केसर इत्यादि प्रमुख थे। कभी कभार श्री प्रध्युमन सिंह और डा जितेन्द्र उधमपुरी भी आते। यहाँ अधिक्तर चर्चायें कला और साहित्य सम्बन्धी ही होतीं। सब में सारथी के प्रति एक आदर का भाव ही झलकता। श्री वीरेन्द्र केसर ने तो श्री सारथी जी को गुरू धारण किया था और उन से ग़ज़ल के गुर सीखते थे।
सारथी जी के घर पर भी कईं मित्र इकट्ठे होते और सारथी जी से संगीत, साहित्य, सभ्यता और संस्कृति, समाज और धर्म इत्यादि विषयों पर चर्चायें होती।
.........सारथी जी एक लम्बे समय तक मेरे कार्य स्थान पर भी आते रहे। मित्रों का एक छोटा घेरा यहाँ भी बन चुका था। इन में सर्व श्री प्यासा अंजुम, वेद उप्पल वेद, अमर सिंह कूका, राजपाल सिंह मस्ताना, प्रताप सिंह नागी इत्यादि निरन्तर आने बालों में थे। वीरेन्द्र केसर तो रहते ही। स० परशन सिंह शरफ पहले से ही मेरे पास बैठते थे। श्री रमाकान्त दुबे अपने एक संस्मरण में लिखते हैं-डा ओम प्रकाश शर्मा सारथी जी से मेरे सम्बन्ध लगभग पैंतालीस वर्षों से थे। यह सम्बन्ध एक चाय की दुकान से चाय की प्याली से आरम्भ हुए तथा जैसे जैसे उनके साथ बैठने का अवसर मिलता गया यह सम्बन्ध प्रगाढ होते गए। सारथी जी का व्यक्तितव मेरे लिए खुलता चला गया। अपने नाम के ही अनुरूप वे सब के सारथी थे। विभिन्न विषयों पर उनके विचार, विषय की गम्भीरता तथा अथाह गहराई लिए हुए होते। समुद्र की गहराई लिए उनके विचारों की गहइराई को मापना कठिन ही नहीं असम्भव था। धार्मिक, सामाजिक, राजनितिक एवं आध्यात्मिक विषयों पर उन की जानकारी एवं अनुभूतियां अन्तहीन थीं। 
.......क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध

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