सारथी कला निकेतन (सकलानि)

Friday, 22 December 2017

सागर की कहानी (40) 
श्री सारथी जी के प्रेम का वृत बहुत बड़ा था। समाज के लगभग हर वर्ग का व्यक्ति उस में समा जाता। उनके सानिध्य का लाभ उठाने वालों में साहित्य, कला एवं साधना जगत के लोग तो रहते ही साथ ही उनके प्रेम वृत में स्कूटर का कोई मिस्त्री, कोई हजाम, चाय वाला, रेहडी वाला भी आ ही जाता। यदि किसी मोची, हजाम अथवा मिस्त्री के पास जाते तो बातों बातों में अपने और उस के बीच का सारा अंतर मिटा देते और फिर उसी स्थान पर उल्लास से भर देने वाली गोष्ठी आरम्भ हो जाती। क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला में अपने कार्यकाल के दौरान सारथी जी के मित्रों और प्रेमियों में वैज्ञानिकों तथा अन्य कारण कर्मचारियों के साथ-साथ चौकीदारों चपरासियों तथा मालियों का भी विशेष स्थान था ।
हमारे कार्यालय में स्वामी विवेकानंद जयंती समारोह में सारथी जी को मुख्य वक्ता के रूप में बुलाया गया। सारथी जी समय पर पहुंच गए परंतु अपने मुख्य उद्बोधन से पूर्व उनकी नजरें किसी को खोज रही थीं । सब के पूछने पर कि आप किसे ढूंढ रहे हैं, सारथी जी कहते हैं -भई यह बोधराज जी कहां है। बोधराज हमारे कार्यालय के चौकीदार का नाम है। सबको यह प्रश्न बड़ा अटपटा सा लगा। मुख्य उद्बोधन का भला चौकीदार से क्या संबंध। खैर, बोधराज जी को खोज निकाला गया, जो एक सजग पहरेदार की तरह समारोह हाल के मुख्य द्वार पर पहरा दे रहा था। उसे सादर भीतर ले जाया गया । बोधराज, सकुचा कर श्रोताओं की कुर्सियों के पीछे जाकर खड़े हो गया । सारथी जी कहने लगे - जब तक बोधराज जी कुर्सी पर विराजमान नहीं होंगे मैं बात आरंभ नहीं करूंगा। फिर क्या था, इधर बोधराज जी को कुर्सी पर बिठाया गया और उधर सारथी जी का उद्बोधन आरंभ हुआ। आज भी बोधराज सारथी जी को स्मरण कर भाव विभोर हो जाता है
हर पल रचनाकारों, जिज्ञासुओं एवं कलाकारों से घिरे रहने वाले सारथी जी कभी मूक प्राणियों के घेरे में भी नज़र आते। कभी जब वे कुत्तों को दूध में भिगो कर रस खिला रहे होते तो लगता उन की संवेदना किनारे तोड़ कर बह रही है। गर्दन धरती की ओर झुका कर चींटियों तक को बचाते हुए चलते। चलते हुए पेड़, पौधों तथा पत्थरों को भी इतने प्रेम से निहारते हुए चलते मानों यह सब उन के अपने हों, सगे हों।
क्षेत्रीय अनंसंधान प्रयोगषाला में उन के कार्यालय की ओर जाते हुए रास्ते के दोनों ओर दो खूबसूरत जल भण्डार थे जिन में कमल खिले रहते। गर्मियों में जब सारथी जी अपने कार्यालय की तरफ जा रहे होते तो उन की सूक्ष्म दृष्टि पानी में डूब रही मधुमक्खियों को भी भाँप लेती। मधुमक्खियों को पानी में फसे रहने देना उन्हें कब मंज़ूर होता। फिर क्या, उनके जादुई थैले में से लम्बा सूत निकल जाता जिसे वे उस भण्डार में इस प्रकार लटका देते जैसे कुँए में डूब रहे व्यक्ति के लिए लोग रस्सियां लटका दिया करते हैं। मधुमक्खियां उस धागे से चिपक जाती और सारथी जी धीरे धीरे धागे को खींच उन्हें बाहर निकाल देते। आने जाने वाले अपने अपने ढंग से इस कार्य पर अपने वक्तव्य देते चले जाते। कोई इसे निर्रथक कार्य जान अपनी टिप्पणी दे मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ जाता तो कोई अन्य सारथी जी की करूणा को आत्मसात करता हुआ गद्गद हो जाता।
........क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध

सागर की कहानी (41)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास। आप के सुझाबों का इंतज़ार रहेगा।
सागर की कहानी (41)
....वैसे सारथी जी की करूणा के घेरे में मूक प्राणियों के साथ साथ निर्जीव बस्तुओं को भी स्थान प्राप्त होता । इस के प्रमाण उनके साहित्य में विपुल मात्रा में मिलते हैं। जादुई यर्थाथवाद (magical realism) की छाप सारथी जी के लगभग सभी उपन्यासों में मिलती है। जादुई यर्थाथवाद सौन्दर्य या साहित्य की ऐसी शैली है जिस में यथार्थ को अधिक रोचक तथा पाठक में अधिक संवेदना जगाने हेतु असली दुनिया के साथ साथ जादुई तत्वों जैसे चमत्कारिकता, कौतुहल, तथा आलोकिकता का मिश्रण रहता है। इसी शिल्प के अर्न्तगत कहीं सारथी जी अपने उपन्यासों में खण्डरों के साथ बातें करते तों कहीं सड़क सा गलि का दर्द उन्हें आहत करता। नंगा रूक्ख, डोगरी उपन्यास में सड़क के दर्द को अभिव्यक्त करते हुए वे लिखते हैं- ‘नगर के बाहर एक बड़ी सड़क थी जो चुप सी लेटी हुई उसांसे भर रही थी। कभी- कभार गूँजती हुई कोई गाड़ी उस की छाती पर से गुजर जाती तो वह फुँकार कर करवट बदल लेती थी। बिन पैरां दे धरती नामक पंजाबी उपन्यास में भी सड़क की व्यथा को अभिव्यक्ति मिली है – ‘सड़क की हंसी में व्यंग्य का मिश्रण था। तुम भी उन में से हो जिन के पास मेरी दास्तान सुनने का समय नहीं। पर यह मैं ही हूँ जो सदियों से तुम्हें अपनी छाती पर ढो रही हूँ। तुम्हें कमरे से बस्ती में और बसती से फिर कमरे में पहुँचाती आ रही हूँ................ अब आदमी ने मेरे दो टुकड़े कर दिये हैं। पुरानी सड़क और नयी सड़क। मेरे एक हिस्से को मनुष्य पुराना कहता है और एक हिस्से को नया। मैं चिल्ला चिल्ला कर हार गई हूँ कि लोगो पुराने के गर्भ में से नये का जन्म होता है।‘
इस शैली के प्रयोग में सारथी जी का ध्येय एक ही रहता कि पाठक अपने प्रति, नगर, राष्ट्र एवं धरा के प्रति जाग जाये। वह अपने निर्माण में, समाज के योगदान को समझे तथा अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग रहे।
सर्व के प्रति सारथी जी के प्रेम एवं करूणा का परिचय उनके द्वारा बनाये रेखाचित्रों में भी मिलता है। उनके द्वारा बनाये रेखाचित्रों में गोबर लीपती महिलाओं, धान काटते किसानों, जूते गाँठते मोची, बाल काटते हजाम, वर्तन बनाते कलाकारों, किसी गुब्बारे वाले, गारड़ी, सिपाही, चौकीदार इत्यादि को भी स्थान मिलता। उनके द्वारा खींचे छाया चित्रों में जहां समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों का शुमार है वहीं, नदियों, पक्षियों, पशुओं, औषधीय पौधों तथा पत्थरों की भी उपस्थिति दर्ज है। किसी पोखर, कब्रिस्तान इत्यादि को चित्रित करते हुए भी वे उस में अजीब सा सौन्दर्य भर देते।
हर क्षण को एक पर्व एवं उत्सव की भान्ति मनाने वाले सारथी जी के लिए म्हत्वहीन, निर्रथक, अपूर्ण कुछ भी नहीं था। एक बार उनके घर के सामने कोई भगवान शिव की टूटी हुई मूर्ति छोड़ गया, जिस की सूचना उन्हे अपने एक शिष्य के द्वारा मिली .... गुरुजी बाहर कोई भगवान शिव की अखंडित मूर्ति छोड़ गया है । जो अकाल है, अखंड है वह खंडित कैसे हो गया। हमें पूर्ण करने वाला, स्वयं खंडित, सारथी जी धीमे स्वर में बोले और मूर्ति को भीतर ले आए । फिर क्या था, रचनाकार रचना प्रक्रिया में, शिल्प संरचना में व्यस्त हो गया और शिष्यगण उस रचनात्मकता का आनंद लेने लगे । प्लास्टर आफ पेरिस का पेस्ट बना कर मूर्ति पर लगा दिया गया और उन की तूलिका रंग भरने में तल्लीन हो गई। कुछ ही मिन्टों में एक अदभुत कलाकृति सब के सामने थी और फिर वह मूर्ति, वह अकाल, अखंड उन की किताबों के मध्य सुशोभित हो अपने भाग्य पर इतराने लगा।
......क्रमशः .................कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 15 November 2017

सागर की कहानी (39)

सागर की कहानी (39) – श्री ‘सारथी’ जी की जीवन यात्रा को शब्द देने का एक प्रयास। …….कृपया अपने सुझावों से अवश्य अवगत करवाएँ।

सारथी जी के लिए प्रत्येक कार्य पूजा अर्चना से कम न होता। वे श्वानों के लिए ब्रैड में दूध मिला कर परोसने का साधारण सा दिखने वाला कार्य जब कर रहे होते तो इतने रमे हुए नज़र आते मानों यह संसार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य हो। रेखाचित्र बनाते हुए, किसी यंत्र की मुरम्मत करते हुए वे इतने निमग्न हो जाते कि लगता यह कार्य ही उन का घर-परिवार तथा संसार र्स्वस्व है। चाय बनाने के साधारण से दिखने वाले कार्य को भी वे सम्पूर्ण मनोयोग से करते और अक्सर कहा करते - बहुत से लोगों को यह भी ज्ञात नहीं कि रोटी का स्वाद कैसा होता है। पानी का स्वाद कैसा है? प्यास की चरमसीमा क्या होती है? वे चाय अथवा पानी का एक-एक घूँट ऐसे पीते मानों अमृतपान कर रहे हों। उन के सानिध्य में ऐसा प्रतीत होता मानों सब कुछ ठहर सा गया हो।
जब कहीं चुनाव करना हो तो साधारणतः लोग सरल विषय का चुनाव करते हैं परंतु इन सब के विपरीत सारथी जी कठिनाई को चुनते। वे मुश्किल पसंद थे और अक्सर कहा करते हैं- ‘मुश्किल पसंद बनो। चुनना हो तो कठिनतम कार्य को चुनो’। उनके इन शब्दों में जीवन संघर्ष का, जीवन को संपूर्ण जीवटता से जीने का मूल मंत्र है । उनके जीवन में प्रशिक्षण का आरंभ ही कठिनतम ताल सीखने से हुआ। फिर विविध तालों पर महारत ने ही उन्हें इल्म-ए-अरूज़ सीखने को प्रेरित किया। संगीत में श्रुतियों की समझ किसी विरले संगीतकार को ही होती है वे श्रुतियों के मर्मज्ञ थे तथा चित्रकला में परिपेक्ष जैसी कठिनतम विधा को भी उन्होंने ना केवल सीखा बल्कि परिपेक्ष को अपनी कृतियों में सम्माहित भी किया। उनकी सृजनात्मकता केवल साहित्य या कलाओं तक ही सीमित ना थी बल्कि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की संपूर्ण कार्यप्रणाली तथा उनके रिपेयर कार्य में भी उन्हें दक्षता हासिल थी। चाहे रेडियो, टीवी की मरम्मत का कार्य हो अथवा हारमोनियम तबला की रिपेयर का काम वे यह सब कार्य पूरे मनोयोग, संपूर्ण तन्मयता तथा रचनाधर्मिता से करते।
अपने एक संस्मरण में औम प्रकाश भूरिया जी लिखते हैं -दिसंबर मास में कोहरा पड़ रहा था। मैंने सारथी जी से कहा रंग भरो प्रतियोगिता में प्रथम द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर आए बच्चों की कार्यशाला लेनी है। कितने बच्चे होंगे - उन्होंने पूछा। मैंने कहा तीस – चालीस। कार्यशाला लगाओ मैं आऊंगा और फिर स्कूटर पर प्रतिदिन प्रातः 9:00 बजे संस्कृत विद्यापीठ शास्त्री नगर में कार्यशाला लेने हेतु पहुंचने लगे। सभी को सिखाया। एक एक बच्चे को अलग- अलग से चित्र बनाकर देते और कार्यशाला के समापन पर सभी बच्चों को रबड़ पेंसिलें बांटी, उन सभी का यादगार फोटो भी खींचा । आज भी उन बच्चों से पूछो तो कहते हैं हमने सारथी गुरुजी से सीखा है।
एक और संस्मरण में भूरिया जी लिखते हैं -विश्व हिंदू परिषद का कार्यक्रम था। सर्व देवमयी गाय का 8 फुट X 8 फुट का चित्र होना चाहिए। रामस्वरूप जी सारथी जी के पास पहुंचे। कथा कही । बोले तुरंत सामान ले आओ। प्रात आ कर चित्र ले जाना। शाम को पलाई पहुंची। हम सफेद कोट कर के चले आए । प्रातः चित्र कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहा था
..... मेरा कहने का तात्पर्य कि जिस किसी कार्य से भी उनके पास गए तुरंत उसका हाल उनके पास था। बीमार हो तो दवाई। गायक हो तो गायों, रिकॉर्डिंग तुरंत शुरू। तबला जानते हो तो लो बजाओ। गाते हो तो भजन सुनाओ। लिखते हो तो लिखो विषय देते-देते। चित्र बनाते हो तो कागज पेंसिल ले लो बनाओ।
उन का निबास स्थान ऐसी यज्ञशाला थी जहाँ हर समय सृजनात्मक्ता की आहुतियाँ दी जाती। उन के कार्य क्षेत्र की रचनात्मक्ता हर साधक को मुग्ध कर देती। बहिृमुखी व्यक्ति तो उन के बाहरी रख-रखाब तथा अस्त-व्यस्त पड़े सामान में ही उलझा रहता। जब कि एक साधक के लिए वह स्थान किसी तपोभूमि, किसी शांतिवन से कम न होता।

Sunday, 12 November 2017

सागर की कहानी (38)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास ।
सागर की कहानी (38) 
हम लोगों ने देखा है श्री सारथी जी को वर्तमान का हर पल सुरक्षित करते हुए। कभी जब तपती धूप में उन के पास पहुँचते तो वे किसी बड़े कन्वास पर अपने रंगों का जादू बिखेर रहे होते। इस तपती दुपहरिया में वे बनैन एवं धोती पहन कर रंगों में ऐसे डूब गये होते कि उन की शांत मुद्रा को देख कर यह अहसास ही न होता कि बाहिर ज़ोरों की गर्मी पड़ रही है। और कभी जब बरसात में उन के पास पहुँचते तो वे राग मेघ-मलहार अथवा वर्षा ऋतु का अन्य कोई राग गा रहे होते। उनका निबास स्थान किसी कार्यशाला सा दिखाई देता। कहीं पेंट का सामान पड़ा रहता तो कहीं framing की लकड़ी। स्थान स्थान पर अनेकों कंवास पड़े रहते । कुछ कंवास भव्य चित्रों के रूप में परिवर्तित हो, फ्रेमिंग के लिए प्रतीक्षारत्त होते तो कुछ अंतिम परिष्करण finishing touches के इंतज़ार में । कहीं कोई भूदृश्य रंगों के लिए आतुर दिखता तो अन्यत्र कहीं चित्र आधा अधूरा ही छोड़ दिया गया होता। कोई कलाकृति धूप में सूख रही होती तो कोई सुखाने के लिए धूप में लाई जा रही होती। कमरे के दूसरे कोने में संगीत का साजो सामान रहता। एक तरफ हारमोनियम, तबला, तानपुरा, microphone इत्यादि रहते तो दूसरी ओर बड़े बड़े लाउडस्पीकर और बिजली की तारों का उलझा हुआ जाल मौजूद होता। पुस्तकें इतनी थीं कि लगता घर की चार दिवारी ईंटों से नहीं ब़ल्कि पुस्तकों से बनाई गई हो। इन सब के बीच कम्बलों की तह पर बैठे सारथी किसी न किसी रचनात्मक कार्य में व्यस्त होते।
सारथी जी के पंजाबी उपन्यास रणखेत्तर में मुख्य पात्र के कमरे का चित्रण सारथी जी के निबास स्थान की याद दिलाता है। वे लिखते हैं- मिट्टी ही मिट्टी। बन रही मूर्तियां। बन चुकी मूर्तियां। रंगदार मूर्तियां। बेरंग मूर्तियां, टूट रही मूर्तियां। मलबे के ढ़ेर पर पड़ी उल्टी, सीधी, टेढी और तिरछी पड़ी मूर्तियां। अधूरे छूटे रंग। किसी के मात्थे पे रंग। किसी के मुंह पर रंग। किसी के हाथों, पैरों पे रंग। किसी के लिबास का रंग आधा अधूरा। किसी के जिस्म का रंग अधूरा। 
सृजन प्रक्रिया के मर्म को समझाते हुए लिबास कहानी में वे लिखते हैं- यही संसार है। यही कुछ सृष्टि में हो रहा है। दिन रात यही काम चल रहा है। निर्माण और विनाश का। विनाश और निर्माण का। मैं इसीलिए मिट्टी के खिलौने बनाता रहता हूँ। क्योंकि बनाते हुए मुझे लगता है कि मैं बन रहा हूँ और टूट रहा हूँ। मैं यही अहसास तुम्हें करबाना चाहता हूँ। इसलिए कह रहा हूँ। बनाओ और तोड़ो। तोड़ो और बनाओ। बनाओ और तोड़ो। फिर बनाओ। फिर बनाओ।
यही सब उन के निवास स्थान पर भी देखने को मिलता । कभी कई दिनों तक बड़े से कंवास पर उन के रंगों का जादू बिखरता और एक भव्य कलाकृति बन कर तैयार हो जाती और फिर किसी दिन अचंभित हुए बिना न रहा जाता जब यह देखता कि उसी कलाकृति पर सफेद रंग आरोपित कर मिटाया जा रहा है । ... पूछना चाहता ऐसा क्यों किया जा रहा है, परंतु जिस तन्मयता और मनोयोग से चित्र बनने लगता, कुछ नहीं में से सब कुछ प्रकट होने लगता, सारी प्रक्रिया ऐसी मंत्र मुग्ध करने वाली होती कि अभी अभी नष्ट हुई कृति का ज़रा सा भी क्षोभ मन में न रहता और मन नव सृजन के आनंद से भर जाता । लगता मैं ही रंगा जा रहा हूँ । रंग मेरे ही अस्तित्व में भरे जा रहे हैं । मैं ही एक चित्र की, भव्य तस्वीर कि संज्ञा ग्रहण कर रहा हूँ॥
केाई पूछे कि भई यह सब क्या है। यह क्या कि दिन रात रचना, क्रियाशीलता , पल पल निर्माण, सृजन । पहले बनाना फिर उसी कृति को नष्ट कर पुण निर्माण कार्य आरम्भ। ऐसा क्यों भला। इस का उत्तर वे रणखेत्तर मंब भी देते हैं-मिट्टी से हट कर मिट्टी का सच कोई नहीं। इस का सच सिर्फ मिट्टी है। फिर भी एक आकर्षण है, एक रूचि है कि बनाता जाता हूँ। यह शायद मिट्टी का मोह है जो छूटता नहीं। कभी कभी विचार आता है कि सब कुछ तोड़-फोड कर मिट्टी को मिट्टी में मिला कर सब कुछ छोड़ दूँ। पर दूसरे ही पल हाथ पैर उबल पड़ते हैं, वेचैन हो जाते हैं। मेरे भीतर से एक शौर सा उठ खड़ा होता है कि बनाओ। जल्दी बनाओ। तू अपने आप के अनर्थ कर रहा है। तू अपराध कर रहा है। जिस आदमी को बनाना आता है, यदि न बनाये तो बड़ा अपराधी है। मैं अपनी ही आवाज़ से ड़र जाता हूँ। अपने ही श्वासों से भय लगने लगता है और मैं झट ही मिट्टी ले कर बैठ जाता हूँ।
........क्रमशः .......कपिल अनिरुद्ध

Saturday, 11 November 2017

सागर की कहानी (37)

श्री भुवनपति शर्मा जी के आशीष वचन नव उत्साह का संचार कर गए-
'प्रिय कपिल सारथी जी की जीवनी तुम जिस आत्मीय भाव से लिख रहे हो और जिस सुंदर भाषा में उस के लिये हार्दिक बधाई। इस की पुस्तक रूप में छपने की प्रतीक्षा रहेगी मैं हर किश्त की उत्सुकता से प्रतीक्षा करता हूँ,साधुवाद।'
......धन्यवाद मान्यवर
सागर की कहानी (37)
इस बात ने सदा ही मेरे भीतर कौतुहल पैदा किया है कि श्री सारथी जी विश्राम कब करते हैं? मैंने उन्हें कभी थक कर बैठे हुए नहीं देखा। कभी निष्क्रिय नहीं देखा। उन की निरन्तर सक्रियता मेरे साथ-साथ अन्य लोगों की भी जिज्ञासा एवं आश्चर्य का कारण रही है। उन का प्रत्येक क्षण शब्दों, रंगों एवं सुरों से खेलते हुए ही बीतता। कभी-कभी लगता वे तो मात्र एक प्रक्रिया हैं, निरन्तरता हैं, गति हैं, चेतना हैं। निरन्तर प्रक्रिया एवं निरन्तर सक्रियता का मूल मंत्र उन के इन शब्दों में निहित है। ‘मेरा अनुभव है कि जब भी मैं और तुम या कोई अन्य आधे संकल्प से, आधे सत्य से, आधी-अधूरी निष्ठा और आधी-अधूरी श्रद्धा से कार्य करेगा तो वह शीघ्र शक्ति खो कर थक जाएगा। थकेगा वही जो हां और नहीं के मध्य फसा हुआ, आशा और निराशा के बीच फसा हुआ, ईमानदारी और बेईमानी के मध्य फंसा हुआ कार्य कर रहा हो’।
वे कहते – ‘एक उत्कृष्ट क्षमता जो कार्य के साथ-साथ तुम्हें भी स्वभाविक और प्राकृतिक बनाये रखती है, वह है कार्य को समर्पित चिन्तन। अपनी पूरी शक्ति और एकाग्रता का केवल कार्य में ही होना। स्वयं कार्य ही हो जाना। स्वयं ही एक अन्तहीन प्रक्रिया में परिवर्तित हो जाना जिस में कर्ता और क्रिया की भिन्नता का अन्त हो जाए। और वह तभी सम्भव है जब तुम मात्र वर्तमान में रहने का निरन्तर प्रण करो। निरन्तर अभ्यास करो। निरन्तर वर्ततान ही को अपने श्वासों में भर कर रखो और जिस क्षण तुम्हें कुछ करना है वही क्षण पहला और अंतिम क्षण जान लो। जिस क्षण में तुम्हें जीना है वही क्षण तुम्हारा र्स्वस्व हो जाए। तुम्हारा और तुम्हारे कार्य का कोई अतीत न हो, कोई भविष्य न हो। कोई परिणाम भी न हो। परिणाम, अतीत, भविष्य मात्र वर्तमान हो।‘
जो कार्य उन के लिए सर्वाधिक महत्व का दीखता, जिसे वे अपने सम्पूर्ण मनोयोग से कर रहे होते, उसी कार्य के सम्पूर्ण हो जाने पर वे उस कार्य से इस प्रकार अलग हो जाते मानों कार्य विशेष से उन का दूर-दूर का भी सरोकार न हो। संदेह होता इस प्रकार का निर्लिप्त व्यक्ति क्या कभी कार्य में संलिप्त भी था या वह मात्र आँखों का धोखा था। जिस चित्र को बनाने में उन्होंने कई दिनों तक अपनी पूरी शक्ति लगा दी होती उसे ऐसे उठा कर किसी को दे देते मानों कलाकृति से उन का कोई सम्बन्ध ही न हो। उन के बनाये चित्र आज भी अनेक घरों, मन्दिरों तथा संस्थानों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
प्रवीण जी गुरू आश्रम पहुँचती हैं। श्री सारथी जी को दण्ड़वत् प्रणाम कर वह बैठ जातीं हैं और उनके द्वारा बनाये भूदृष्य को मंत्रमुग्ध सी एकटक देखती जाती हैं। वे मुस्कुराते हुए प्रवीण जी से पूछते हैं- स्वामी जी, इय चित्र में ऐसा क्या विशेष है जो आप इसे लगातार देखते चले जा रहे हो। प्रवीण जी कहती हैं- गुरूदेव, ऐसा सौन्दर्य मैंने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। जी चाहता है बस इसे देखती रहूँ। मैं तो इस भूदृष्य की सुन्दरता को जीवन भर निहार सकती हूँ। सारथी जी कुछ आदेशात्मक स्वर में कहते हैं- भई, कपिल यह चित्र पैक कर दो। अब यह चित्र प्रवीण जी के घर की दीवार पर लगेगा। प्रवीण जी विरोध करती हैं और फिर कुछ संकुचाते हुए कहती हैं- गुरूदेव मैं चाहती हूँ यह चित्र इसी स्थान पर सौन्दर्य बिखेरे। सारथी जी पुणः कहते हैं- मैं जानता हूँ यह चित्र कहाँ होना चाहिए। फिर कुछ मुस्कुराते हुए कहते हैं- क्या आप नहीं चाहते हो यह चित्र उस स्थान पर लगे जहां अधिक लोग उस का आनन्द ले सकें और मुझे सम्बोधित करते हुए कहते हैं- भई आप क्या कर रहे हैं, इस चित्र को आज ही प्रवीण जी के हाँ पहुँचा दो। प्रवीण जी अब कुछ नहीं कह पाती। उन की मौन स्वीकृति में अद्भुत हर्ष को भी देखा जा सकता था। चित्र उनके घर पहुँचा दिया गया और आज भी वह चित्र जिस में सर्दियों की एक सुबह को तेल रंगों में चित्रित किया गया है प्रवीण जी के घर की शोभा बढ़ा रहा है।
.................क्रमशः ........ कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 9 November 2017

सागर की कहानी (36)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास। आप के सुझाबों का इंतज़ार रहेगा।
सागर की कहानी (36)
महान विराट एवं अनन्त सागर कभी अकर्मण्यता का शिकार नहीं होता। कभी थक के नहीं बैठता। कभी आलस्य एवं प्रमाद में नहीं घिरता। अनन्त एवं विराट सदा कर्मठ बना रहता है। सदा ही कुछ करने की प्रक्रिया में रहता है यह रत्नाकर। ऊपरी दृष्टि से देखने पर लगता है कि कर्महीन सागर कर्म से पलायन कर रहा है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा ही सागर की सक्रियता को, सतत् प्रक्रिया को देखा जा सकता है। यह सागर ही कभी भाष्प बन कर वायुमण्ड़ल में तैरता है और बारिश की बूंदों में भी तो सागर ही होता है। यदि दृष्टि हो तो नदियों और नालों के प्रवाह में भी सागर को देखा जा सकता है।
मन्दिरों के शहर जम्मू में जैन बाज़ार का अपना एक विशेष स्थान है। इसी जैन बाज़ार में स्वर्णकारों के रहीम जी के शब्दों में अन्न (कनक) से सौ गुणा अधिक मादकता प्रदान करने वाले कनक अर्थात स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित शौ रूम हैं और इसी जैन बाज़ार में स्थित रावलपिंडी स्वीट शॉप भी सब की जानी पहचानी है।
रावलपिंडी स्वीट शॉप से नीचे ढलान की तरफ जाती गली बाबा लाल जी की गली कहलाती है। वैसे इस गली को ढक्की हजामा और विजयगढ़ के नाम से जाना जाता रहा है। शेकस्पेयर तो कह गए हैं व्हट इज़ इन ए नेम (whats in a name) अर्थात नाम में क्या रखा है। शेकस्पेयर की इस दलील से अधिक्तर लोग सहमत होंगे परन्तु नाम के महत्व एवं उपयोगिता से इन्कार भी नहीं किया जा सकता। फिर भारतीय दर्शन तो नाम के महत्व का गुणगान सदियों से करता आ रहा है। खैर इस समय बाबा लाल जी की गली ही इस का प्रचलित नाम है और बाबा लाल जी का प्रसिद्ध मन्दिर गली की पहचान भी। आईये इस गली में प्रवेश करते हैं। दस बीस कदम चलने के उपरान्त दायीं ओर बीर जी की करियाने की दुकान है। थोड़ा सम्भल के ढलान ज्यादा है। यह दूध वाले मनसुक्ख की दुकान है तथा और पाँच सात कदम चलने के बाद जब गली अपना कोण हल्का सा बदलती है, उसी स्थान पर एक घर है। इस घर में प्रवेश करते ही आप स्वयं को एक बरामदे में पाओगे जिस की बायीं ओर खुला द्वार स्वागत करता प्रतीत हो रहा है। इस के सामने एक और द्वार है। स्वागत कर रहे द्वार में प्रवेश करते हैं। गर्मियों के दिन हैं। शाम 6-7 के बीच का समां। कमरे में कुछ अंधेरा होने के कारण टयूब लाईट जल रही है। टयूब लाईट का दुधिया प्रकाश कमरे में फैल रहा है कमरे की एक तरफ कम्बलों की तह पर थोड़ा झुक कर बैठे सारथी साहब दीवार के साथ सटे कन्वास पर रंगों का जादू बिखेर रहे हैं। उन्हें घेर कर बैठे जिज्ञासु आवाक से हैं, कोई हिलजुल नहीं, जैसे वो सब पत्थर के बुत हों। इधर सारथी जी का ब्रश कन्वास पर घूम रहा है। छोटी सी पैलेट को लगातार देखने पर भी यह पता लगाना मुश्किल है कि रंग कौन सा किस में मिला कर कन्वास पर लगाया जा रहा है, परन्तु परिणाम गज़ब का है। टयूब लाईट के दुधिया प्रकाश और पंखे की विलम्बित गति में उन्हें काम करते देखना भी एक उपलब्धि है। कन्वास पे रंगों का चमत्कार देखते ही बाहर की मारू गर्मी का अहसास भूल सा जाता है। कमरे की दीवारें रचनाकार की रचनात्मक्ता की सशक्त प्रमाण हैं। कहीं त्रिकुटा पर्वत सुशोभित है तो कहीं तवी की रवानगी का आनन्द लिया जा सकता है। कर्नल सर आर एन चोपड़ा, रविन्द्र नाथ टैगोर तथा सारथी जी के पिता पंडित मनसा राम जी के portriat भी कमरे की सृजनात्मक्ता को बढ़ा रहे हैं। कमरे के एक भाग में लटकी घड़ी की टिक टिक की आवाज़ भी कमरे के मौन को तोड़ती है और आभास हेाता है कमरे की सृजनात्मक्ता की साक्षी यह टिक टिक पुरातन काल से चलती आ रही है और इसी प्रकार चलती रहेगी।
..............क्रमशः ................कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 8 November 2017

सागर की कहानी (35)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (35) 
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते हैं- मैं पंजाबी साहित्य सभा का प्रधान चुना गया। सत्तर तक प्रधान रहा। कुछ कहानियाँ, ग़ज़लें और लेख लिखे जो मुझ से पंजाबी के एडीटर अमरीक सिँह ने लिखबाये। अमरीक एक प्रेरक मानव मित्र और दरियादिल लेखक सम्पादक है।
यह राम कृपा का फल है जो मैं जम्मूं की सभी भाषाओं की संस्थाओं से जुड़ता चला गया। हर संस्था और हर भाषा ने मुझे अपना जान कर अपनाया। मैं बज़्म-ए-फरोगे उर्दू, अंजुमन-ए-उर्दू अदब, डोगरी संस्था, अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन और हिन्दी साहित्य संगम से सम्बद्ध होता चला गया।
एक साक्षात्कार में आशा अरोड़ा उन से पूछती हैं- सारथी जी आप चित्रकार, संगीतकार और साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं - यह तो खण्ड़ों में जीना हुआ। अच्छा होता आप एक ही धरती को पकड़ते और उसी में निखार पाते। श्री सारथी जी कहते हैं- यह आदमी के वश में नहीं। मैंने अपने बचपन से कला में जीवन गुज़ारा है ये तो उस के विभिन्न रूप हैं। मुख्य बात है भावना की। अभिव्यक्ति किसी भी रूप में क्यों न हो। मैं समझता हूँ कि मैं सब कुछ में एक ही कर रहा हूँ
सफरनामा में वे पुण लिखते हैं - चंचल शर्मा के स्नेह, प्रेम और प्रेरणा से मैं हिन्दी-उर्दू में लिखता रहा। फिर रिपब्लिक अकादमी में पढ़ाते हुए जम्मू के जाने-माने विद्वान और उर्दू के उस्ताद शायर जनाव कैलाश नाथ कोल- मैकश कश्मीरी के सम्पर्क में आया। तबले का काफी ज्ञान होने के कारण ग़ज़ल के अरूज़ सीखने में मुझे दिक्कत न आई। ताल के गुरू एवं उच्चतम जानकार श्री सारथी जी कहा करते की अरूज़ लय-ताल है और लय-ताल अरूज है। इल्में अरूज का मतलब है लय-ताल में निपुण होना क्योंकि काव्य गेय है। काव्य, ग़ज़ल गीतमय नगमा है। नगमगी है। और नगमा तब तक नहीं फूटता जब तक क्रम बद्ध न हो। हर प्रकार की रचना जो गेय है वह लय-ताल और स्वर को समेट कर जब तक संगीत का रूप धारण नहीं करती वह भ्रम मात्र है। लय-ताल जहाँ आदमी के शरीर की रीढ़ की हड्डी है वहीं यह दिन रात अंधेरे और सबेरे की रीढ़ की हड्डी भी है। जहाँ ऋतुओं के परिवर्तन की रीढ़ की हड्डी है वहाँ लय-ताल, आनन्द तथा परमानन्द को स्वयं में विलय कर लेने की स्वर्णिम सीढ़ी भी है।
लय-ताल श्री सारथी जी के प्राण थे और वे लय-ताल को सोते-जागते, खाते-पीते, औढ़ते और विछाते थे। अरूज़ उन के लिए एक छोटा सा शब्द था जिसे वे प्रतिदिन बीसीयों बार हर स्थान पर इस्तेमाल करते थे। उन की दिनचर्या में अरूज़ का इतना गूढ़ सामजस्य होता कि वे तबले पर रोटी डाल कर कहते -स्टोब एक ताल में जल रहा है। रोटी डालने के बाद अगर इस की ज्वाला कम अथवा अधिक करोगे तो इस का अर्थ होता है लय-ताल का कम अधिक करना। यदि ऐसा करोगे तो रोटी अधकचरी रह जायेगी क्योंकि रोटी के पकने का भी सुनिश्चित लय-ताल है। वे कहते- ताल का अरूज़ से और अरूज़ का ग़ज़ल से वही सम्बन्ध है जो शरीर का हृदय से और हृदय का श्वास से है। हृदय ताल है, श्वास लय है। दोनों के सहारे शरीर खड़ा है। जिस प्रकार ताल के बिना, अरूज़ के बिना, आदमी मुर्दा है, शव है, उसी प्रकार ग़ज़ल अरूज़ के बिना मुर्दा है, शव है।
..........क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध

Monday, 30 October 2017

सागर की कहानी (34)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (34)
अपने लेखन में प्रतीकों के प्रयोग के बारे में वे कहते हैं -मेरे लेखन में प्रतीकों का प्रभाव चित्रकला तथा कुछ सीमा तक संगीतकला के कारण है। वे लिखते हैं मैं चित्रकार तथा मूर्तिकार रहा हूँ। चित्र और मूर्ति की भाषा बहुत गहन प्रभावशाली तथा सम्प्रेष्यात्मक है। उस का कारण यह है कि सभी रंग रूपक हैं। सभी रंग स्वयं में कुछ न हो कर अन्य भाव-विचार, स्थिति, रस को दर्शाते हैं। चित्र में प्रयोग किए गए सभी रंग मानों बहुत सारी स्थितियाँ, रसों और रूपकों को जोड़ कर एक स्थिति में बाँध दिये गए होते हैं। अब उन का संदेश सामूहिक रूपाकात्मक होता है। सभी कुछ समझने पर निर्भर करता है। रंग पढ़ लेने पर ही कथ्य तक पहुँचना संभव होता है। हर रंग रूपक होने के साथ बहुआयामी होता है। लेखन में जिन शब्दों और अक्षरों की लेखक को आवश्यकता पड़ती है वह सभी शब्द रूपक हैं। एक ही शब्द में कितने ही आयाम गुप्त पड़े रहते हैं। आम भाषा में घर, बाहर, सड़क, पिता, बादल, आकाश, प्रकाश, अंधकार, सूर्य, अध्ययन यह सभी शब्द रूपक होने के कारण अपने पूरे अर्थों में उचित स्थानों पर बिराजमान होते हैं। पीले रंग के कितने ही अर्थ हमारे सम्मुख आ जाते हैं जैसे पतझड़, रक्तअल्पता, पाण्डु रोग, मृत्यु, भयातुरता, विरागदि। इस प्रकार हर शब्द व्यापक है। घर में क्या नहीं होता। गिनने लगें तो सदी लग जाए। फिर मैं एक ईंटों के घर में रहता हूँ। आत्मा शरीर रूपी घर में रहती है। सारा संसार प्रभु का घर आदि।
मुझे लगता है लेखन दो प्रकार से यात्रा करता है। एक यात्रा सार से विस्तार की ओर की है और दूसरी यात्रा विस्तार से सार की ओर मुख किए हुए है। परन्तु यदि लेखक, सर्जक, जनक के पास सार है तो विस्तार करने में कोई कठिनाई नहीं हेाती है। सार का अर्थ ऐसा कथ्य है जो किसी बहुत बड़े मानवीय विचार, समस्या पहेली, विज्ञटन तथा संत्रास के लिए होता है। मुझे लेखन से पहले हर बार यह संतुष्टि स्वयं को करबानी पड़ती है कि विषय वस्तु अथवा कथ्य काफी समय तक जीवित रहने की क्षमता रखता है। सार को सम्भाले रखने में व्यंजना भाषा मुझे लगा है कि सूक्ष्म है और सार के संदर्भों और अध्यायों की सार्थक अभिव्यक्ति तथा लगभग पूर्ण अभिव्यक्ति प्रतीको तथा चिन्हों के द्वारा संभव है।
श्री सारथी जी द्वारा प्रतीकों के प्रयोग पर पंजाबी के प्रख्यात साहित्यकार डा. करतार सिंह सूरी उन के पंजाबी उपन्यास बिन पैरां दे धरती की भूमिका में लिखते है - सारथी के ड़ोगरी और हिन्दी उपन्यासों के बारे में एक बात अक्सर कही जाती है कि वह संकेतों और प्रतीकों की भाषा का बहुत प्रयोग करता है, जिस के कारण उस की लेखनी में अस्पष्टता ओर धुंधलापन आ जाता है। पहली बात मैं स्वीकार करता हूँ कि वह प्रतीकों का अत्याधिक प्रयोग करता है और यह बात प्रस्तुत उपन्यास में भी खरी उतरती है। पर दूसरी बात से मैं सहमत नहीं कि वह अस्पष्ट और धुंधला है। मेरे अनुभव के अनुसार पाठक का उस के साथ जब तारतम्य स्थापित हो जाता है, जब पाठक उस की रचना के साथ एक सुर हो जाता है तो उस के बिम्ब और प्रतीक सहज ही ग्रहण होने लगते हैं। बिम्बों, प्रतीकों एवं संकेतों का प्रयोग वह क्यों करता है। इस बात को समझने के लिए मैं उस के समूचे व्यक्तित्व की थाह लेता हूँ।
सारथी एक चित्रकार है, संगीतकार है और लेखक है। सारथी मेरे विचार में किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं। वह चित्रकला, संगीतकला और लेखनकला के मिले झुले रूप की संज्ञा का आकार है। सारथी की लेखनी की यात्रा सुरों, धुनों ओर शब्दों-अर्थों से पहले रंगों के रास्ते अभिव्यक्ति का माध्यम ले कर चलती है। और फिर समय बीतने के साथ अभिव्यक्ति ने अर्थों, शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, संकेतों ओर चिन्हों का माध्यम अपनाया। असल में रंगों और लकीरों की कला, संकेतों और चिन्हों-बिम्बों की भाषा है। इसीलिए सारथी की गद्य रचना में संकेतों, प्रतीकों और बिम्बों की बहुलता है।
दूसारी तरफ सारथी को संगीत बिरासत में मिला है। सुर-लय और ताल का गहन अनुभव उस के अन्दर रचा-बसा है। वह सुर का जानकार होने के नाते आदमी के अन्दर और बाहर के रूप को पहचान सकता है। इसलिए वह अपनी लेखनी में अदृष्य, अरूप और सूक्ष्म अनुभवों को अस्तित्व देता है।
.......क्रमशः .........कपिल अनिरुद्ध

Friday, 27 October 2017

सागर की कहानी (33)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (33) 
सारथी जी को नवीन शिल्प, नवीन कथ्य एवं प्रतीकों तथा संकेतों के अधिकाधिक प्रयोग हेतु एक प्रयोगधर्मी रचनाकार की संज्ञा दी जाती है। उन की कहानियों, नाटकों एवं उपन्यासों में न तो परम्परागत पात्र ही दिखाई देते हैं तथा न ही उन का परम्परागत चित्रण ही देखने को मिलता है। वे कहा करते- हम जिसे सोचना कहते हैं वह घिसी पिटी लीक को बार बार पीटना है। पहनना क्या है, खाना क्या है, सोना कहाँ है। आम लोक परिपाटी को, लीक को पीटते हैं। परन्तु आध्यात्म तर्क से आरम्भ होता है। सृजन भी तर्क की ही देन है। यदि संशय में गिरोगे तो सृजन कर सकोगे। उनके शब्दों में संदेह विचार को जन्म देता है। विचार तर्क का जनक है। तर्क निर्णय में ले जाता है तथा निर्णय ही निर्माण का आधार है। हाँ सुविधा में जीने वाला तर्क को सहन नहीं करता परन्तु यदि वास्तव में कोई जीवन को सरल, सुखमय बनाना चाहता है तो उसे तर्क में से गुज़रना ही पड़ेगा।
वास्तव में सारथी जी बने बनाये रास्ते पर न चल कर अपनी राह स्वयं बनाते चले गए। जिस प्रकार एक गोताखोर अपनी शक्ति और साहस के बल पर सागर की गहराई में उतर कर अनदेखे संसार को देखता है वैसे ही प्रयोगधर्मी सारथी जी साहित्य एवं कला के सागर की अतल गहराई में जाने का जोखिम भी उठाते रहे और उस गहराई से प्राप्त मोती माणिक्य इत्यादि से जगत को लाभान्वित भी करते रहे। प्रयोगधर्मिता को स्थापित करता उनका यह शेअर इसी भाव को स्थापित करता है।
मैं राह ढ़ूँढता हूँ नई मुझ को सजा दो।
ईसा हूँ मैं सलीब उठाने के लिए हूँ।
शंकर शर्मा पिपासु - व्यक्तित्व और कृतित्व नामक पुस्तक में श्री सुभाष भारद्वाज लिखते हैं -पिपासु के साथ इस लेखक का संपर्क 10 - 12 वर्ष तक रहा है। इनमें अधिकांश मुलाकातें किसी साहित्यिक आयोजन विशेषतः किसी कवि गोष्ठी अथवा कवि सम्मेलन में ही हुआ करती थी। इसलिए उनके व्यक्ति के भीतर झांकने के बहुत ही कम अवसर मिलते थे। हां उन कुछ महीनों की यादें शायद कभी नहीं भूलेंगी जब अपने एक साहित्यकार बंधु ‘सारथी’ के निवास पर हम चार पांच साहित्यकार नित्य मिलते थे उस कमरे को जहां हम बैठक करते थे हमने प्रयोगशाला का नाम दिया था वहां लगभग रोज बैठने वालों में पिपासु भी थे
सारथी जी न तो तथाकथित नवीनता के पक्षधर थे तथा न ही नयेपन के नाम पर स्वछन्दता एवं वैयक्तिक स्वतन्त्रता की दुहाई देने वालों के हिमायती ही थे। वे लिखते हैं- नये की परिभाषा तो यह होनी चाहिए कि जो लिखा गया, चित्रित किया गया अथवा तराशा गया है वह कलाकार मंगल ग्रह, वृहस्पति ग्रह या शुक्र ग्रह से ले कर आया है। वह सब इस धरती पर कहीं भी नहीं था। और यदि वह सब कुछ यहीं पर था, प्लाट, भाषा, शैली, लय-ताल, गति-यति इत्यादि तो रचना नयी क्या और कैसे हुई। यह कहा जा सकता है कि पहले वह अदृष्य थी अब दृष्य हुई है। Discover अब हुई है। वैसे भी यह सृष्टि बहुत बड़ी है। जीवन बहुत लम्बी यात्रा है। उस के मुकाबले में रचनाकार एक कण भी नहीं। 
पत्थर ते रंग उपन्यास में वे लिखते हैं- आकाश कभी नया पुराना नहीं होता। सागर कभी नया पुराना नहीं होता, धरती कभी नयी पुरानी नहीं होती। सूरज, चाँद, तारे, हवा, पानी, अग्नि, ठण्ड़क भी नये पुराने नहीं होते। एक कलाकार इन्हीं सभी तत्वों का जाया होता है। वह भी नया पुराना नहीं होता।
वास्तव में नये पन का सम्बन्ध व्यक्ति के चिंतन मनन एवं अनुसंधान से है। नये पन का सम्बन्ध कलाकार अथवा साहित्यकार के अनुभवों और अनुभूतियों से है। जिस समय कलाकार अपने किसी दृष्टिकोण का निर्माण कर लेता है उस के लिए हर तत्व, पदार्थ नया हो जाता है। इसी भाव को अभिव्यक्त करते हुए पत्थर ते रंग में वे लिखते हैं- सूरज, सागर, चित्र, गीत, कथा, नृत्य, दर्शन, अक्षर और ज्ञान, संगीत और मूर्तियां यह सब कुछ कभी भी नया पुराना नहीं होता परन्तु व्यक्ति की यह धारणा है कि वह रात के बाद आने बाले सूरज को नये तरीके से अनुभव करे। चित्र को ओर नया देख सके। संगीत को ओर नये सुरों में महसूस कर सके। मूर्ति से नित नया संदेश उसे मिले। अक्षर, ज्ञान-विज्ञान और अथे के साथ वह फिर से साक्षात्कार करे।
फिर नयेपन को समय की माँग, समय की आवश्यकतायों से जोड़ते हुए तथा नयेपन को परिभाषित करते हुए इस उपन्यास में वे लिखते हैं- समय अपने आप में स्वयं नया होता है। जो कुछ उसे चाहिए होता है वह करबाता जाता है। समय से अलग रह कर रचनेवाला, शऊर वाला कुछ भी नहीं कर सकता। एक ही नियम सब का सांझा होना चाहिए कि जो कुछ आज माँग रहा हे वह उसे दिया जाये।
जो नवीनता एवं प्रयोगधर्मिता को, वैयतिकता को सामाजिक दायित्वों से अधिक महत्व देते उन का सारथी जी सदैव खण्ड़न करते। वास्तव में प्रयोवाद के दौरान प्रयोगों के नाम पर जिस प्रकार साहित्य में अश्लीलता एवं कामुकता परोसी जाने लगी उस पर अपनी खिन्नता प्रकट करते हुए सारथी जी पत्थर ते रंग उपन्यास में लिखते हैं- सृजन की कल्पना अपने पन की कल्पना है। अपने पन की विशालता की कल्पना है। अपने पन की कामना, सुन्दरता एवं सुकून की कल्पना है। सृजन की कल्पना एक दूसरे के लिए खड़े होने तथा एक दूसरे को स्वयं में भर लेने की कल्पना है। कुछ कलाकारों का नयापन अकेलापन है। इस शहर को , वातावरण को, लोगों को, लोगों पर छाए अम्बर को और शहर की धरती को साथ रख कर जो कल्पना की जायेगी वह नयी होगी। और कल्पना का रचनाकार शहर में नहीं रहेगा, वातावाण में नहीं रहेगा, सारा शहर, लोग और वातावरण उस में रहेंगे। 
.......क्रमशः .............कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 26 October 2017

सागर की कहानी (3२)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (3२)
सारथी जी के कथानुसार-‘शास्त्रानुसार भाषा शैली तीन प्रकार अथवा तीन विधा की है। व्यंजना शैली सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। लक्षणा द्वितीय तथा अभिधा की हल्की विधाओं में गणना होती है। निजि तौर पर मैं व्यंजना शैली को ही अपनाने का आदि हूँ। मैंने जो कुछ भी ईश्वर कृपा से और ईश्वर प्रदत शक्ति, साम्थर्य से अभिव्यक्त किया है वह व्यंजना शैली में ही साकार हुआ है। उस का मूल कारण लगभग यह है कि मैं बुनियादी तौर पर बात को, विचार तथा भाव को प्रतीक के रूप में ही अनुभव करने का आकांक्षी होता हूँ। मुझे अनेकों बार ऐसा लगा है कि मैं अपने चिन्तन को बहुआयामी विधियों से मूर्तिमान होते देखते आया हूँ। और अभिवयक्ति के समय कथ्य का बहुआयामी पक्ष गुम न हो, हाथ से न टूटे और सभी कुछ कह दिया जाये तो बात पूरी होती है और यह तभी संभव है जब मैं प्रतीकों में और संकेतों तथा चिन्हों में स्वयं को व्यक्त करने का प्रयास करूँ।‘
उन के अनुसार- ‘कथ्य ही सतोगुणी, कथ्य ही रजोगुणी और कथ्य ही तमोगुणी होता है। इन के आधार पर अभिव्यक्ति भी उच्चतम, सामान्य और निकृष्ट होती है।‘
वे कहते –‘उत्कृष्ट अभिव्यक्ति सारगर्भित और मानव हेतु आरोहण का मार्ग प्रशस्त करने वाली ऊर्ध्वगमनीय होती है। कई बार मानव में क्रान्ति के बीज भी बो देती है और निकृष्ट अभिव्यक्ति का सत्य और संवेदना से कोई सरोकार नहीं होता। वह पदार्थ से ही जन्म लेती है, पदार्थ ही का प्रमाण होती है और पदार्थ के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है।
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए वे कहते- लेखन भगवान की परम कृपा से होना संभव है। यह लेखक नहीं जो लिखता है, उस के उच्च कर्म, उच्च संस्कार तथा संस्कारों के अनुसार प्राप्त संवेदना ही अक्षरों के रूप में ढ़लती जाती है। मैं दर्शन को साहित्य की आत्मा मानता हूँ और सौन्दर्य को साहित्य का परमलक्ष्य। एक साहित्य का साधक अपनी साधना द्वारा अज्ञात की ही निरन्तर खोज में रहता है। सत्य ओर सौन्दर्य का वह चरम बिन्दु कहाँ है जो कि उसे शान्त करे, सन्तुष्ट करे, यही लक्ष्य मेरा सदैव रहा है।
संवेदना लेखन की रीढ़ की हड्डी है। संवेदना का प्रादुर्भाव होने पर ही मैं अभिव्यक्ति हेतु बाध्य होता हूँ । कथ्य, मूल भूमि, बस्तु तो पहले ही से हर दिशा में विद्यमान है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। समस्त साहित्य जो कि मानव मात्र की करुण दशा के प्रति अनुभूति करबाता है अथवा किसी संघर्ष की ओर इंगित करता है, उच्चतम साहित्य की कोटी में ही गिना जा सकता है। मैं जो लिखता हूँ, जिस प्रकार के कथ्य का, भूमि का, बस्तु सत्य का चुनाव करता हूँ, उस के लिए मार्ग मैं स्वयं ही निर्धारित करता हुआ हूँ।
मेरी आकांक्षा होती है कि मैं मानव के अन्तस में छिपे उन विचारों, भावों, कर्मों का चित्रण करूँ जो मानव को दोहरी भूमिका प्रस्तुत करने में बाध्य करते हैं। और बनते-बनते एक आदमी जो स्थानानुसार, अवसरानुसार स्थिति को परखते हुए स्वयं को निरन्तर बदलता जाता है। वह स्वयं के भीतर दोष भरता जाता है, वह Guilty होता जाता है। मानव समाज में रहने और अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए ही वह यह सब करता है, परन्तु वह इतना कृत्रिम, इतना बनावटी होता जाता है कि उसे एक दिन ढ़ू़ँढ़ना कठिन हो जाता है कि उस के भीतर का वास्तबिक आदमी कहाँ है।
दूसरा संदर्भ चेहरों और मुखोटों का संदर्भ है, जो अवसरवादी होने का ही दूसरा रूप है। आज का मानव अपने पास इतने मासूम और आकर्षक चेहरे रखे हुए है जो वह अपने भयावह मुँह पर चढ़ा लेता है, यह एक चिन्ता का विषय है और यह मुझे अत्याधिक रुचिकर लगता है।
तीसरा विषय है- मानव का निर्माण, शिक्षा के मूल्य। सभ्यता और व्यवहारिक्ता का अभाव। आज दशा है-बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए। शिशु ही मानव बन कर समाज निर्माण करता है। जैसा शिशु तथा उस के संस्कार होंगे बैसा ही वह समाज निर्माण करेगा।
आज के वैज्ञानिक और तकनीकी काल ने सभी को पर्दाथवादी और पर्दाथभोगी बना दिया है। आदमी के अशांत और असंतुष्ट रहने का शायद यही कारण है कि वह पदार्थ और उस की प्राप्ति में सुख और अप्राप्ति में दुख का अनुभव कर रहा है। पदार्थ के पीछे अन्धी दौड़ का परिणाम है- मूल्यों का हनन एवं हृास। मैंने उपन्यासों और निबन्धों में इस हनन पर चिन्ता के साथ-साथ मानवीय वृति पर भरपूर कटाक्ष किए हैं। बालक को इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफैसर, एडमिनिस्टर, वैज्ञानिक बनाने हेतु समाज में विश्वविध्यालय तथा संस्थान स्थापित किए हैं, परन्तु कहीं कोई ऐसा संस्थान दृष्टिगोचर नहीं होता जहाँ शिक्षार्थी को मानव, एक नीतिवान, शालीन तथा विचारक मानव बनाया जाना अनिवार्य हो। शिक्षार्थी चाहे कुछ भी बन जाये, परन्तु उस का स्वयं की शक्तियों - क्षमताओं को जानना समाज के लिए अनिवार्य है। मेरे विश्वास के अनुसार साहित्य मनोरंजन नहीं है, बड़ा भारी दायित्व है। इसी कारण मुझे कथावस्तु के चयन में कभी कोई विलम्ब अथवा वाधा नहीं आई। इस के विपरीत मेरे आसपास इतने कथ्य फैले हैं कि चयन ही कठिन हो जाता है।
क्रमशः कपिल अनिरुद्ध

Tuesday, 24 October 2017

सागर की कहानी (31)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (31)
अपनी लेखन यात्रा उन्होंने ऊर्दू भाषा से आरम्भ की। आर्मी के कार्य काल के दौरान वे शरतचन्द एवं प्रेमचन्द से बेहद प्रभावित थे तथा तभी उन्होने ऊर्दू में रचना कर्म का श्रीगणेश किया। इस के बाद उन्होने हिन्दी तथा पंजाबी में कहानी लेखन द्वारा अपने रचना धरम को निभाया तथा अन्ततः वे डोगरी के प्रतिष्ठित कहानीकार के रूप में स्थापित हुए। श्री सारथी जी का प्रथम उर्दू कहानी संग्रह उमरें 1965 में प्रकाशित हुआ। यह कहानियाँ उन्होंने अपने सेना के कार्यकाल के दौरान लिखीं जिन्हें बाद में प्रकाशित करबाया गया। 
वास्तव में यह वो समय था जब देश नवीणीकरण के पथ पर आगे बढ़ रहा था। देश भर में नए नए उद्योग लगाए जा रहे थे। सड़के रूप आकार ग्रहण कर रही थीं, इमारते बनाई जा रही थीं। सारथी जी इस तथाकथित विकास में मानव के कद को घटता हुआ देख रहे थे। इस दर्द की अभिव्यक्ति उनके प्रथम डोगरी उपन्यास त्रेह समुन्दर दी में हुई है। वे लिखते हैं-‘प्रचीन गलियाँ घड़े हुए पत्थरों की बनी हुई थीं। नगर को घेरने व मिलाने वाली सड़कें प्रायः कच्ची थी। नगर के मन्दिरों के रंग प्राचीन थे परन्तु थे टिकाऊ। नगर के बासी कच्चे मकानों में रहते थे परन्तु थे दृढ़ व समर्थ। धीरे धीरे नगर अपने स्थान से सरकने लगा। उन्नति करने लगा, अग्रगमन करने लगा। गलियाँ पक्का होना प्रारम्भ हुई। मकानों में गारे के स्थान पर सीमेंट व सरिया प्रयोग होने लगा। परन्तु मनुष्य कच्चे होते गए। भुरभुरे होते गए। मनुष्य जर्जर व खोखले होते गए’।
इसी क्रम में उपन्यास में वे आगे लिखते हैं – ‘मुहल्ले में सीमेंट, सरिया व ईंटे आ जाने के कारण पड़ोसियों के स्वभाव में अन्तर आ गया। पहले मूँग की दाल एक हाँडी में बन कर कटोरी द्वारा घर घर घूमती थी परन्तु धीरे धीरे कटोरी व पतीले का घेरा कम होता गया। अब गली से गुजरते हुए सुगन्ध द्वारा अनुमान लगने लगे कि किस घर में सब्जी बनी है और किस घर में दाल उबली है’।
शहर के तथाकथित विकास के समब्न्ध में वे लिखते हैं –‘पुराना चित्र नए रंगों से नवीन हो रहा था। शहर विकास कर रहा था। परन्तु इस बीच किसी भी भले मानस को विचार नहीं आया कि नगर मनुष्यों को ले कर बसते हैं। मनुष्यों से बनते हैं। नगर की शोभा मनुष्य हाते हैं मनुष्यों की शोभा नगर नहीं होते’।
शिक्षा के क्षेत्र में जिस विकास के नारे लगाए जा रहे थे, उस पर कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं – ‘इस के साथ साथ एक और अपरिचित दौड़, शिक्षा के क्षेत्र में लगी। नगर में जहाँ गिने चुने पाँच सात विद्यालय थे वहाँ अब विद्यालयों की संख्या में बढौतरी होने लगी। मानों शहर की बढ़ती जनसंख्या के साथ ही विद्यालयों की दौड़ लग गई हो। नए विद्यालय खुले अनगिनत - असंख्य। प्रत्येक पाँचवे छत पर विद्यालय का बोर्ड दिखाई देने लगा। विद्यालयों के भवन इतने सुन्दर व लुभावने थे कि लोगों को विश्वास हो गया कि उनके बच्चे चोटी के ज्ञानवान हो जाँएगे। यह सोचे बिना कि भवन बच्चों को नहीं पढ़ाते उन में निवास करने वाले सोमदत्त ही बच्चों को पढ़ाते हैं’।
त्रेह समुन्दर दी उपन्यास 1965 में प्रकाशित हुआ जबकि बिन पैरां दे धरती नामक पंजाबी उपन्यास का प्रकाशन वर्ष 1990 है। इस अंतराल में बेढंगी प्रगति की वेदना और अधिक सशक्तता एवं मार्मिकता से सारथी जी की रचनाओं में प्रकट होती है। उनके दर्द एवं पीड़ा का यह विकास क्रम उन की अन्य रचनाओं में भी स्पष्ट देखा जा सकता है। बिन पैरां दे धरती में वे लिखते हैं – ‘चार दिवारी ने ढकने और छुपाने का गुण छोड़ दिया था। बरामदे ने स्वागतम के स्थान पर पैर धरने वाले को घूरना आरम्भ कर दिया था’। 
एक ओर स्थान पर वे लिखते हैं- बसती का जो नया रूप उभर कर सामने आया था, उस के हिस्से दो अलग आकारों में दिखने लग गए थे। एक हिस्सा ऐसा था जहां रोशनी, प्रकाश, काम-काज, धन्धे कभी भी समाप्त नहीं होते थे।....... सब कुछ आठो पहर चलता रहता था। .............. दूसरे हिस्से में दूर तक न रोशनी थी, ना ही धन्धों, कार्यों के चिन्ह थे। वे लोग पैर और सड़क किसी भी चीज़ को प्रयोग में नहीं ला सकते थे।
तरक्की एवं उन्नती के नाम पर वृक्षों को काटा जा रहा था, मशीनीकरण के कारण आम व्यक्ति का अपने काम धन्धों से हाथ धोते जारहा था। इसी संदर्भ में बिन पैरां दे धरती में वे लिखते हैं- ‘बसती तेजी से बढ़ कर वीराने को निगल रही थी। बीराना अपने अस्तित्व को संभालने हेतु आगे बढ़ रहा था। बसती का विस्तार उस का पीछा कर रहा था’।
तमाशे में उलझा व्यक्ति तमाशा क्या है नहीं जान सकता। परन्तु बसती को दूर से देखने वाला ही बसती के बारे में निर्णायक हो कर कुछ कह सकता है। वीराना एक ऐसा स्थान है जहां से शहर को, बसती को साक्षी भाव से देखा जा सकता है। सन्त कबीर कहते हैं- राम झरोखे बैठ कर जग का मुजरा देख। श्री सारथी जी अपनी विवके दृष्टि से बसती को देखते है तथा उस का विवरण अपनी रचनाओं में करते चले जाते हैं।एक लेख में वे लिखते हैं- ‘हमारे नगर में एक नई बीमारी तीव्रता से फैल रही है। जिस के पास कमरे में ढलान में, डयोढी में, वाथरूम में अर्थात कहीं भी छः आठ फुट का स्थान है, वह वहीं पर करियाना का सामान और डबल रोटी और मिट्टी का तेल रखने जा रहा है’।
अपने समृद्ध अतीत को स्मरण कर एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं – ‘मुझे अपना बचपन याद आ गया है। शहर में तीन चार पंसारी हुआ करते थे।ऊपर के शहर में नानक पंसारी और भगता पंसारी। दक्षिण शहर में दौलत पंसारी और सुन्दर पंसारी। इनके पास जोशीन्दा, पंचरका सभी कुछ था। यह सारे डाक्टर, हकीम, वैद्य, तबीव सभी कुछ थे।..............अब गली गली में पंसारी बैठा है। न जोशांदे का पता है, न ईसबगोल का और न ही पंचरके का। अब तो बस डबल रोटी, एक्लेयर की टाफियां, टू मिन्ट न्यूडल्स और टोमैटो कैचअप की बातले हैं।
पंजाबी उपन्यास रणखेत्तर का मुख्य पात्र भी वीराने का निबासी बताया गया है । वे लिखते हैं- ‘जहां वीराना खत्म होता था वहां से बसती शुरू होती थी और जहां बसती खत्म होती थी वहां वीराना आरम्भ होता था। उस का अंधेरा जैसा तिकोना कमरा उसी सीमा पर था’। श्री सारथी जी की अन्य रचनाओं में भी रचनाकार पूरी बसती अथवा नगर का सर्वेक्षण करता चला जाता है। वह नगर की विकृतियों, अभावों एवं अवमूल्यनों को कलमबद्ध करता हुआ पूरे नगर का विषलेषण हमारे सामने प्रस्तुत करता है। प्रतीत होता है सामूहिक विवके ही बड़े मंच पर खड़ा हो कर सारा विवरण दे रहा हो। सारथी जी स्वयं लिखते हैं- ‘जितनी जल्दी हो सके किसी टीले पर चढ़ जाओ। यह तो तुम्हारी अपनी वीरता होगी कि चढ़ने के लिए कितना ऊंचा टीला तुम ढूंढ सकते हो।........... टीले पर चढ़ने का सीधा मतलब पदार्थ मे से निकल आने का है। ऊपर उठने का और आध्यात्मिक प्रवृति का होना और अंतमुर्खी हो जाना है। ऊपर हो जाने का अर्थ बड़े और विशाल हो जाना है। सहनशील हो जाना और सब से बड़ी बात संतुष्ट हो जाना है। ऊपर हो जाने का अर्थ सब को सम्पन्न देखना और दूसरों की सम्पन्नता में आनंद का अनुभव है .........यदि तुम एक क्षण के लिए तुलना में से निकल कर समाने आ सकते हो तो आ जाओ। फिर तुम देखोगे कि तुम सच ही संसार के महान व्यक्तियों में से एक हो। तुम देखेगे कि तमु उन सब में हो जो भक्त हैं, ज्ञानी है, विवेकशील हैं, बुद्धिमान हैं, कर्मठ हैं, जो संतुष्ट हैं। 
सबसे बड़ी बात एक परिवर्तन की अनुभूति होगी। तुम देखेागे कि सभी लोग क्रोध से घृणा करेंगे। सभी लोग शांति चाहेंगे। सभी सुख समृद्धि ओर निरोग की कामना करेंगे। सभी ऊपर उठ जाएंगे। सारा समाज श्रेष्ठ हो जाऐगा। समस्त मानव समाज ही स्वर्ग की अनुभूति करने लगेगा। 
..............क्रमशः..............कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 12 October 2017

सागर की कहानी (30)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (30)
सफरनामा में श्री सारथी जी लिखते है - मास्टर संसारचन्द जी के एक वैज्ञानिक मित्र कश्मीरी लाल हांडा ड्रग रिसर्च प्रयोगशाला में कार्यरत्त थे। वहाँ दो-चार दिन मेरी परीक्षा चलती रही। मुझ से चोपड़ा साहब ने ब्रैंकड़ धतूरा के रेखाचित्र बनवाए और मुझे प्रयोगशाला में म्यूज़िम सहायक की नौकरी मिल गई। इस के साथ ईश्वर ने नौकरी की चिन्ता समाप्त कर दी।
वे लिखते है- अब मेरा विकास तीन दिशाओं में होने लगा। बाटनी में एक बोटैनिकल चित्रकार के नाते, समाज में ऊर्दू और डोगरी के लेखक के नाते और संगीत के क्षेत्र में गायक-वादक के नाते। रेडियो जम्मू से कहानी कविता के अनुबन्ध मिलने लगे। पहली फीस पच्चीस रूपये मिली। फिर श्री विष्णु भारद्वाज जी से मुलाकात हुई। उन्होंने नाटक लिखने की प्रेरणा दी। मैने हिन्दी, ऊर्दू और डोगरी में नाटक लिखे हैं जिन की संख्या पचास से अधिक है।
सत्तर-पचहतर तक हिन्दी, ऊर्दू, डोगरी पंजाबी की कोई बात न थी। मैं कईं गोष्ठियों में चारो भाषाओं की ग़ज़ले पढ़ता था। यदि न पढ़ता तो इसरार किया जाता।
सारथी जी भाषा को मात्र अभिवयक्ति का ही माध्यम मानते। उन के अनुसार भाषा साध्य नहीं साधन है। वे कहते भाषा तक ही सीमित रहना ठीक नहीं। वास्तविक बात तो उस अनुभूति की है जो कुछ अभिव्यक्त करेगी। एक अच्छी रचना चाहे किसी भी भाषा में लिखी जाए पढ़ने बाले को प्रभावित अवश्य करेगी। वे अक्सर कहा करते जो बात कही जानी है वह अपनी भाषा स्वयं ले कर आती है। उन्होंने संकेतों और प्रतीको की भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त किया है तथा सब को भाषा की गुटबंदियों से उपर उठ कर स्वयं को अभिव्यकत करने की प्रेरणा दी है। उन से प्रेरणा एवं मार्गदर्शन लेने वाले हर भाषा के लोग हुआ करते थे। डोगरी भाषा को आठवें छडयूल में शामिल किए जाने वाले आन्दोलन के बारे में वे लिखते हैं -दरबारी, सरकारी मान्यता तो उस बात को चाहिए होती है जिस का साधारण लोगों में कोई आधार न हो। जिस बोली या भाषा को लाखों-करोड़ों लोग बोलते हों, उस की मान्यता के लिए जनमत पैदा करना हास्यास्पद सा लगता है। इस में ज़रूर कहीं लेखक की कमज़ोरी है, कोताही है, अज्ञानता है या उस की लाचारी है। लेखक ने ही दर्द के वो मुकाम खोजने है जिन के निरनतर प्रकाश में आने से क्रान्ति के स्वर उभरते हैं।
यदि किसी भाषा को मान्यता मिलती भी है तो लाभ चापलूसों और खिलाड़ियों को ही होता है। कवि, कथाकार, उपन्यासकार, निबन्ध्कार, जीवनीकार, नाटककार को रत्तीभर भी फायदा नहीं होता। वे कहते भाषा के भाग्य का निर्माण न तो रैजीमैंटेशन पर आधारित है और न ही आप ही अच्छा और बहुत अच्छा कह कर। भाषा के भाग्य का दारोमदार न तो वेतन है ना किसी का निजि प्रभाव। यह सब कुछ समय के लिये किसी के नाम का डुबा या उछाल सकता है पर वास्तव में भाग्य का निर्माण लेखक और पाठक के हाथों में है, यह बात आज भी सत्य है और कल भी यही सत्य होगा।
.......क्रमशः....कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 11 October 2017

सागर की कहानी (29)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास
सागर की कहानी (29)
श्री सारथी जी की कहानियों एवं उपन्यासों में भी चित्रात्मकता अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती है । नंगा रुक्ख की समीक्षा करते हुए प्रख्यात साहित्यकार एवं समीक्षक भोलानाथ भ्रमर लिखते हैं - जैसे चित्रकार एक के बाद एक चित्र बना कर उन की प्रदर्शनी करता है और समझदार पाठक उन का केन्द्रीय भाव पकड़ता है। वैसे ही चित्रकार सारथी की कलम ने शब्दों से कुछ चित्र बनाये हैं और इस उपन्यास के रूप में उन की प्रदर्शनी प्रस्तुत की है। चित्रों के पास बाणी नहीं होती, वाणी के पास आँखों के दृष्य-विषय नहीं होते, किन्तु चित्रकार की आत्मा बाले लेखक के पास शब्दों की भाषा बोलने वाली तस्वीरें होती हैं। सारथी के नंगा रुक्ख की यह सब से बड़ी विशेषता है कि नंगा रुक्ख के चित्र मार्मिक, विचारोत्तेजक एवं व्यंग्य और प्रतीक की बाणी बोलते हैं।
श्री सारथी जी कहते – “यदि जीवन के द्वार कला-साधना के लिए खुल जायें तो प्रकृति में मानव शरीर के भीतर असंख्य प्रकार के साधना के आयाम देखे जा सकते हैं और उन के परस्पर सम्बंध अनुभूत किए जा सकते हैं। जैसे भतृरिहरि ने कहा है-
साहित्य संगीत कला बिहीनः
साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः
तो वेदो ने कहा है - सा कला या विमुक्तये- जहां कला साधना, पशु की योनि से निकाल आदमी को सौंदर्य और दर्शन में प्रवेश करबाती हैं वहीं पर कला मुक्ति के द्वार भी खोलती है। मुक्ति के लिए एक सेतु का कार्य भी करती है”।
वे कहते- “मैं बहुत सामान्य बुद्धि का बालक था। फिर सब से पहले मेरे कला गुरू ने मिट्टी के खिलौने बनवाये। फिर रेखा चित्र । फिर सुसभ्य व्यक्तियों की संगति में पहले अच्छा, फिर श्रेष्ठ, फिर उच्चतम् साहित्य पढ़ने को मिला। इसलिए मेरा विचार है कि विकास की संभावना व्याप्त है, पर्याप्त है और किसी भी समय किसी का भी विकास आरम्भ हो सकता है। और वह विकास किसी भी चर्म-सीमा को छू सकता है। एक छोटे से उदाहरण के तौर पर वह अपने दो-चार शिष्यों का वर्णन करते। वे कहते- मैं बहुत छोटा हूँगा कि पिताश्री के पास बैठ गायन सुना करता था। उन की आकांक्षा थी कि मैं शास्त्रीय संगीत सीखूँ। जब उम्र हुई कि हारमोनियम का अभ्यास और तबले का ज्ञान प्राप्त कर सकूँ तो सीखने और शिक्षा दोनों का क्रम बनता गया। परन्तु पिता श्री का बार-बार कहना कि लय-ताल को गहनता से समझों क्योंकि बेसुरा चल जाता है पर बेताला नहीं चल सकता। मैंने ताल की ओर अधिक ध्यान देना आरम्भ किया। पठन में हिन्दी-संस्कृत मेरे प्रिय विषय रहे। यह प्यार संगीत के अध्ययन में क्रियान्वित हुआ। भरतमुनि, दामोदर पंडित, अमीर खुसरो और भातखन्डे आदि द्वारा रचित पुस्तकों का अध्ययन साथ चला। परन्तु लेखन के प्रति जिस प्रवृति ने अधिकाधिक आकृष्ट किया वह थी भक्तपदावली तथा भजन संग्रहों का सदैव दृष्टि में रहना। मीरा, तुलसी, सूर कबीर, नानक, रामदास, सहजो, ब्रह्मानंद आदि की आध्यात्मिक रचनाओं ने एक मेरा संगीत तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण दर्शाने का वृहत कार्य किया। दूसरे हर रचना शास्त्रोक्त विधि से सीखने के साथ मुझे रचनाओं ने तरंगित किया जिस के फलस्वरूप मेरे अन्तस में संवेदना का अतिसूक्ष्म बीजारोपण हुआ। पिताश्री निरन्तर अभ्यास करते। वे ताल के ज्ञाता थे। परन्तु अत्यन्त सूक्ष्मभावी तथा स्नेहमय। साथ-साथ कहते जाते कला तो प्रेम की छलछलाती सरिता है। अच्छी शिक्षा विषय का ज्ञान ही नहीं विषय से प्रेम भी सिखाती है। विषय से प्रेम जीवन ही से प्रेम है और जीवन से प्रेम समग्रता से, सर्व से प्रेम है। सर्व से प्रेम ही प्रभु के होने से प्रेम है। एक कलाकार कला के द्वारा प्रभु तक पहुँच जाता है”।
सारथी जी बताते- “नवीं-दसवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते कलागुरू श्री संसारचन्द शर्मा जी से शिष्यता प्राप्त हो चुकी थी। उनके निर्देश आदेश में मिट्टी की मूर्तिकला तथा चित्रांकन का अभ्यास बहुत ही रूचिकर लगने लगा था, मुझे याद है सोचा करता था कि रात ही न हो। मात्र अभ्यास और पठन-पाठन जारी रहे। साथ- साथ हमारे समय के अध्यापक अध्यापन पाठन को ही समर्पित थे। उनका लक्ष्य ही हर बालक को विधा-कला सम्पन्न करना था। मेरे अन्तस चेतन में अब भी कुछेक गुरू आकृतियां हर क्षण विद्यमान रहती हैं। पंडित शुक देव शास्त्री जी, वामदेव जी, श्री श्याम लाल शर्मा, श्री तपस्वी राम जी ऐसे ही महान अध्यापक रहे।
आज का और तब का समय तुलनीय कदापि नहीं है। सागर की बिन्दु से भला क्या तुलना”।
.........क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध

Monday, 9 October 2017

सागर की कहानी (28)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (28)
श्री सारथी जी की किसी भी बात के बारे में पूर्वानुमान लगाना लगभग असम्भव सा था। उन की हर बात, हर क्रिया जो देखने में कितनी ही अर्थहीन दिखे भीतर किसी बड़े अर्थ को समेटे हुए होती। संस्कार भारती का चित्रकला शिविर गीता भवन में चल रहा था। उस शिविर में कई दिनों तक सारथी जी गीता भवन के प्रथम तल पर बने एक हालनुमा कमरे में भारतीय महापुरुषों के चित्र बनाते रहे। उन से कला के गुर सीखने वालों में उनके शिष्यों के साथ-साथ संस्कार भारती के अन्य सदस्य भी शिविर में मौजूद रहते। ......उन के द्वारा बनाए एक खूबसूरत भूदृश्य की पृष्ठ भूमि में त्रिकुटा की पहाड़ियां नजर आ रही हैं। उनके आगे किसी चट्टान पर कोई गारड़ी (लोक गायक) डोगरा परिधान पहने, सिर पर पगड़ी, लंबा कुर्ता और चूड़ीदार पायजामा पहने दिखाई दे रहा है जिस ने हाथ में एक लाठी पकड़ रखी है और उसके साथ ही एक गठरी पड़ी है। गारड़ी एक चट्टान पर बैठा है। गारड़ी (लोक गायक) लोकगायकी का तो प्रचार प्रसार करते ही वे डुग्गर संस्कृति के संवाहक के रूप में भी कार्य करते। एक गांव से दूसरे गांव चलते जोगी एक का संदेश दूसरे तक तथा दूसरे का तीसरे तक पहुंचाते जाते और कारकों, विशनपतों तथा बारों के द्वारा लोगों के मन में अपना स्थान बनाते चले जाते। पूरा भूदृश्य डुग्गर आँचल की एक प्रतिनिधि तस्वीर के रूप में उभरा है। गारड़ी के चेहरे पर संतोष का भाव है साथ ही अध्यात्मिक आनंद भी प्रकट हो रहा है ।
.......एक दिन भगवान श्री कृष्ण के बड़े से चित्र पर उन की तूलिका रंग बिखेर रही थी। मालूम हो रहा था मानों उन की तूलिका अपने आप ही बड़े कन्वास पर घूम रही हो । गोलाकार में उन्हें घेर कर बैठे जिज्ञासु उन की तूलिका की अद्धभुत कार्य कुशलता को सांस रोके, अपलक देख रहे थे। अचानक तूलिका थम गई। पैलेट के रंग पूरी व्यग्रता से सारथी जी को देखते रह गए। जैसे किसी ने अचानक बटन घुमा कर सारा कार्यकलाप रोक दिया हो। सब इस अवरोध का कारण जानना चाहते थे परन्तु कोई साहस न कर पा रहा था। सब आँखों ही आँखों एक दूसरे को इशारे से इस स्थगन का कारण पूछ रही थी। तभी ज्योति साहस बटौर पूछती है- गुरूदेव क्या हुआ। आप ने काम क्यों रोक दिया। कुछ देर निस्तब्धता छाई रही। फिर चुप्पी तोड़ते हुए सारथी जी कहते हैं- यदि तुम श्री कृष्ण के बनते चित्र को देख कृष्णमय नहीं हो जाते, तो कोई अर्थ नहीं है मेरे चित्र बनाने का.............. मेरे लिए तो यह कार्य उपासना है, आराधना है।..... सब के चेहरों के मनोभाव बदल जाते हैं। मानों सब आत्मग्लानि का अनुभव कर रहे हों। किसी के सूक्ष्म से भी सूक्ष्म मनोभाव सारथी जी से छुपे कहां रहते। फिर सारथी जी अपनी दिव्य सी मुस्कान का तीर सब की ओर फेंकते हैं और उन की तूलिका पुणः कन्वास पर घूमने लगती है। सब कला के शिल्प को भूल कृष्णमय होने लगते हैं। फिर सारा वातावरण ही कृष्णमय हो जाता है।
सागर रंगों की आत्मा को जानता है। रंगों का वाहक सूर्य हर सुबह रत्नाकर के गर्भ से निकलता है और शाम को उसी में समा भी जाता है। हर नई सुबह नया सूर्य सागर के आँचल से मुँह बाहर निकालता है और शाम को उसी के आँचल में मुँह छुपा लेता है। विस्तृत आकाश भी स्वयं को संबारने हेतु अपना मुख मण्डल सागर ही में देखता है और अपनी नीलिमा के साथ-साथ अपने सारे रंग सागर को दे जाता है। नई सुबह का नया सूर्य जब सागर के वक्ष पर अपने रंगों का जादू बिखेरता है तो रंग भी अपने आप पर इतराने लगते हैं। उदय और अस्त होते सूर्य ने अनेकों बार सागर के साथ रंगों की होली खेली है। आसमान भी यदा-कदा सागर पर रंग बरसाना नहीं भूलता क्योंकि नभ जानता है रंग उसी को दिये जाते हैं जो रंगों के मर्म को जानता हो।
कला मर्मज्ञ श्री सारथी जी निरन्ता तजुर्बे करते रहते और इस दौरान जो तथ्य व्यक्त हो सकते वे हमें बताते रहते। वे कहते- सात अलंकार होते हैं षडज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। सात रंग होते हैं। सात का महत्व बताते हुए वे कहते- जैसे दिनों के नाम दे दिये गए हैं। रविबार को रवि के साथ जोड़ा गया, सोम का अर्थ चन्द्र होता है, मंगल का कल्याण, बुद्ध - बुद्धि का अत्याधिक उपयोग, वृहस्पति शास्त्र के अनुसार गुरू तथा विद्या का दिन, शुक्र मनोरंजन तथा आराम का दिन, शनिश्चर जैसे कि नाम से ही प्रकट है- शनै चर अर्थात धीरे चलने वाला सुस्त दिन। बिल्कुल वैसे ही सफेद रंग शांति का परिचायक है। पीत मृत्यु का, झर जाने का, पतझड़ का रंग। फिर गेरूआ जो लाल-पीले अर्थात जीवन मृत्यु का मिश्रण है, जीवन और मृत्यु दोनों के समन्वय को दर्शाता है, जिसे अध्यात्मिक रंग भी कहा जाता है।
रंगों के दार्शनिक स्वरूप से परिचित करबाते हुए श्री सारथी जी आगे कहते कि गेरूये वस्त्र वाला मानव, महामानव, आत्मा से महात्मा हो सकता है क्योंकि वह अपने वस्त्रों से प्रकट करता है कि वह मर कर जी उठा है। अर्थात क्षण-क्षण मरने को तैयार है और उस मृत्यु से जो जीवन प्राप्त होता है वह शाश्वत जीवन है। इसी प्रकार जामुनी रंग- शक्ति का, माया का, विद्या का, रस का रंग है। यह दो रंगों का मिश्रण है- लाल तथा नीले का। विशुद्ध नीला तो गहराई का रंग है। गगन, समुद्र, ईश्वरत्व, ब्रह्माण्ड़, विचार सागर की गहराई। हरा बनस्पति का, उपज का, पुर्नजन्म का, प्रफुल्लित होने का। परन्तु श्री सारथी जी सफेद और काले को रंग न मानते हुए कहते - सफेद मात्र प्रकाश परदर्शित करने के लिए अथवा प्रकाश का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। श्याम अर्थात काला रंग, रंग न हो कर अंधकार का रंग, अज्ञान का रंग और निष्क्रियता का रंग है।
क्रमशः...........कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 8 October 2017

सागर की कहानी (27)

सागर की कहानी (27)
श्री सारथी जी की चित्रकला और अधिक थाह लेने से पूर्व ऐसे रचनाकार की रचना प्रक्रिया को समझाना होगा जो साहित्य सृजन के साथ साथ रेखायों और चित्रों के माध्यम से भी स्वयं को व्यक्त करता हो। ऐसे में एक नाम जो मस्तिष्क पटल पर उभरता है वह गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर का है। बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि टैगोर ने 63 वर्ष की आयु में चित्रकला सीखनी आरंभ की थी और 4 वर्ष उपरांत उन्होंने क्लाकृतियाँ बनाना आरंभ कर दी थी ..... आने वाले अगले 14 वर्षों में उन्होंने भारतीय चित्रकला क्षेत्र में अपनी कलात्मकता की अमिट छाप छोड़ दी थी । टैगोर का मानना है की चित्रों के द्वारा वे ऐसी अभिव्यक्ति चाहते थे जो वे लेखनी द्वारा न कर पाए। टैगोर की अधिकतर चित्र कलाकृतियां प्रतीकात्मक है हालांकि उनकी लेखनी में प्रतीकों का कम ही इस्तेमाल हुआ है। कहने का भाव यह है कि चित्रों द्वारा उनके पास अभिव्यक्ति के लिए ऐसा बहुत कुछ था जो वे अपनी लेखनी द्वारा अभिव्यक्त न कर पाये थे।
इस के विपरीत सारथी जी ने सर्वप्रथम सुरों एवं रंगों को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया,साहित्य सृजन को उन्होने बाद में अपनाया। सुरों एवं रंगों में अज्ञात को ज्ञात करने की क्षमता शब्दों से कहीं अधिक है। यही कारण है सारथी जी साहित्य में प्रतीकों एवं संकेतों की बहुलता है । सारथी जी का साहित्य चिंतन प्रधान है जब की उन के चित्रों एवं रेखाचित्रों में भाव प्रधानता है। विषय के आधार पर उन के चित्रों एवं रेखा चित्रों को चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
मानव चित्र portrait
भूदृश्य landscape
आंचलिक चित्र regional paintings
पौराणिक चित्र mythological paintings
सांकेतिक चित्र symbolic paintings
जब रविंद्र नाथ टैगोर के चित्रों की बात होती तो doodles का ज़िक्र होता ही है । doodles ऐसी drawings को कहते हैं जो चिंतन में व्यस्त कलाकार सहज ही बनाता चला जाता जिस का विशेष अर्थ हो सकता है और यह अमूर्त आकृतियों के रूप में भी हो सकते हैं। सारथी जी के बहुत कम doodles देखने को मिलते हैं क्योंकि साधारणतः वे जब भी कोई लेख कहानी इत्यादि लिखते तो साथ ही किसी रेखा चित्र की रचना भी हो ही जाती। पेंसिल से खींची गई उनकी रेखा में प्रकाश और छाया के अद्भुत प्रभाव को देखा जा सकता। घुमावदार, हल्की, गहरी, गोलाकार, अर्ध गोलाकार, बहुत गहरी, सहलाती, बलखाती रेखाएं। कहीं रेखा बहुत हल्की, कहीं थोड़ी गहरी, फिर और गहरी, फिर बहुत गहरी, फिर बिना पेंसिल ऊपर उठाए किसी भी रेखा चित्र को ऐसे बनाते मानो पेंसिल कागज पर चिपकी हुई हो और बिना रुके सहज ही अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही हो। पैन से कोई रेखा चित्र बनाते हुए भी ऐसा ही चमत्कार देखने को मिलता। मैंने उन्हें कभी किसी रेखा को मिटाते हुए कभी नहीं देखा । किसी रेखा में किसी प्रकार का संशोधन करते हुए नहीं देखा। घड़ीसाज और चिंतन शीर्षक से छपी दैनिक कश्मीर टाइम्स में उनकी धारावाहिक लेखमाला के साथ एक रेखाचित्र सदैव रहता जिसे वे पैन से बनाते। पहले वे रेखा चित्र बनाते फिर बड़े से पन्ने पर लेख उतरने लगता। मैंने उन्हें कभी किसी वाक्य को दोहराते, संशोधित करते नहीं देखा। जो लिखा वही उनका अंतिम सत्य होता । एक बार आरंभ करने के बाद लेख की समाप्ति पर ही कलम को हाथ से छोड़ते।
श्री सारथी जी हमें बताया करते - वास्तव में चित्रकला के द्वारा हमें वहाँ पहुँचना चाहिए जो हम देख नहीं सकते। सन 1965-66 में उन्होंने इस दर्शन को कन्वास पर उतारना आरम्भ कर दिया। उन का कथन है - जब तक एक व्यक्ति जो दिखाई नहीं देता उस को देखना आरम्भ नहीं करता तब तक केवल पदार्थ की नकल का कोई औचित्य नहीं। इसी दौरान उन्होंने वेदों, उपनिषदों एवं भतृरिहरि के श्लोकोंपर आधारित चित्र बनाना आरम्भ कर दिया। उन के द्वारा बनाये पानी और तैल रंगों से बने चित्रों में रंगों की हारमोनी देखते ही बनती। स्वयं मास्टर संसारचन्द जी उन्हें रंगों का जादूगर कहा करते।
क्रमशः......कपिल अनिरुद्ध

Monday, 2 October 2017

सागर की कहानी (26)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (26)
सफरनामा के द्वारा श्री सारथी जी की जीवन यात्रा और आगे बढ़ती है - 1959 में आर्मी की नौकरी छोड़ने के उपरान्त मैं मास्टर जी, मास्टर संसारचन्द से मिला। वे डोगरी संस्था के संस्थापकों में से एक थे और उस समय संस्था के प्रधान थे। उन के होते हुए मेरे जीवन ने एक नया रंग इख्तियार किया। प्रोo रामनाथ शास्त्री जी से मिलना हुआ। फिर नारायण मिश्र, राम लाल शर्मा, मधुकर, दीप से मिलना हुआ। साथ ही हिन्दी के मुजाहिद श्री बंसी लाल सूरी जी से मिलना हुआ। फिर हिन्दी के लेखकों से परिचय हुआ। एक नये प्रकार की बाकफियत मदन मोहन शर्मा, वेद राही, वेदपाल दीप, विद्यारत्न खजुरिया, श्यामलाल शर्मा, गंगा दत्त शास्त्री विनोद तथा कईं सदस्यों के साथ होने के साथ मेरे परिचय का आकाश विस्तृत हुआ। 1962-63 में चित्रकला -एकल- प्रदर्शनियाँ डोगरी संस्था की आर्थिक सहायता से कीं।
उन के चित्रों में डोगरी और डुग्गर के प्रति उन के प्रेम की पराकाष्ठा के दर्शन होते। चाहे portrait हो या landscape उस में जम्मू का जुगराफिया और कुदरत ही झाँकेगी। कहीं किसी चित्र में कोई गारड़ी नई सुहागिन को घर की खबर देता दिखाई देता तो कहीं कोई औरत छबील का पानी पिलाती नज़र आती।
डुग्गर लोकजीवन एवं डुग्गर सभ्यता एवं संस्कृति ने भी उन के चित्रों के माध्यम से अभिव्यक्ति पाई है। उन के द्वारा चित्रित बावे का किला, तवी की रबानगी, समाधियाँ, पुराने मन्दिर, त्रिकुटा पर्वत एवं जम्मू के अन्य पर्वत डुग्गर धरती की सुन्दरता का ही बखान करते नज़र आते हैं।
श्री सारथी जी बताया करते कि उन्होंने श्री देवदास जी के साथ पगड़ी दे कर एवं लड्डू खिला कर मास्टर जी की शिष्यता ग्रहण की थी। उन के अनुसार - जब मास्टर जी कार्य करते तो हम दोनों मैं और देवदास ड्राइंग करते हुए चोरी नज़रों से उन्हें देखते। उन की पैलेट बहुत ही संक्षिप्त और गर्म मिज़ाज की पैलेट थी। वह शायद कण्ड़ी और गर्मी का प्रभाव रहा होगा। दूसरी ओर मास्टर जी तस्बीर पूर्ण करने में उताबले बहुत होते थे। इतने उताबले कि निरन्तर एक टक देखने पर भी कोई यह ग्रहण करने में सक्षम नहीं हो सकता था कि रंग कौन सा किस में मिला कर लगा दिया गया है परन्तु परिणाम गज़ब का होता। मास्टर जी का figure पर पूर्ण अधिकार था। वे अक्सर ड्राईंग करते, figure design करते, परन्तु स्वभाव के उताबलेपन को छुपा न सकते और शीघ्र अति शीघ्र ड्राईंग को मुकम्मल कर देते।
श्री सारथी जी का Figure design करने में अनोखा अंदाज़ था। वे कागज़ को यूँ देखते जैसे उस पर कुछ बनाने से पहले सब कुछ बन चुका है। फिर एक अदा से पैंसिल की परछाई सी उस पर से घुमाते और बहुत हल्के से रेखाओं को आकार में ला कर गूढ़ा करते। पैंसिल चलाते हुए वो इस प्रकार उस पर दबाव बनाते कि प्रकाश ओर छाया का प्रभाव दिखाई देने लगता। यह उन का कमाल ही था कि कोई भी figure या landscape बनाते हुए उन के द्वारा खींची गई रेखा सार्थक एवं हर रेखा अपने महत्व की कहानी कहती प्रतीत होती।
दो प्रकार के कमाल मुझे श्री सारथी जी के याद आते हैं। पहला कमाल तो यह था कि उन की शैली water colour में direct application of colour की थी। वे mixing भी बहुत कम करते और पैलेट से सीधा रंग काग़ज़ पर चिपका कर उसे वहीं बिछाते। उन्हें figure और landscape पर पूर्ण अधिकार था। विशेषतः जब वे पुराणों और रामायण आदि के पात्रों को, देवी-देवताओं के रुप-स्वरुप को चित्रित करते उन में सौंदर्य अपनी पराकाष्ठा पर दिखाई देता था।
श्री सारथी जी बताते - मैं और देवदास वर्षों तक पैंसिल स्कैचिंग करते रहे। कभी ड्राईंग कुछ ठीक बनती और कभी बहुत ही ग़लत और त्रुटिपूर्ण। अक्षण ही वे त्रुटि ठीक कर के उठ जाते । जब कभी हम दोनों देर से पहुँचते, वे हमें डाँट कर लौटाने लगते । परन्तु शीघ्र ही बैठने और काम करने को कह देते। मास्टर जी ने दो विवाह किए थे। दोनों ही महिलायें वात्सल्य और प्रेम की प्रतिमूर्ति थीं। यह ऐसा देवी चमत्कार था कि एक घर में दो महिलायें इतने प्रेम, सौहार्द और सदव्यवहार से रहती थी कि प्रारम्भ में पता लगाना मुश्किल हो जाता कि इन का कहीं सौत का रिश्ता है।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 24 September 2017

सागर की कहानी (25)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एकप्रयास
सागर की कहानी (25)
साहित्यकार नीर क्षीर करने वाला होता है। उस की सूक्ष्म दृष्टि झूठ और सच को अलग अलग खेमों में खड़ा देखती है। प्रेम, सहानुभूति, संवेदना तथा श्रद्धा को पूर्ण रूपेण जानने हेतु ईर्ष्या, क्रोध, क्रूरता तथा अज्ञानता को समझना बेहद ज़रूरी है या यूँ कहें कि झूठ क्या है जान लेने वाला सच क्या है जान ही जाता है। सारथी जी हमें झूठ से परिचित करवा सच की ओर ले जाते रहे। अपने एक शेअर में वे लिखते हैं-
शौर है बस्ती से अब साये उठाये जायेंगे।
रोशनी होगी कि जिस से घर जलाये जायेंगे।
अपनी रचनाओं में सारथी जी नैतिक अवमूल्यन के जिस दर्द को स्वर्य अनुभव करते हैं वही दर्द वे पाठक में भी जगाना चाहते हैं। साहित्यकार मानवीय मूल्यों का आईना तो समाज को दिखाता है परन्तु वह किसी उपदेशक या प्रचारक की भान्ति नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ाता बल्कि वह नैति अवमूल्यन तथा विघटन के कारणों की ओर संकेत मात्र करता जाता है। वह विकृति क्यों है यह तो बताता है परन्तु विकृति के निदान का मार्ग नहीं सुझाता। वह चाहता है मार्ग पाठक स्वयं खोजे।
सारथी जी जिन नैतिक मूल्यों की बात अपनी रचनाओं में करते रहे उन मूल्यों को वे अपनाये हुए थे। उन के लिए नैतिक मूल्य मात्र आदर्शात्मक नहीं थे बल्कि मूल्य केवल इसलिए ही जीवन और नैतिक मूल्य थे क्योंकि इन्हें जीवन में उतारा जा सकता है। वे अपनी रचनओं में कहीं लुप्त हो चले पुराने मूल्यों को पुणः स्थापित करने की बात करते है तो कहीं गौरवमय अतीत और संस्कृति शून्य वर्तमान में तुलना करते भी दीख पड़ते हैं। इस शेअर में वे हम क्या थे क्या हो गये यह बताते दृष्टिगोचर होते हैं-
नक्ष थे कितने जुनू के सब पुराने हो गए।
शौक वालों के तो मकतल में ठिकाने हो गए।
क्हीं वे भयावह यर्थाथ की बौखलाहट पाठक में भर उसे चिन्तन करने को विविश करते हैं तो कहीं कुछ मूल्यों में जड़ता आ जाने के कारण वे उन्हें छोड़ देने की दुहाई भी देते हें और फिर आवश्यकता पड़ने पर वे नये मूल्य भी गढ़ते है।
सारथी जी की नाराज़गी, खींज एवं क्रोध में भी संवेदना एवं करुणा छिपी रहती जिस के दर्शन यदा कदा होते ही रहते। कईं बार विषाद से प्रकुपित और शौकातुर हो वे कहते- कईं एक क्षेत्रों की भान्ति खण्ड़ काव्य की स्पर्धा में भी जम्मू की धरती पीछे छूट गयी है। बहुत कम लोग हृदय, भाव, कल्पना और सौन्दर्य को लय-ताल बद्ध करने में सम्थर्य हैं। जिन को प्रभु ने यह साम्थर्य दी भी है उन से जो कुछ भी लिखा जाता है उसे वह अपनी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति कह कर लोगों में धकेल देते हैं। और जिन्हें न काव्य का, न अतीत का, न वर्तमान का, न अपना और न लय-ताल का ज्ञान है, वे काव्य का परचम ले कर घूम रहे हैं। वे कहते काव्य की एक अति कठिन विधा को फुटपाथी बना दिया गया है। उन का संकेत शायद ग़ज़ल की ओर होता। एक दिन कहने लगे- मैंने किसी भाषा के स्वयंभू महाकवि से कहा कि वह जिस कवि से अत्याधिक प्रभावित है, उस के चार शेअर सुना दे। तो महाकवि ने उतर दिया- मैं स्वयं से तथा अपने अंहकार से प्रभावित हूँ।
वे कहते- जम्मू की धरती को क्योंकि लयताल और सुर से कोई सरोकार नहीं है इसीलिए मन्दिरों की इस धरती पर गत चार-पाँच दशकों से कोई शास्त्रीय संगीतकार रोशनी में नहीं आया तथा न ही कोई साधक-आराधक जिस ने भजनों द्वारा अर्थात काव्य द्वारा कोई उपलब्धि की हो, दृष्टिगोचर हुआ है। फिर कहते यही कारण है कि जम्मू की धरती को अब मेरी आवश्यकता नहीं।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध

Monday, 18 September 2017

सागर की कहानी (24)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (24)
सागर में जन्म देने, पालन करने तथा संहार करने की शक्तियाँ निहित होती हैं। जहां एक तरफ सागर कईं जीव-जन्तुओं, जड़ी-बूटियों का जन्म दाता है वहीं सागर ज्वार भाटा की स्थिति में संहारक की भूमिका निभाता भी नज़र आता है। नवनिर्माण के लिए संहार आवश्यक है। सड़ी- गली रुढ़ियों का विनाश ही नई आस्थओं एवं परम्पराओं को जन्म देता है। इस संबंध में सुमित्रा नन्दन पंत की यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :-
द्रुत झरो जगत् के जीर्ण पत्र!
हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!
श्री सारथी जी जहां एक तरफ उत्कृष्ट रचनाकार थे, जिज्ञासुओं के मार्गदर्शक एवं प्रेरणा स्त्रोत थे वहीं अनैतिकता, मूल्यहीनता एवं संस्कार शून्यता के विरुद्ध एक संहारक की भूमिका निभाते भी नज़र आते। श्री सारथी जी की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में श्री आरo केo भारती जी कहते हैं - मैं अदबीकुंज की साप्ताहिक गोष्ठी में एक व्यंग्य लेख ले कर आया। यह लेख ऊर्दू दैनिक हिन्द समाचार में प्रकाशित हुआ था। मैंने उस लेख में उन आधुनिक नारियों की बात की थी जो कार में अपने कुत्तों को गोदी में बिठा कर घूमती हैं। उस लेख में कुछ एक ऐसी बातें भी मैं लिख गया था जिसे एक ढंग से अश्लीलता की कोटि में रखा जा सकता है। जब मैने वही लेख श्री सारथी जी के सामने पढ़ा तो वे कुपित हो गये और कहने लगे- किस मूर्खानन्द ने तुम्हारा यह लेख समाचार पत्र में प्रकाशित कर दिया। तुम्हें तो साहित्यिक भाषा का भी ज्ञान नहीं। साहित्य तो सब का हित करने वाला, उत्थान करने वाला होता है और तुम....................मैं एक अपराधी की भान्ति मूक खड़ा सब कुछ सुनता जा रहा था। उस दिन तो शायद उन के शब्दों के मर्म को पूरी तरह न समझ पाया होऊं परन्तु आज यह महसूस कर पा रहा हूँ कि सारथी जी के मन में नैतिक्ता, मर्यादा तथा मानवीय मूल्यों के प्रति कितनी गहरी संवेदना थी।
एक साहित्यकार अपने समय का सजग पहरेदार होने के साथ-साथ समाज को नैतिक्ता का दर्पण दिखाने वाला भी होता है। आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी साहित्य में मूल्यों का समर्थन करते हुए कहते हैं-मैं साहित्य में मनुष्य की दृष्टि का पक्षपाती हूँ। जो मनुष्य को दुर्गति एवं हीनता से बचा न सके, जो उस की आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को समाज का दर्पण बताया है। सामाजिक उत्थान एवं पतन साहित्य रूपी समाज में साफ झलकता है। साहित्य समाज से और समाज साहित्य से प्रेरति होता ही रहता है। दोनों को यदि एक दूसरे का पूरक कहा जाये तो अनुचित न होगा। सारथी जी अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को नैतिकता का दर्पण दिखाते हुए व्यक्ति के खोखलेपन, उस की आडम्बर वृति तथा निरर्थक्ता पर कटाक्ष करते हैं। हर कोई दौड़ रहा हे परन्तु कोई कहीं पहुँच नहीं रहा। मुबारकवाद, शोक सभाओं तथा बेकार के प्रर्दशनों में खोया आदमी अपनी मौलिक्ता खो चुका है। प्रगति एवं उन्नति के नाम पर मानवता का वध किया जा रहा है। उन की रचनाओं में सम्पूर्ण नगर, पूरी धरा को एक सजग रचनाकार की नज़र से देखा गया है।
........क्रमशः.... कपिल अनिरुद्ध

Thursday, 14 September 2017

सागर की कहानी (23)


सागर की कहानी (23)
एक अन्य रोग की चर्चा करते हुए वे कहते - एक छोटा सा रोग है तुलना का रोग। यह जानते हुए भी कि जीवन में जो कुछ मिलना या घटित होना है वह अपने पूर्व कर्मानुसार मिलेगा। फिर भी लोग लगातार तुलना करते जाते हैं। वास्तव में आम आदमी इस लिए दुखी नहीं है कि उस की कामनायें पूरी नहीं हो रही बल्कि इसलिए दुखी है कि सामने वाले के पास जो कुछ है वह क्यों है। मेरे पास उस जैसा मकान क्यों नहीं। मेरी नौकरी उस जैसी या उस से बड़ी पदवी वाली क्यों नहीं। मेरे बच्चों को यह क्यों नहीं मिला वो सीट क्यों नहीं मिली। इस तुलना ने सम्पूर्ण मानवजाति को अपनी गिरफत में ले रखा है।
हमारा मन विशेषकर अर्द्धचेतन मन गुणों- अवगुणों, इच्छाओं, कामनाओं का भण्डार है। इस में यदि हिंसा, क्रोध, आक्रोश, इर्ष्या, तुलना इत्यादि भरे होंगे तो व्यक्ति के निरोगी होने की, स्वस्थ होने की कोई संभावना नहीं। परन्तु यदि सतोगुणी आहार विहार द्वारा मन में सतोगुण का प्रादुर्भाव हो जाए तो ऐसा मन न केवल स्वस्थ शरीर के निर्माण में सहायक होगा बलिक सम्पूर्ण वातावरण में निरोगता की तरंगें भी फैलाता चला जाएगा।
हमारा अन्तःकरण रोगी है अथवा स्वस्थ इसे परखने की विधि बताते हुए श्री सारथी जी कहते- जब शुभ संकल्प विकल्प कम हो जाये तो अन्तःकरण के रोग जन्म लेते हैं। वे कहते भीतर के रोगों की चिकित्सा हर कोई नहीं कर सकता। इस के लिए ज्ञान विज्ञान के साथ साथ क्रियात्मकता भी चाहिए। वरना आचार्य चाणक्य की यह उक्ति अनाभ्यासे विषं धर्मम अर्थात अभ्यास के बिना धर्म विष बन जाता है तो चरितार्थ होती दिखाई दे ही रही है।
बहुधा जब श्री सारथी जी शरीर अथवा मन की बात करते तो आयुर्वेद की बात सहज ही बीच में आ जाती। अपने सृजनात्मक पलों की बात करते हुए श्री विजय सेठ जी को दिये साक्षात्कार में वे कहते हैं- सुबह और रात के आखिरी पहर में लहु की रफतार, रक्त की गति बड़ी सुस्त होती है और रक्तचाप भी बड़ा कम होता है। परन्तु जब रक्त की रफतार तेज़ होती है और रक्तचाप अधिक होता है तब बहुत अधिक विचारों के आने जाने के कारण शरीर असुविधा जनक अवस्था में होता है। वे साहित्य सृजन हेतु कम रक्तचाप वाली अवस्था को उपयुक्त माना करते। उनके अनुसार इस समय नींद पूरी तरह खुली होती है पर शरीर पूरी तरह से जागृत नहीं होता। इसी संदर्भ में उच्च रक्तचाप के बारे में वे कहते हैं- बात दरअसल यह है कि विचार और कुछ नहीं हमारा रक्तचाप है, blood pressure है। विचार ही रक्तचाप को चलाता है। एक विचार आया रक्तचाप बढ़ा। दूसरा आया बढ़ा और तीसरा आया और बढ़ा.........पुत्र ने कहा फीस भरनी है, पत्नी ने कहा साड़ी चाहिए, पिता ने कहा टानिक चाहिए बस! बहार ही बहार। रक्तचाप ही रक्तचाप। वह कम तो होगा ही नहीं। वह बढ़ता चला जाएगा और एक दिन high blood pressure उच्च रक्तचाप में बदल जाएगा।
वे कहते-संशय विचार को जनम देता है। विचार तर्क को, तर्क पदार्थ को, पदार्थ रक्तचाप को। यदि सामान्य, सरल और शांत रहना चाहो तो किसलिए क्या किया इसे विस्मृति में डालने की साधना करो। कर्म होने से पूर्व और पश्चात दोनों ही उस के फल के अर्थात प्रतिक्रिया के क्षण हैं। यदि कारण मूल ही कुछ न हो तो फल तथा प्रतिक्रिया दोनों ही अस्तित्वहीन हो जाएंगे।
.......क्रमशः ........कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 13 September 2017

सागर की कहानी (22)

आज गुरुदेव सारथी जी का प्रयाण दिवस है । आज से 15 वर्ष पूर्व 10 सितंबर 2002 को श्री गणेश चतुर्थी के दिन वे परमतत्व में लीन हुए थे। गुरुदेव के महाँ प्रयाण दिवस पर उन के जीवन पर आधारित उन की जीवनी के इस 22वें भाग द्वारा अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
सागर की कहानी (22)
श्री सारथी जी के अनुसार चिकित्सा का अर्थ औषधी निर्माण नहीं है बल्कि शरीर में वात-पित-कफ को व्यवस्थित करना और इन तीनों विकारों की वृतियों को समझे बिना चिकित्सा कार्य आड़म्बर है। जैसे कोई सुदृढ़ और प्रभावशाली रचना किसी कलाकार के निरन्तर चिन्तन की प्रक्रिया होती है, वैसे ही स्वास्थय निरन्तर चिन्तन का विषय है। वे कहते आदमी मात्र मेरुदण्ड है बाकी कुछ नहीं। मेरुदण्ड ही मस्तिष्क है, मानस पटल है। शरीर की सारी शक्तिायाँ इस के द्वारा ही कार्य करती है। आयुर्वेद अर्थात आयु का, मानव अवधी का ज्ञान-विज्ञान। तो उस को प्राप्त करने के लिए मानव क्या है, क्यों है, कैसे है यह जानना बहुत आवश्यक है।
श्री सारथी जी बहुधा बताया करते कि किसी वस्तु के सम्पूर्ण आयाम को देखना, क्यों, क्या कैसे के बिना असम्भव है। संसार क्या है, क्यों है, कैसे है। मानव क्या है, क्यों है, कैसे है। प्रकृति क्या है, क्यों है तथा कैसे है तथा मानव शरीर क्या है, क्यों है, कैसे है। जब तक यह न समझ लिया जाए तो संसार की कोई बात समझ नहीं आयेगी। वे ब्रह्मऋषि वाल्मीकि के इस शलोक शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम् का अर्थ समझाते हुए कहते-शरीर को जानना बहुत आवश्यक है। शरीर को जाने बिना संसार के किसी धर्म का पालन नहीं हो सकता। जब तक मानव शरीर को नहीं समझ लेता, संसार में वह कुछ भी नहीं समझ सकता क्योंकि आदमी जो कुछ भी करता है वह प्रतिक्रिया है विचारों की ओर विचार मस्तिष्क में पैदा होते हैं। और मस्तिष्क संस्कारों से पैदा होता है। और संस्कार मन के द्वारा हैं। इसलिए जब भी कोई अनुसंधान होता है चाहे वह अन्तर्मुखी हो या बहिर्मुखी हो, मन से आरम्भ होता है। मन संस्कारों का वाहन हो। इसलिए शरीर का निर्माण यदि सतोगुणी चीज़ो से होगा तो उस के मन में सतोगुणी बातों का प्रादुर्भाव होगा।
कुछेक मानसिक रोगों का विवरण देते हुए वे कहते- अगर शरीर को संतरे के छिलके की भांति माना जाए तो भीतर का गूधा अंतस चेतन कहलाएगा। छिलका भी रोगग्रस्त होता है और अन्दर का गूधा भी रोगी हो सकता है। कई बार बाहर का छिलका बिल्कुल स्वस्थ दिखाई देता है लेकिन भीतर से फल पूरी तरह सड़ा हुआ निकलता है। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि बाहर से निरोग और सुन्दर दिखने वाला शरीर भीतर से भी पूर्णरूप से स्वस्थ ही हो। अन्तःकरण के रोगों की बातें करते हुए वे कहते- हिंसा का घातक रोग दिन प्रतिदिन बढ़ता चला जा रहा है। यह रोग नैतिकता और हृार्दिक्ता का विनाश करता चला जा रहा है। यही कारण है आज सम्बन्धों मे विच्छेद बढ़ता जा रहा है। दूसरी तरफ अंहकार का रोग शरीर के भीतर का जल समाप्त कर देता है। अंहकार मनुष्य को सूखी लकड़ी जैसा रंगहीन और नमी से शून्य कर देता है। अंहकार व्यक्ति के शरीर की लचक को समाप्त करता ही है उस के भीतर की सहजता सरलता तथा विनम्रता को भी समाप्त कर देता है।
.......क्रमशः ......कपिल अनिरुद्ध

Monday, 11 September 2017

सागर की कहानी (21)

सागर की कहानी - श्री सारथी जी की जीवनी को धारावाहिक रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयास 
सागर की कहानी (21)
श्री सारथी जी का जीवन बहुआयामी रहा है। उन के अनुसार उन का जन्म जीवन की अज्ञात शक्तियों को खोजने के लिए उन क्षेत्रों को खोजने के लिए हुआ जिन्हें विज्ञान, योग, साधना, कला, अध्यात्म का नाम दिया है। इस में गहनता से उतरना था। मुझे भगवान ने यह देखने के लिए भेजा था कि देखो ताल क्या होता है, सुर क्या होता है। शब्द, अर्थ, रस क्या होता है। जप, तप, योग, मंत्र साधन यह सब क्या है। फिर सब से बड़ा यंत्र यह शरीर क्या है जिस के द्वारा सब कुछ है। जिस के भीतर मानव बैठा है और जो एक लम्बे अर्से तक मानव की रक्षा करता है।
श्री सारथी रुपी सागर के आगोश से उदय होने वाले और फिर उसी में अस्त हो जाने वाले एक और सूरज का नाम आयुर्वेद है। शरीर के मर्मज्ञ श्री सारथी जी को धर्म गुरू एवं अपने मामा से चिकित्सा की विद्या उपलब्ध हुई। इस में भी उन का दृष्टिकोण रचनात्मक न हो कर अनुसंधानात्मक होता। जब वे किसी रोग का विवरण देने लगते तो ज्ञात होता कि वे ब्रह्माण्ड के किसी विकार से बात कर रहे हैं। मैंने उन्हें कईं बार असाध्य रोगों को साध्य बनाते हुए देखा है। चिकित्सा के बारे में वे कहते-भगवान शरीर देते हैं, चिकित्सक प्राण देता है। भगवान और चिकित्सक मिल कर संसार चलातें हैं। एक भी कोताही करेगा तो विश्व विनष्ट हो जाएगा।
वे कहते मानव समाज का सारा दायित्व चिकित्सक पर है। वे तीन प्रकार की चिकित्सा में विश्वास रखते। शरीर की चिकित्सा, मन की चिकित्सा, तथा आत्मा की चिकित्सा। तीनों डाकटर चाहिए तीनों समर्पित चाहिए। रोग मात्र शारीरिक ही नहीं होते वे मन तथा आत्मा दोनों को ग्रस लेते हैं। अज्ञानी चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा की सेवा लिए जाने पर रोग भयंकर रुप धारण कर लेते हैं। तीनों चिकित्सक अत्यन्त अनुभवी चाहिए। विशेषकर वे जो मन और आत्मा की बिमारियों की चिकित्सा करते हैं। वे कहते -शरीर के भीतर मन है, शरीर के भीतर आत्मा है तथा शरीर के भीतर उर्जा है। इन तीनों का आपस में सामंजस्य, तीनों की संधि जीवन कहलाता है। भारत की पुण्यभूमि पर हज़ारों वर्षों से ऐसे चिकित्सक अवतरति होते रहे हैं जिन्होंने मन की चिकित्सा की, प्राणों की तथा शरीर की चिकित्सा की। वे अनुभवी होने के साथ-साथ स्वयं में अनुसंधान प्रयोगशाला थे तथा बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के मूल मंत्र का उच्चारण कर मानव का किसी भी प्रकार का दुःख दूर करने का प्रयत्न करते थे। परन्तु लौकिकता तथा पदार्थ के दुष्प्रभाव ने मानव को भोगवादी सुसंकृति के मध्य ला खड़ा कर दिया हैं। वे कहा करते आयुर्वेद युक्ता आहार-विहार के द्वारा सतोगुण आहार पर बल देता है। जिस से शरीर का निर्माण हो, शरीर विचलित न हो। किसी प्रकार की साधना के लिए शरीर का ठहराव अत्यावश्यक है। ठहरे हुए शरीर में ही मन ठहर सकता है। दूसरी ओर शरीर संयम से, दमन से ठहरता है। एकाग्रता चाहे आनन्द प्राप्ति, भगवद् प्राप्ति, किसी वस्तु की प्राप्ति अथवा ललित कला में सिद्धहस्त होने के लिए हो, इस में मन और शरीर दोनों का सहयोग अनिवार्य है। और आयुर्वेद में बहुत सारी औषधियाँ, बहुत से ऐसे रस मौजूद हैं जिन के सेवन से मन भी ठहरता है और शरीर भी। इसलिए उन के कथनानुसार शरीर का अध्ययन बहुत ज़रुरी है। हर एक आदमी को अपने शरीर का सर्म्पूण ज्ञान और आयुर्वेद का उचित ज्ञान होना अनिवार्य है।
श्री सारथी जी की बातों में आयुर्वेद का उल्लेख प्राय आ ही जाता। अपने प्रथम डोगरी उपन्यास त्रेह समुन्दर दी में व नई चिकित्सा पद्धतियों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं- ‘सब कुछ परिवर्तित हुआ है परन्तु रोग नहीं। रोग वही हैं। उन की चिकित्सा भी वैसी ही होनी चाहिए। परन्तु आश्चर्य है कि रोग व उस का मूल कारण वही पुराना है, पर औषधियाँ बदल गई हैं। औशधी बदल जाने से रोग के निवारण की विधि में परिवर्तन नहीं हेाता व न ही रोग अपना स्वभाव तथा लक्षण बदलता है’। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं- ‘शरीर में जहाँ विकार होता है, उस की चिकित्सा भी वहीं पर होती है। प्रत्येक विकार शरीर की सफाई माँगता है। शोधन माँगता है’।
........क्रमशः ..............कपिल अनिरुद्ध