सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास।
सागर की कहानी (9)
सागर को प्रेम का प्रतीक माना गया है परन्तु इस प्रेम रुपी सागर में प्रवेश सहज नहीं। कहीं कोई ग़लती से भी सागर की लहरों की गिरफ्त में आ जाये तो यह लहरें व्यक्ति को भीतर ले जाने के स्थान पर बाहर पटक देती हैं, मानो कह रही हों- ‘भीतर प्रवेश की अपने भीतर योग्यता पैदा करो’। जो सागर को मात्र दिल बहलाने का साधन मानते हैं वह बड़े भ्रम में जीते हैं सागर के साथ भला कैसी दिल्लगी। दिल्लगी करने वालों के लिए तो सागर की बूँद भी नहीं। वे तो अपनी स्थूल प्यास को भी जलनिधि के जल से नहीं मिटा पाते। उथले, अधीर एवं भीरु लोगों के लिए सागर में प्रवेश निषेध है। उन्हें सागर के बाहिरी रंग-रुप से ही संतुष्ट होना पड़ता है। सागर में प्रवेश हेतु पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास अनिवार्य है। यही श्रद्धा- विश्वास जब समर्पण में रुपांतरित होते है तो साधक के लिए सागर के प्रवेश द्वार खुलते हैं।
श्री सारथी जी की ऊर्दू ग़ज़ल का यह शेअर उन के भीतर प्रवेश का रास्ता सुझाता है।
वो दिखाई जो नहीं देता वही तो मैं हूँ।
जिस्म सूखा है मगर लफ़ज़ हर इक तर मेरा।
एक अन्य ग़ज़ल का मतला इस प्रकार है
सलीबों पर सलीबे ढ़ो रहा था
मैं ऊँचा और ऊँचा हो रहा था
उन की ग़ज़लों में ऐसे बहुत से अशरार हैं जो उन्हें समझने में हमारी सहायता कर सकते है। तो उन की ग़ज़लों को ही उन के भीतर का प्रवेश द्वार समझा जाये।
श्री सारथी जी का कथन है - हमारे साधना के ढाँचे को काव्य ने संभाल रखा है। काव्य कला है, जिस के मूल कलाकार श्री कृष्ण हैं, वेदव्यास जिस के स्त्रोत हैं। बाल्मिकी तथा तुलसी जिस के कवच हैं। काव्य को मानव समाज में प्राण की संज्ञा दी जाये तो यह अतिशयोक्ति न होगी। काव्य कला होते हुए प्राण है और प्राण होते हुए कला। और सब से बड़ी बात यह कि जिस समाज में काव्यकला को पूर्ण महत्व दिया जाता है वहाँ पर लय-ताल और संगीत का साम्राज्य रहता है। काव्य का सारा ढ़ाँचा लय-ताल पर आधारित है। यह कभी भी संभव नहीं है और यह संभावना भी नहीं की जा सकती कि व्यक्ति संगीत के तीन गुणों लय, ताल ओर स्वर को समझे बिना काव्यकार हो जाये। यदि उसे काव्यकार होना है तो लयकार ओर स्वरकार पहले होना होगा।
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
इस सूत्र से काव्य का प्रादुर्भाव होता है और फिर भारतीय समाज का हर नागरिक, गाँव, गलि-कूचा, यहाँ तक की पशु-पक्षी भी काव्य के साथ, संगीत के साथ जुड़ जाते हैं।
वे कहते - काव्य और संगीत के शाश्वत सम्बन्ध के फलस्वरुप ही तुलसी, मीरा, सूर, कबीर, नानक, दादू, पलटू अभी तक हमारी छातियों में जीवित हैं। ऐसा लगता है कि उन से साक्षात्कार कर रहे हैं। काव्य को जन्म देना संगीत का कार्य है और संगीत को जन्म देना काव्य का काम है। यह एक दूसरे को तत्कालिक जन्म देते हैं। स्वर, शब्द, लय-ताल यह इतने ओत-प्रोत है कि यह इक्ट्ठे ही अवतरति होते हैं बरना नहीं होते।
....क्रमशः .....कपिल अनिरुद्ध
सागर की कहानी (9)
सागर को प्रेम का प्रतीक माना गया है परन्तु इस प्रेम रुपी सागर में प्रवेश सहज नहीं। कहीं कोई ग़लती से भी सागर की लहरों की गिरफ्त में आ जाये तो यह लहरें व्यक्ति को भीतर ले जाने के स्थान पर बाहर पटक देती हैं, मानो कह रही हों- ‘भीतर प्रवेश की अपने भीतर योग्यता पैदा करो’। जो सागर को मात्र दिल बहलाने का साधन मानते हैं वह बड़े भ्रम में जीते हैं सागर के साथ भला कैसी दिल्लगी। दिल्लगी करने वालों के लिए तो सागर की बूँद भी नहीं। वे तो अपनी स्थूल प्यास को भी जलनिधि के जल से नहीं मिटा पाते। उथले, अधीर एवं भीरु लोगों के लिए सागर में प्रवेश निषेध है। उन्हें सागर के बाहिरी रंग-रुप से ही संतुष्ट होना पड़ता है। सागर में प्रवेश हेतु पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास अनिवार्य है। यही श्रद्धा- विश्वास जब समर्पण में रुपांतरित होते है तो साधक के लिए सागर के प्रवेश द्वार खुलते हैं।
श्री सारथी जी की ऊर्दू ग़ज़ल का यह शेअर उन के भीतर प्रवेश का रास्ता सुझाता है।
वो दिखाई जो नहीं देता वही तो मैं हूँ।
जिस्म सूखा है मगर लफ़ज़ हर इक तर मेरा।
एक अन्य ग़ज़ल का मतला इस प्रकार है
सलीबों पर सलीबे ढ़ो रहा था
मैं ऊँचा और ऊँचा हो रहा था
उन की ग़ज़लों में ऐसे बहुत से अशरार हैं जो उन्हें समझने में हमारी सहायता कर सकते है। तो उन की ग़ज़लों को ही उन के भीतर का प्रवेश द्वार समझा जाये।
श्री सारथी जी का कथन है - हमारे साधना के ढाँचे को काव्य ने संभाल रखा है। काव्य कला है, जिस के मूल कलाकार श्री कृष्ण हैं, वेदव्यास जिस के स्त्रोत हैं। बाल्मिकी तथा तुलसी जिस के कवच हैं। काव्य को मानव समाज में प्राण की संज्ञा दी जाये तो यह अतिशयोक्ति न होगी। काव्य कला होते हुए प्राण है और प्राण होते हुए कला। और सब से बड़ी बात यह कि जिस समाज में काव्यकला को पूर्ण महत्व दिया जाता है वहाँ पर लय-ताल और संगीत का साम्राज्य रहता है। काव्य का सारा ढ़ाँचा लय-ताल पर आधारित है। यह कभी भी संभव नहीं है और यह संभावना भी नहीं की जा सकती कि व्यक्ति संगीत के तीन गुणों लय, ताल ओर स्वर को समझे बिना काव्यकार हो जाये। यदि उसे काव्यकार होना है तो लयकार ओर स्वरकार पहले होना होगा।
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
इस सूत्र से काव्य का प्रादुर्भाव होता है और फिर भारतीय समाज का हर नागरिक, गाँव, गलि-कूचा, यहाँ तक की पशु-पक्षी भी काव्य के साथ, संगीत के साथ जुड़ जाते हैं।
वे कहते - काव्य और संगीत के शाश्वत सम्बन्ध के फलस्वरुप ही तुलसी, मीरा, सूर, कबीर, नानक, दादू, पलटू अभी तक हमारी छातियों में जीवित हैं। ऐसा लगता है कि उन से साक्षात्कार कर रहे हैं। काव्य को जन्म देना संगीत का कार्य है और संगीत को जन्म देना काव्य का काम है। यह एक दूसरे को तत्कालिक जन्म देते हैं। स्वर, शब्द, लय-ताल यह इतने ओत-प्रोत है कि यह इक्ट्ठे ही अवतरति होते हैं बरना नहीं होते।
....क्रमशः .....कपिल अनिरुद्ध
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